अम्बेडकर का देश के युवाओं को पैगाम

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं 

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डा. अम्बेडकर के सामाजिक मानववाद के 3 आधार स्वतंत्रता, समता एवं भ्रातत्व है। वे मानववादी चिंतक थे और मानवीय स्थितियों को सुधारने के लिए पक्के राष्ट्रवादी। डा. अम्बेडकर अतिवादी, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा था ‘‘समता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व पर आधारित जीवन का नाम ही लोकतंत्र है।’’ मानव की स्वतंत्रता में उनकी अटूट आस्था थी एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक थे।

डा. अम्बेडकर ने वैचारिक प्रगति और सामाजिक पूनर्निमाण के लिए शिक्षा को प्रभावशाली माध्यम माना। उनके अनुसार ज्ञान ही आदमी के जीवन की आधारशीला है। युवकों के नाम अपने पैगाम में कहा था ‘‘एक तो वह शिक्षा और बुद्धि में किसी से कम नहीं रहे, दूसरे ऐशो आराम में न पड़कर समाज का नेतृत्व करें, तीसरे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को संभाले। समाज को संगठित कर उसकी सेवा करें।’’ उन्होंने कहा था ‘‘यदि तुम संघर्ष पर उतारू हो जावों तो सफलता तुम्हारें कदम चूमेंगी। देश अच्छा हो तो दुश्मन को रास्ता छोड़ना ही पड़ेगा।’’ महिला जाग्रति पर जोर देते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा था ‘‘किसी भी समाज की प्रगति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उस समाज में महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है। शराबबंदी एवं दुराचार, शोषण के विरूद्ध महिलाओं का आव्हान करते हुए उन्होंने यहां तक कहा ‘‘यदि तुम्हारे बच्चे शराब पीते हैं और तुम्हारा पति भ्रष्टाचारी है तो तुम उन्हें खाना मत दो।’’ सभी मनुष्यों के अधिकार समान है। महिलाओं को अपने साथ अच्छे व्यवहार की मांग करनी चाहिए।

सामाजिक एवं मानवीय समस्याओं के प्रति उन्होंने नैतिक दृष्टिकोण अपनाया। जिस व्यवस्था ने विपन्नता जन्म दिया उसे वे बदलने चाहते थे। उन्होंने बहुत स्पष्ट कहा था ‘‘सामाजिक एकता के बिना राजनैतिक एकता प्राप्त करना और कायम रखना कठिन है। सत्ता प्राप्त भी हो जाये तो वह उस मौसमी पौधे की तरह होगी जो मामूली हवा के झोंके से जड़ से ही उखड़ जाता है। जाति विहिन समाज की स्थापना के बिना सच्ची आजादी नहीं आयेगी।’’ उन्होंने कहा था ‘‘मैं अपने और राष्ट्र के बीच राष्ट्र को महत्व दूंगा।’’

डा. अम्बेडकर की गरीब के प्रति हमदर्दी थी। चाहे वह किसी भी जाति/धर्म व समुदाय के हों। उन्होंने कहा था कि हर बच्चे को संरक्षण देना समाज का कर्तव्य है। वे धर्म और राजनीति को पृथक रखना चाहते थे। उन्होंने कहा था ‘‘मैं धर्म चाहता हूं, धर्म के नाम पर पाखंड नहीं। जो धर्म जन्म से एक को श्रेष्ठ और दूसरे को नीच बनाये रखे, वह धर्म नहीं गुलाम बनाये रखने का षडयंत्र है। भारत में सामाजिक क्रांति के बिना सामाजिक व धार्मिक सुधार असंभव है। जात, पांत के रहते न समाज संगठित हो सकता है और न उसमें राष्ट्रीय भावना जाग्रत हो सकती है। 

जाति विहिन समाज की स्थापना के बिना राजनैतिक आजादी व्यर्थ है। राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने एवं कायम करने की गति चाहे धीमी हो परन्तु दिशा सही होनी चाहिए। जाति विहिन समाज की स्थापना के बिना सच्ची आजादी नहीं आयेगी। छुआछूत समाप्त करना मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है। भाग्यवाद मनुष्य को दब्बू, कमजोर और बुजदिल बनाता है। सभी मनुष्य एक ही मिट्टी के बने है। उन्हें यह अधिकार है कि वे अपने साथ अच्छे व्यवहार की मांग करें, धर्म का उद्देष्य इंसान और भगवान के बीच संबंध न होकर इंसान इंसान के बीच अच्छे संबंध स्थापित करना है। कानून मनुष्यों की सुविधा और अनुशासन के लिए बनाये गये हैं।’’

उन्होंने देश में विधान द्वारा कानून का राज स्थापित करने में पूर्ण योगदान दिया। उनका कथन था सभी मनुष्य एक समान है। अतः एक मानव का दूसरे मानव द्वारा शोषण मानवता के खिलाफ है। इसलिए सभी मनुष्यों को एक दूसरे की भलाई करनी चाहिए। जैसे उंची नीची जमीन से अच्छी पैदावार की आशा नहीं की जा सकती, उसी प्रकार समाज में उंच नीच की भावना रहने से राष्ट्र की प्रगति नहीं हो सकती।

