हमारी कार्यपालिका और न्यायपालिका...

लेखक : डॉ.सत्यनारायण सिंह 

लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है 

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भारत में आज कार्यपालिका और न्यायपालिका जो जिस प्रकार के संबंध दिखाई देते हैं वे एक प्रकार से प्रजातंत्र के जीवित और शक्तिशाली होने की पहचान है। भाजपा सरकार के गृह राज्य मंत्री उच्चतम न्यायालय को लक्ष्मण रेखा की याद दिला रहे हैें तो उच्चतम न्यायालय भी कभी कभार कम से कम आँख तो दिखा रहा है। कुछ मामलों  में सरकार को पीछे हटना पडा है। 

श्रीमति इंदिरा गांधी के समय टकराव सामने आया जब उन्होंने देसी राजाओं का भत्ता (प्रिवीवर्स) देने से इंकार कर दिया और इसे खत्म ही कर दिया। यह काम प्रजातांत्रिक व समाजवादी मूल्यों पर आधारित था सुप्रीम कोर्ट ने इसको अवैधानिक घोषित कर दिया। बैंकों के राष्ट्रीकरण के मामलों में भी ऐसा ही हुआ। इस पर भी वैधानिकता का प्रश्न चिन्ह लगाकर यद्यपि इससे आम लोगों की पहुंच बैंकों तक हो गई। इन्दिरा गांधी पीछे नहीं हटी ओर संविधान में आवश्यक संशोधन किये गये।

भारतीय प्रजातंत्र में आज सुप्रीम कोर्ट की डांट के बाद भी कार्यपालिका एक अच्छे विद्यार्थी की तरह मुंह तो बनाती है, आनाकानी करती है परन्तु चुपचाप अथवा हाय हल्ला  मचाकर, मानने को मजबूर हो जाती है।इतने बडे देष की  समस्याऐं हल करने और जनता की अभिलाषाएं कार्यपालिका ही पूरी करती है परन्तु आम जनता के संवैधानिक मूलभूत अधिकारों की पालना व रक्षा न्यायपालिका को करनी है। कार्यपालिका द्वारा राजनैतिक आधार पर लिये गये फैसलों अथवा अतिगामी नीतियों से राहत न्यायपालिका को प्रदान करना है। देष में गलत पार्टिजन फैसलों में आर्थिक मंदी और गहरे निराशावाद, बेकारी, बेगारी, अपराध, हिंसा, गैर कानूनी आदेशों से निजी मौलिक अधिकार संकट में हो, हर तरफ मिलें, फैक्ट्रीयां बन्द सेे, बेकार की फोैज दिन दुनी और रात चौगुनी बढती जा रही हो, समाज में हर तरफ निराषा बढ रही है,  न्याय पर शंका उत्पन्न हो रही है। न्याय में विलम्ब हो रहा हो ऐसे में न्यायपालिका किस प्रकार अपने संवैधानिक अधिकारों को छोडकर चुपचाप यह सोचकर चुप बैठ सकती है कि राजनैतिक नेतृत्व व कार्यपालिका को वह पसंद नहीं है। 

जब व्यक्ति अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए सभी तरफ से निराश हो जाता है तब वह न्यायपालिका की शरण में जाता है परन्तु वहां भी जब उसे  समय पर न्याय नहीं मिलते, प्रशासनिक दबाव में न्यायाधीश तुरन्त राहत नहीं दे सके प्रोसेजाल तरीकों में फंस जाए तो न्यायपालिका पर आस्था टूटने लगती है।  अत्यधिक विलम्ब एवं व्यय से व्यक्ति परेशान हो और न्यायपालिका की स्वतंत्रता, पारदर्षिता, जवाबदेही पर संदेह होने लगे तो लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, कानून के शासन पर संदेह हो जाता है। 

गंभीर से गंभीर आरोपों पर भी न्यायाधीश को  महाभियोग से ही हटाया जा सकता है, ऐसे कठोर व्यवस्था के रहते आज तक किसी जज को कदाचार अथवा असमर्थता के आधार पर नहीं हटाया जा सका है। ऐसे में कार्यपालिका की गिरती साख के साथ न्याय पालिका के गिरती साख को बचाने के लिए अनिवार्य है, नागरिकों का विधि के समक्ष समता एवं विधियों के समान संरक्षण की व्यवस्था को मजबूत किया जाए।

कानून बनाना संसद का काम है। न्यायपालिका सुझाव दे, इसे न्यायिक दायित्व  के बाहर माना है, परन्तु मौलिक अधिकारों के संबंध में न्यायिक सक्रियता पर हमले को रोकना होगा। देश हित, जनहित, लोकतंत्र व संविधान के प्रावधानों की रक्षा हेतु, जेलों के संचालन, अस्पतालों , विद्यालयों, कार्मिक विभागों संस्थाओं आदि के कामकाज पर भी अदालती निर्देश व फैसले कार्यपालिका के कर्तव्यों व अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं है अपितु एक सक्रिय व जीवन्त गणराज्य की निषानी है अन्यथा कार्यपालिका अपना कर्तव्य भूलकर मनमानी और आम लोगों की अनदेखी कर अन्यायपूर्ण फैसले करती रहेगी।

न्यायाधीश जॉन मार्शल हरलान के अनुसार ’’संविधान को लोक कल्याण के हर कलंक को मिटाने की रामबाण औषधि तो नहीं माना जा सकता, ना ही अदालतों को सुधार आन्दोलन के लिए स्वर्गलोक माना जा सकता है परन्तु संविधान सरकार का एक साधन है, बुनियादी धारणा यह है कि सरकार की अधिकारों का विकेन्द्रीकरण होने में राष्ट्र अपने सभी नागरिकों के लिए सर्वाधिक आष्वस्तिकदायक साबित होगा। अभिव्यक्ति को बाधित नहीं किया जाना चाहिए।’’ परन्तु आज अदालतों के फैसलों के प्रति आदर का प्रभाव झलकता है। 

सरकारें संबंधित अधिकारियों की सलाह और विचार, निडर व स्वतंत्र अभिव्यक्ति फाईलों पर नहीं आने दे रही। आदेशों की अनुपालना नहीं हो रही है, कारण नहीं लिखे जा रहे हैं। कार्यपालिका राजनीतिक कारणों से नियुक्ति, पदस्थापन, प्रमोषन में हस्तक्षेप कर रही है, योग्यता के स्थान पर अन्य कारणों निर्णय लिए जा रहे है। फैसलों में भी व उनके क्रियान्वयन में भी राजनीति व राजनैतिक दबाव सामने आने लगे हैं। असहमति असहनीय हो गई है। बगैर चर्चा कानून पास किये जा रहे है जजों का भविष्य फैसलों पर निर्भर करने लगा है।  ऐसे न्यायपालिका का स्वतंत्रत अस्तित्व व वास्तविक विकेद्रीकरण खतरे में पड रहा है। 

राजनैतिक कार्यपालिका को इसके खतरे को समझना चाहिए। कानून का षासन हो, संविधान व नागरिक अधिकार की रक्षा हो, देश में विकासवान आवश्यक बदलाव हो, विकास हो। यह न्यायपालिका व कार्यपालिका दोनों को समझने की आज अत्यन्त आवश्यकता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)