हमारी अर्थ व्यवस्था का बदलता स्वरूप

लेखक : डॉ.सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं 

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इन दिनों दुनियाँ की बड़ी और धनी अर्थव्यवस्थाओं की राष्ट्रीय आय या तो स्थिर है अथवा गिर रही है। भारत में आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, मंहगाई बेलगाम हो रही है। आज की वैश्विक स्थिति में जब रूपये की कीमत अत्यधिक गिरती जा रही है, भारत के विदेशी आर्थिक सम्बन्ध असामान्य हो रहे हैं, आम आदमी की क्रय शक्ति गिर रही है, सुधरने के संकेत नहीं मिल पा रहे हैं। रोजगार घट रहे हैं, कर्मचारियों की छटनी की जा रही है। कुल मिला कर पिछले सत्तर साल में आर्थिक हालात की स्थिति कभी भी आज जितनी दयनीय नहीं हुई। देश की तीन चौथाई जनता का वार्षिक खर्च 1800/-रूपये से लेकर 7300/-रूपये के बीच आता है। खुदरा बाजार में दैनिक उपभोग की चीजों के दाम अभी ऊँचे बने हैं, खासकर खान पान के सामान अभी भी करोड़ों लोगों की पहुंॅच से बाहर बने हुए हैं। दालों, खाद्य तेल, दूध, फलों आदि के दाम अधिकांश लोगों की पहुँच से बाहर हैं। 

कुपोषण की दृष्टि से हालत यह है कि विश्व में कुपोषण में 25 प्रतिशत हमारी भागेदारी है। जीडीपी में खेती बाडी का हिस्सा घटा है। उत्पादन लागत में बृद्धि हुई है। 29: आबादी गरीबी की सीमा में है। 69 करोड एक समय भोजन करते है। 8.9: लगभग 1 करोड़ भूखे रहते हैं। 81.1 करोड़ अपर्याप्त भोजन प्रतिदिन करते हैं। हमारे यहंा 15: भुखमरी है। कैलोरी की मात्रा 1500 से 2385 मिलती है उसमें प्रोटीन की मात्रा 30 ही है। पेयजल की मात्रा भी कम होती जा रही है। हर साल 13.15 लाख आबादी बढ़ रही है। निर्यात में गिरावट, कल कारखानों में उत्पादित माल के उत्पादन में कमी, आयात की ऊँचाई स्थिति को ज्यादा खराब कर रही है।

पिछली सालों में फैक्ट्री क्षेत्र में रोजगार गिर गया। कल कारखानों में प्रत्यक्ष रोजगार उत्साहवर्धक नहीं है। 45 करोड़ से ज्यादा लोगों की श्रम शक्ति, युवा लोगों का जनसंख्या में आधे से ज्यादा अनुपात, हर साल 150 लाख लोगों का रोजगार के लिए अपने आपको पेश करना, विद्यमान रोजगारों से श्रमिकों की छंटनी, नये रोजगार का अपर्याप्त लक्ष्य बेरोजगारी की विषम स्थिति दर्शाते हैं। असंगठित क्षेत्र की स्थिति तो और भी खराब है। 

आम उपभोग की खाद्यानों की उपलब्धता में कमी है। हमारी रोजगार योजनाओं पर पडने वाले कुप्रभाव की बहुधा अनदेखी हो रही है। निर्यात में गिरावट तथा कल कारखानों के उत्पादित माल के उत्पादन में कमी बनी हुई है। आयात की ऊँचाई इस स्थिति को और ज्यादा खराब कर रही है। पिछले सालों से हमारे फैक्ट्री क्षेत्र के रोजगार घटकर 62 लाख के करीब आ गये। कल कारखानों में प्रत्यक्ष रोजगार उत्साह वर्धक नहीं है। वहां 45 करोड़ लोगों की श्रम शक्ति, वहां युवा लोगों का सारी जनसंख्या में आधे से ज्यादा बढ़ता अनुपात, वहॉ हर साल 150 लाख  लोगों का रोजगार के लिए अपने आपको पेश करना, वहीं विद्यमान रोजगारों से श्रमिकों की छंटनी, हर साल 150 लाख नये हाथ और दिमाग काम तलाशने के मुकाबले सरकार का केवल 125 लाख रोजगार का लक्ष्य अपर्याप्त स्थिति को गम्भीर बना रहे हैं। सरकारी नौकरियों में भर्ती नहीं हो रही है लाखों पद खाली पड़े हैं।

अधिक गम्भीर बात यह है कि खाद्यान्न तथा कल कारखानों द्वारा आम साधारण उपभोग या श्रमिक उपभोग की वस्तुओं और सेवाओं के लिए निवेश और श्रम प्रधान तकनीकों द्वारा उत्पादन को उचित प्राथमिकता नहीं दी जा रही है। सरकारी कार्यक्रमों में सृजित रोजगार मुख्यतः मौद्रिक आय ही बन कर रह गया। असली रोजगार जो पर्याप्त मानवीय आजीविका के साधन उपलब्ध कराये नहीं है। हमारी रोजगार की नीतियों व दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियॉं केवल कुछ उद्योग व उद्योगपतियों को लाभांवित करने के लिए बन रही है। रोजगार नीति सर्वमान्य सिद्धांतों की अवलहेलना कर रही है। दीर्घकालिक परिसम्पतियों के निर्माण द्वारा केवल आंशिक सफलता ही मिल पायेगी। 

हमारी संरचनायें असंतुलित है। खेती बाडी व श्रम जनित रोजगार और उद्यागों का राष्ट्रीय आय में अनुपात घटा है। कृषि का हिस्सा, जो सर्वाधिक रोजगार देता है का हिस्सा 17 प्रतिशत रह गया है, उद्योगों का 27 प्रतिशत है। केवल सेवा क्षेत्र का योगदान अच्छा है। खेती पर श्रम शक्ति का दबाव न केवल अत्यधिक है अपितु करीब 50 लाख अतिरिक्त व्यक्तियों को भी आजीविका के लिए खेती का दामन थामना पड़ता है। संगठित क्षेत्र पक्की नौकरिया नहीं देकर दिहाडी और ठेके के मजदूरों से काम चला रहे हैं। मंदी, बेरोजगारी, मंहगाई अर्थ व्यवस्था को गर्त में ले जा रही है। ब्याज दरों से कम्पनियों का मुनाफा अवश्य बढ़ा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)