प्रशासनिक गिरावट के कारण एवं निराकरण

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं 

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किसी भी देश में सुचारू प्रशासन चलाने के लिए एक जिम्मेदार नौकरशाही की आवश्यकता होती है स्वतंत्रता के पश्चात हमने नवीन राजनैतिक, सामाजिक आर्थिक लक्ष्यों को तो स्वीकार कर लिया किन्तु उनको मूर्तरूप देने वाले प्रशासनिक तंत्र में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं किया। आज आमतौर पर प्रशासनिक तंत्र की कर्मठता, ईमानदारी, संवेदनशीलता में लगातार गिरावट आ रही है और नौकरशाही खुद ही इतनी बोझिल बन रही है कि ’ब्यूरोक्रेसी‘ को अब आम लोग ही नहीं विदेशों से आने वाले निवेश व विशेषज्ञ भी बूरोकरसी कहने लगे है। आज यह आम धारणा बन गई है कि देश को चुने हुए प्रतिनिधि नहीं, नौकरशाही चला रही है तथा सभी बुराईयों, कमियों, रोजमर्रा के कामों में होने वाली देरी एवं बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए नौकरशाही ही जिम्मेदार है। जातिवाद, पक्षपात, निष्क्रियता बढ़ती जा रही है। नौकरशाही की कार्य क्षमता, पारदर्शिता, कर्तव्य परायणता एवं संवेदनशीलता में आम आदमी का विश्वास उठ गया है।

इस स्थिति के कई कारण है अंग्रेजों ने इस देश में एक विधिवत नौकरशाही बनाई थी जिसके कामकाज का तरीका इस प्रकार का बनाया था कि कोई भी मनमर्जी नहीं कर सकता था, प्रत्येक फैसले का पूरा रिकार्ड रखा जाता था। पारदर्शिता बनी रहे एवं फैसले के अहं बिन्दुओं व मुद्दों को छुपाया नहीं जा सके। नौकरशाही को असहमति प्रकट करने की छूट थी परन्तु अंतिम फैसले का अक्षरसः पालन करने के लिए जिम्मेदार बनाया गया था। नौकरशाही को असहमति का अधिकार था, अनुशासनहीनता, अनादर व अवहेलना का नहीं।

स्वतंत्रता के बाद प्रारंभिम वर्षो में इस देश की प्रशासनिक व्यवस्था व प्रशासनिक अधिकारियों ने इस राष्ट्र को एक सूत्र में बांधे रखकर हर संकट के समय शासन व्यवस्था को बनाए रखा। हर कठिन समय में लोकतांत्रिक मूल्यों को कायम रखते हुए कानून व्यवस्था, चुनाव व्यवस्था बनाए रखने व विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सफल रहे। राजनैतिक दलों के व्यवहार, कार्य एवं आचरण को देखते हुए तो देश की एकजुटता व राष्ट्रीयता को ही कायम नहीं रखा जा सकता था। ऐसे राजनेता सामने आ रहे है, जिनको न राजनीति का अनुभव है, न प्रशासन का, न ही जन सेवक का और न ही उनकी कोई स्पष्ट विचारधारा है।

प्रशासनिक सुधार के संबंध मे अनेक आयोग स्थापित हुए परन्तु उनकी रिपोर्ट सरकारी बस्तों तक ही सीमित रह गई। उनके सुझाव सिफारिशों को दरगुजर किया गया एवं उनको सीमित महत्व मिला। चयन प्रक्रिया में भी अनेक विसंगतियों आई, प्रशिक्षण की नवीन सुचारू व्यवस्था नहीं हुई। सुरक्षा, स्थायित्व व स्टेट्स की दृष्टि से लोग इस क्षेत्र में आने लगे। पदोन्नति की प्रणाली में केवल वरिष्ठता को महत्व दिया गया। कार्य क्षमता, योग्यता, जवाबदेही, जिम्मेदारी, जनहित एवं संवेदनशीलता महत्वहीन हो गई। साहसिक कार्यो, निर्णयों में असमर्थता व नेतृत्व के अभाव में लोक प्रशासन का स्वरूप जनहितार्थ एवं कल्याणकारी नहीं रहा। डिजायर व्यवस्था से पदस्थापन के कारण अनुशासन, उत्तरदायित्व व निंरतरता में गिरावट आती रही, पूर्वाग्रह बढ़ते गए व कार्य क्षमता कम होती गई। चयन प्रक्रिया में केवल परीक्षा में प्राप्त अंकों को प्रधानता मिली। सामाजिक सोच, समाज के प्रति प्रतिबद्धता व जिम्मेदारी की भावना, योग्यता का मापदण्ड नहीं रही।

