विश्वविद्यालय बन रहे बीमार

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह 

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है 

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राष्ट्र के विकास में उच्च शिक्षा व शिक्षकों की अति महत्वपूर्ण भूमिका स्वीकार की गई है। उच्च शिक्षा में परिवर्तन व सुधार के उद्देश्य से अनेक आयोग व समितियां गठित हुई कई नीतियां बनी किन्तु अपेक्षित सुधार नहीं कर पाई। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग देश के सभी विश्वविद्यालय व महाविद्यालयों  के स्वरूप, विकास व सुधार के लिए गठित एक मात्र संस्था है। विश्वविद्यालयों में कुलपतियों व प्राध्यापकों की नियुक्तियों के लिए पूरें देश में समान मानकों का क्रियान्वयन करना इसका मुख्य कार्य है परन्तु आयोग अवैधानिक मनमानियों को रोकने में विफल सिद्ध हुआ है। चयन व पदस्थापन में अयोग्य व लांछित व्यक्तियों पर रोक नहीं लगने से समूचे देश की उच्च शिक्षा चिंतनीय होती जा रही है। भेदभाव, वर्गभेद, अनुशंसा के आधार पर पद प्राप्त करने वालें योग्य व परिश्रमी अध्येताओं का अवसर छीन रहे है। कुलपतियों व शिक्षकों की नियुक्तियां अनुशंसा के आधार पर की जा रही है। जिस राज्य का राज्यपाल कुलाधिपति उस राज्य का कुलपति चयन की प्रथा चल गई है। नियुक्तियों से उच्च शिक्षा पतोन्मुखी है, स्थिति दयनीय हो गई है, बिना विज्ञापन, बिना साक्षात्कार, फर्जी नियुक्तियों की हेराफेरी जारी रही है। 

विश्वविद्यालयों के कुलपति के जीवन पुराण कार्य गुजारियां शिक्षा जगत को चकिंत करने वाले है। अनुशंसाओं से नियुक्त चहेते कुलपतियों, प्राध्यापकों, शिक्षकों की नियुक्तियां व्यवसायिक हो रही है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भारत के विश्वविद्यालय नदारद है। विदेशी छात्रों की संख्या गिरती जा रही है। विश्वविद्यालयों के कुलपति, डीन, आचार्य, रजिस्ट्रारों पर घपलों में शामिल होने के आरोप लग रहे है। विश्वविद्यालय शिक्षा व शोध में गिरावट आई है। विश्वविद्यालय राजनीतिक दखल से ग्रस्त है। कुलपति विश्वविद्यालय की दशा व दिशा का संचालक होता है उसके चयन में, नियुक्ति, कार्य में राजनीतिक व बाहरी दखल नहीं होने चाहिए, परन्तु स्थितियां बदल गई है। उच्च शिक्षा शोध के स्तर, शोधार्थियों की गुणवता, योग्यता के आधार पर उपलब्धि, विश्लेषणता का सामार्थ्य पर ज्ञान के अधिकार में है, परन्तु पढ़ाने के लिए जुनूनी प्रोफेसरों की आवश्यकता है। 

राजस्थान विश्वविधालय के स्वर्णकाल में मैं इक ग्यारह वर्ष तक विश्वविधालय छात्र रहा एवं एक से एक प्रतिष्ठित शिक्षाविदों को विश्वविद्यालय में कुलपति, प्राचार्य व वरिष्ठ प्राध्यापक के रूप में कार्य करते हुए देखा है परन्तु धीरे-धीरे जिस प्रकार के हालात इस विश्वविद्यालय के होते जा रहे है उसे देखकर अफसोस व दुुःख होता है। राजस्थान विश्वविद्यालयों की राह पर चल निकला है। मुझे आगे बढ़कर कुलपति को हटाने के लिए उच्च न्यायालय में भी र्पी.आइ.एल. दायर करनी पड़ी। 

