अनैतिक विकास एवं भौतिकवाद के चलते परमपराएं हुईं खत्म

लेखक : राम भरोस मीणा

प्रकृति प्रेमी, एल पी एस विकास संस्थान

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 प्रकृति के साथ रहते हुए इसके संरक्षण संवर्धन में हजारों वर्षों से चली आ रही मानवीय परमपराएं, रिती रिवाज, मान्यताएं महज़ कुछेक दसकों में इस रफ्तार से नष्ट हुए की सोचना भी मूस्किल है, और यह अनैतिक विकास एवं भौतिकवाद की वजह से हुआ कटु सत्य है।  आदिमानव परमपराएं बनाया लागू किया वह सभी के विचारों को संग्रह कर गांव परिवार समाज राष्ट्र के हितों को ध्यान में रखने के साथ प्रकृति प्रदत संसाधनों (जल जंगल जमीन एवं उनके स्रोतों) पर्यावरण को संरक्षित सुरक्षित रखने के लिए सामाजिक नितियों में समाहित किया। आपसी समन्वय सहयोग सद्भावना से लिए गए निर्णय सभी के लिए समान लागूं होते, जिसके सफल परिणामों को देख सभी वर्ग धर्म समाज अपनी नितियों में समाहित कर लागू करते जो पुर्ण रुप से सफल रहते। 

समुदाय द्वारा समुदाय के लिए बनाए गए कानून सफल होते जो आगे चलकर सामाजिक नितियों, नियमों, कानुनों में परिवर्तित हो जातें जिन्हें पिडि दर पिडि स्वत एक रिवाज के रुप में मान्यता प्राप्त होती जिन्हें आज भी गांवों में किसी हद तक देखा जा सकता है। पीपल बरगद आंवला बील पत्र तुलसी की पुजा करना,धराडीं प्रथा को मानते हुए पेड़ों को संरक्षण देना, पानी पेड़ के लिए काम जोहड़ तलाई बनीं दैव बनी अरण्य रुंध का निर्माण, नदियों व पहाड़ों का संरक्षण आदि आदि।

समाज स्वयं जहां सरकार हों वहां सामाजिक व्यवस्थाओं कार्यों में मानव के साथ सभी जीव जंतुओं, पशु पक्षियों, नदी नालों, पर्वतों के हितों को ध्यान में रखते हुए विकास की परिभाषा तय होती, लेकिन समाज का हस्तक्षेप नितियों के निर्माण में तथा विकास के लिए तय किए मापदंडों में नहीं हो वास्तविक विकास की परिभाषा स्वत ही बदल जाती, जहां विकास वहीं विनाश का बोलबाला प्रारम्भ हो जाता यह आज के परिवेश में देखा जा सकता है, क्योंकि विकास के कार्यों तय मापदंडों नितियों में समाज को नगण्य रखा जाता है जिससे व्यक्ति अपनी नैतिक जिम्मेदारी से दूर चला जाता है और उस अनैतिक विकास में लिप्त हो कर सभी प्राकृतिक संसाधनों का शोषण कर भौतिक सुख सुविधाओं को पाने के लिए अधिक से अधिक वो कार्य करता है जिससे उसे आर्थिक लाभ प्राप्त हो यह सब समाज राष्ट्र की बगैर चिंता किए प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करने लगता है, परिणाम स्वरूप ना जल बचा ना जंगल,ना नदियां सुरक्षित ना जोहड़, ना पहाड़ सुरक्षित ना पशु पक्षी, स्वयं मानव भी अपने आप  सहमा सा दिखने लगा है। 

मानव भौतिकता की दौड़ में दौड़ता चला सामाजिक नियमों कानुनों व्यवस्थाओं को तोड़ने मरोड़ने में अपना भला मानने लगा जो एक पर्यावरणीय विनाश के साथ मानवीय विनाश की और बढ़ रहा। समुन्दर का आगे बढ़ना, मौसम चक्र का बिगड़ना, ग्लेशियरों का पिघलना, बादलों का फटना, धरातलीय तापमान का बढ़ना, धरती का धंसना,पीने योग्य पानी की कमी, वातावरण में घुलती जहरीली गैसों के साथ कम पड़ती प्राणवायु ऐ सभी वर्तमान विकास व व्यक्ति की  निज स्वार्थ की बढ़ती इच्छा शक्ति की देन है जो विनाश के संकेत दे रहे हैं।

बढ़ते विनाश की सम्भावना व व्यक्ति के प्रकृति के प्रति नैतिक पतन को देखते हुए एल पी एस विकास संस्थान के प्रकृति प्रेमी राम भरोस मीणा के अपने निजी विचार है कि आज हमें सरकारी नितियों में बदलाव के साथ सामाजिक नियमों कानुनों को जिवंत स्वरूप देने के साथ नितियों के निर्माण व क्रियान्वयन में सामाजिक सहभागिता को लागू किया जाना चाहिए वहीं पर्यावरण के प्रति नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए सरकार तथा अफसरशाही को काम करना चाहिए जिससे अनावश्यक दोहन ना किया जाए, प्राकृतिक संसाधनों के प्रति प्रत्येक व्यक्ति समाज को पुनः जागरुक किया जाए जिससे इसका संरक्षण हों सके, जल जंगल जमीन नदी पहाड़ को बचाया जा सके, खोई हुई सम्पदा को पुनः प्राप्त किया जा सके अन्यथा आने वाले समय में ना जल बचेगा न नदियां, ना पेड़ बचेंगे न  प्राणवायु , मानव निर्मित इस आपदाओं से स्वयं अपना विनाश कर बैठेगा, इसलिए समय रहते हुए इसके संरक्षण में जुटना बेहद जरूरी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)