अमेरिका में भारत के पूर्व राजदूत स्व. नरेश चन्द्र ने ”बड़े मार्मिक शब्दों में देश की वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था के संबंध में कहा था कि अब अफसरों को हर कदम पर अडेंगबाजियों का सामना करना पड़ रहा है। आज राजनेता अपने हित के लिए काम काज में इतने अडंगे लगाते है कि प्रशासनिक अधिकारियों के सामने कितनी ही ऐसी बाधाएं है जिनके कारण अच्छे-अच्छे प्रशासनिक अधिकारी अपने कदम पीछे खींच लेता है।“ पूर्व प्रधानमंत्री महमोहन सिंह ने भी अधिकारियों की एक कार्यशाला में जवाबदेही बढ़ाने के लिए नए आधारों की घोषणा की थी और योग्य अधिकारियों के चयन एवं पदोन्नति के लिए एक युक्तिसंगत तरीके का सुझाव दिया था। नए तरीके से मूल्याकंन करने के लिए मापदण्ड बनाने का सुझाव दिया है एव स्वष्ट रूप से स्वीकार किया था कि राजनेताओं के साथ भ्रष्ट व अकुशल अधिकारियों के जायज-नाजायज संबन्ध आसानी से बनते है और उसी से संम्पूण प्रशसन की छवि गिर रही है।

भ्रष्टाचार जीवन का अंग बनता जा रहा है। ऊंचे पदों पर पहुंचना और पैसा बनाना ही ध्येय बन गया है। आज आदमी नियम कायदों के लिए बन गया है, नियम कायदे आदमी के लिए नहीं। नियम कायदों को उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यक, न्याय-अन्याय को स्वेच्छा से परिभाषित किया जा रहा है। पहले जिला स्तर पर कानून के साथ जमीनी हकीकत को जानने एवं विभिन्न स्तरों पर अनुभव प्राप्त राजस्व अधिकारियों को नियुक्त किया जाता था। राजस्थान की राजनैतिक पृष्टभूमि से वाकिफ, कानूनी प्रावधानों के जानकार पूर्ण रूप से शिक्षित व प्रश्क्षिित अधिकारियों को कलेक्टर, कमिश्नर राजस्व मण्डल सदस्य नियुक्त किया जाता था। पुलिस सेवा के अधिकारियों का पदस्थापन भी राजनैतिक संबंधता के आधार पर नहीं होता था। आज पटवारी से लेकर कलेक्टर तक कानून व्यवस्था कायम रखने में महत्वहीन होकर, भार स्वरूप लगने लगे है। आज इस सेवा के नए अधिकारियों को न तो कोई राजस्व कानूनों की जानकारी है और न ही कानून व्यवस्था संबंधी महत्वपूर्ण कानूनों व प्रावधानों की।

आज जिलाधीश पूरे लवाजमें व अपनी राजस्व सेवा के साथ अन्य महत्वहीन मुतफरिक मामलों में व्यस्त रहते है। जिला प्रशासन पर कोई नियंत्रण नहीं है। राजनेताओं, विधायको के इसारे व इच्छाओं पर अधीनस्थ कर्मचारियों अधिकारियों की नियुक्ति व स्थानांतरण होने लगे है और प्रशासकों का उन पर नियंत्रण पूर्णतया समाप्त हो गया है। पूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखे पत्र में प्रशासन मेे राजनैतिक हस्तक्षेप रोकने के लिए पत्र लिखकर निर्देश दिया था। 

”प्रशासन में विधायक का हस्तक्षेप न सिर्फ आप में खराब है बल्कि इसके परिणाम सभी लाईसेंस आदि के मामलों मे हस्तक्षेप करेंगे तो सारा उत्तरदायित्व लुप्त हो जाएगा“ और कुनबापरस्ती और भ्रष्टाचार फैलने लगेगा। परन्तु वर्तमान शासन में आज तो राजनैतिक आधार पर बगैर इम्तिहान भारतीय प्रशासनिक सेवामें नियुक्ति होने लगी है। जो प्रशासन के राजनीतिकरण का स्पष्ट द्योतक है। अब प्रांतीय सरकार के स्तर पर ही महत्वपूर्ण महकमों एवं पदों पर राजी नाराजगी के आधार पर, विभिन्न पदों व स्थानों पर, अनइच्छुक व अनभिज्ञ अधिकारियों का पदस्थापन व स्थानान्तरण किया जा रहा है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)