शिक्षक से लेकर कुलपति तक की चयन समितियों में मन पसंद विशेषज्ञ रखे जाते है, राजनैतिक सम्बन्धता, व अनुशंसा के आधार पर चयन कर नियुक्तियां हो रही है। नियुक्तियों में शैक्षणिक, प्रशासनिक, वित्तीय प्रबन्धन की निर्धारित योग्यता जरूरी हो, कुलपति दलगत, जातिग्रस्त, क्षेत्रीय कुंठाओं व राजनीतिक दबावों से मुक्त हो, परन्तु अनुशंसा में केवल राजनैतिक सम्बन्धता का ध्याान रखा जा रहा है। वर्तमान में शिक्षक संघों के राजनीति, नेताओं में ध्रुवीकरण के कारण विश्वविद्यालय सत्तापक्ष, विपक्ष की नूराकुश्ति के केन्द्र बन गयें है। राष्ट्रीय आयोगों के नियम मजाक बन गये है विश्वविद्यालयों में उत्कृष्ट प्रशासनिक व वित्तीय प्रबन्धन, शैक्षणिक गुणवता उच्चस्तरीय शोध, के लिए ढांचागत सुधार आवश्यक हो गया है। 

आजादी के उपरान्त देश के सामाजिक, आर्थिक प्रशासनिक, सांस्कृतिक परिदृश्य में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है। परन्तु उच्च शिक्षा के ढ़ांचे में गिरावट आई है, उच्च शिक्षा पद्धति में मूलभुत परिवर्तन आवश्यक है। विश्वविद्यालयों में स्वायत्ता की व्यवस्थागत आड़ में जनता के धन का खुला दुरूपयोग हो रहा है। विश्वविद्यालय जनता के प्रति दायित्वों व कर्तव्यों का उपेक्षित निर्वहन भी नहीं कर रहे है। विश्वविद्यालय शिक्षा अब अराजकता के दौर से गुजर रही है। विश्वविद्यालय से जुडे़ महाविद्यालयों में अध्ययन अध्यापन का वातावरण ही दिखाई नहीं देता। कुछ विश्वविद्यालय तो विज्ञापन देनें लगें है, कि उक्त विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण छात्र आवेदन नहीं करें। निजी विश्वविद्यालयों के हालात तो और अधिक खराब है।

राजनीति व गुटबाजी को समाप्त करने के लिए अन्तर विश्वविद्यालय स्थानान्तरण पर विचार किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालय के प्राध्यापक का उसी राज्य के दूसरे विश्वविद्यालय में स्थानान्तरण क्यों नहीं? कुलपति कार्यालय का कार्य रिमोट कन्ट्रोल से चलने लगें तो विश्वविद्यालयों में किस प्रकार शिक्षा का वातावरण बना रह सकता है। 

पूर्व में प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, कर्मठ प्रशासक, उच्च कोठी के इंसान बगैर किसी राजनैतिक सम्बन्ध द्वारा या अनुशंसा से कुलपति नियुक्त होते थे, उनके किसी प्रकार पक्षपात, संकोच व डर की भावना नहीं होती थी। उनके चरित्र पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता था। उन पर कोई भ्रष्ट्राचार, पक्षपात, अनियमितता का आरोप नहीं लगा सकता था। सिंडीकेट सीनेट की नियमित बैठके होती थी। उनका इतना प्रभाव, अनुशासन व व खोफ रहता था कि प्राध्यापक व छात्र उनकें अनुशासन में रहना पसन्द करते थे। ऐसे उदाहरण है जब प्राचार्यो ने अनुशासन दृष्टि से कोइ्र कार्य करना उपयुक्त नहीं समझा और दबाव पड़ा तो त्याग पत्र देने को तत्पर हो गयें थें। प्राचार्य और शिक्षकों को राजनीतिक संगठनों में भाग नहीं लेते थे, राजनैतिक पार्टियों में खुलकर भाग नहीं लेते थे, पदाधिकारी नहीं बनाते थे। 