साम्प्रदायिक एकता को उन्होंने देश में आवश्यक बताया और फिरकापरस्ती का विरोध किया। उन्होंने कहा था कि मुसलमानों द्वारा गो वध का आग्रह व मस्जिद के सामने बाजा बजाने से रूकावट से उनकी शोषण की भावना परिलक्षित होती है। इस्लाम कुर्बानी के नाम पर गो वध करने का उपदेश नहीं करता। कोई भी मुसलमान जब हज करने जाता है तब मक्का या मदीना में गाय की कुर्बानी नहीं करता परन्तु भारत में किसी दूसरे जानवर की कुर्बानी से संतुष्ट नहीं होता। उन्होंने कहा था समस्त मुस्लिम देशों में मस्जिद के सामने बाजा बजाने पर कोई आपत्ती नहीं करता परन्तु भारत में मस्जिद के सामने बाजा बजाने पर मुसलमानों द्वारा आपत्ति की जाती है। इसका एक कारण यह भी है कि हिन्दू इसको अपना एकाधिकार मानते है। हिन्दुओं को भी अपनी विचारधारा बदलकर भाईचारे की भावना स्पष्टतया लागू करनी होगी, फिरकापरस्ती व संकुचित विचारधारा को देश की एकता के लिए छोड़ना पड़ेगा।

हिन्दू धर्म में प्रचलित वर्ण व्यवस्था पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा था कि एक वर्ण को ज्ञान प्राप्त करने, दूसरे को शस़्त्र धारण करने व राज करने, तीसरे को व्यापार करने और चैथे को केवल दूसरों की सेवा करते रहने की व्यवस्था है। उनके लिए अनेक निषेध एवं निर्योग्तायें खडी की गई है। जो धर्म एक को शिक्षा लाभ उठाने की शिक्षा देता व दूसरों को अज्ञानी बनाये रखना चाहता है, वह धर्म नहीं दूसरों को समाज का शाश्वत दास बनाये रखने का षड़यंत्र है। जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर आश्रित रहने को बाध्य करना धर्म नहीं है। वे जाति विहिन और वर्ण विहिन समाज व्यवस्था चाहते थे। देश की शासन व्यवस्था लोक कल्याणकारी हो जिसमें सभी को फलने फूलने का अवसर मिले इसके वे पक्षधर थे। वे चाहते थे कि पूंजी का केन्द्रीयकरण नहीं हो। अवसर की समानता सभी को समान रूप से प्राप्त हो। अपने अंतिम समय में उन्होंने यहां तक कहा था कि आज लोग मुझे समझ नहीं पा रहे है लेकिन हो सकता है कि मेरे नहीं रहने के बाद लोग मेरी बात को समझे।

जातिया वर्ण व्यवस्था से ग्रस्त धर्म जो कुछ वर्गो के आत्म सम्मान को कुचीरता है, धर्म नहीं एक बीमारी है। धर्म जो एक गन्दे जानवर को छूने की अनुमति दे और मनुष्यों के लिए निषेध करें, वह धर्म नहीं पागलपन है। वह धर्म जो अशिक्षित को अशिक्षित व निर्धन को निर्धन रहने की शिक्षा दे वह धर्म नहीं एक दंड है। डा. अम्ेडकर केवल दलितों के नेता नहीं थे। उन्होंने देश में राजनैतिक और आर्थिक न्याय की संकल्पना की थी। समानता पर आधारित मजबूत राष्ट्र उनका वास्तविक उद्देश्य था। वे किसी जाति विशेष या धर्म पर आक्षेप करना नहीं चाहते थे। उनका स्पष्ट कथन था कि कल के लिए हम आज को दोषी भी नहीं मानते जिसके कारण पिछड़ेपन व विपन्नता का जन्म हुआ। मानवतावादी समाज को अपनाकर ही अम्बेडर के सामाजिक मानववाद को समझा जा सकता है। यही उसका मूल तत्व है।

वर्तमान समाज व्यवस्था पर कठोर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा था कि कला कौशल व उत्पादन का कार्य करने वाला श्रमिक तबका साधारण श्रेणी में रहा। इस व्यवस्था ने आदर अनादर की श्रृंखला सुदृढ़ कर दी गई। यहां तक कि नामकरण संस्कार भी भेदभावपूर्ण बन गया। 13 अक्टूबर 1935 में उनहोंने कहा था ‘‘हमनें समाज में समानता का दर्जा प्राप्त करने के लिए हर प्रकार के प्रयास किये है। सत्याग्रह किये है परन्तु समानता के लिए कोई स्थान नहीं मिला क्योंकि हिन्दु सोसायटी उस बहुमंजिली मीनार की तरह है जिसमें प्रवेश करने के लिए न कोई सीढ़ी है, न कोई दरवाजा। जो जिस मंजिल व कमरे में पैदा हो जाता है, उसे उसी मंजिल में मरना होगा।’’ इसीलिए मानववाद से प्रभावित होकर उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। वे एक युग पुरूष थे। उनकी महानता, विद्वता, समाज व्यवस्था, शासन व्यवस्था और लोक-कल्याणकारी कार्यो के लिए सभी ने उनका लोहा माना। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)