देश को विकास के पथ पर ले जाने के लिए विश्वविद्यालयों को भ्रष्ट्राचार व राजनीति से मुक्त करने की आवश्यकता। स्वायत्ता की दुहाई पर नकेल कसना आवश्यक है। विश्वविधालय की कार्य प्रणाली व आय व्यय पर भी पूूर्ण नियंत्रण स्थापित किा जाना आवश्यक है कुलपतियों पर भ्रष्ट्राचार व अनियमितताओं के आरोपों पर शीघ्र जांच कर कार्यवाही होनी चाहिए। जिससे पर की प्रतिष्ठा बनी रहें। अभी हाल ही में एक कुलपति अयोग्यता सम्बन्धी हाईकोर्ट के आदेश से व दूसरे वित्तीय अनियमितताओं के आरोपो के चलते पद से पृथक हुए और अब तिसरे पर भी उगंली उठाई जा रही है। यह स्थिति समाप्त होनी चाहिए। शिक्षकों की जबावदेही व जिम्मेदारी निश्चित की जानी आवश्यक है।

उच्च शिक्षा को विक्रय कि वस्तु बना दिया गया है, शिक्षा आज अर्थनीति का शैक्षणिक रूपान्तरण हो गया हैं। प्रसिद्ध लेखक लालशुल्क ने कहा है ”कि वर्तमान शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।“ दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्वविधालयों व कालेजों का घाटा पूरा करने के लिए सेल्फ फाईनेन्सिंग कोर्स चलाये जा रहे है। विश्वविद्यालयों में शिक्षाकोत्तर गतिविधियां, स्पोर्टस गतिविधियां समाप्त होती जा रही है। शिक्षा को समानता, समता, व सामाजिक न्याय के सिद्धान्त के साथ जोड़ा गया था हम उससे भटक गये है। सुयोग्य व श्रेष्ठ नागरिक बनाने के स्थान पर विश्वविधालय निराश युवकों की फौज बनाती जा रही है। विश्वविद्यालय में अध्ययन अध्यापन का वातावरण पुनः दिखाई देना चाहिए। 

विश्वविद्यालय विचारों की अभिव्यक्ति का स्वतंत्र मंच बने और बन्द हो राजनीतिक दखलंदाजी, विश्वविद्यालय क्षेत्रवाद, जातिवाद, और राजनीति के भंवर जाल में फसे है। बराबरी, धर्मनिरपेक्षता, सांस्कृतिक बहुलता को घोषित करने के बजाए इन परिसरों को राजनीतिकरण देखने को मिल रहा है। फैकल्टी या तो राजनैनिक दलों से जुड़े होते है या उनक समर्थक होते है। कुलपति व रजिस्ट्ररों जैसे पदों पर नियुक्तियां राजनैतिक हस्तक्षेप से होने लगी है। जो राजनैतिक दल सत्ता में होता है वह अपनी विचारधाराओं या पसन्द के व्यक्ति को कुलपति नियुक्त कर देता है। ऐसा लगता है विश्वविधालय राजनीति के अखाड़े बन गये है। विश्वविधालय की गतिविधियों को राजनीतिक सहायता मिलता है, विद्यार्थियों को रोजगार मिलता है उन्हें समारोह में राजनेताओं को बुलाकर दखलांदाजी होती है। शिक्षण कैम्पस, शिक्षण केन्द्र के स्थान पर राजनैतिक विचारधाराओं के पोषित करने वाले कैम्पस हो गयें। डिग्रियों का अवमूल्यन नहीं हों। 

अभिव्यक्ति के लिए जो वातावरण होना चाहिए वह खत्म हो रहा है। शिक्षक, छात्र, सरकार, राजनैतिक दलों सबकों मिलकर विश्वविद्यालय के गिरते स्तर पर रोक लगाने व सुधार के प्रयास किये जायें। इसके लिए कुलपतियों का चयन अनुशंसा के आधार की बजाए मेरिट के आधार पर होना चाहिए जिससे स्वस्थ वातावरण पुनः कायम हो सकें।