26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर विशेष
लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं
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26 जनवरी 1950 को नये गणराज्य के संविधान के शुभारम्भ के समय जब इतिहास में पहली बार पूर्ण संसदीय लोकतंत्र बना तब पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था ‘‘हमनें संसदीय लोकतंत्रात्मक प्रणाली को सोच समझकर चुना है। यह प्रणाली हमारी पुरातन परम्पराओं के अनुकूल है। नयी परिस्थितियों और नये वातावरण के अनुसार बदलकर अनुसरण किया गया है।’’
आजादी के बाद देश की राजनीति में देश सेवा और जनकल्याण की भावना से आने वाले लोगों की भीड़ थी। विख्यात शिक्षक, वकील, पत्रकार, डाक्टर व अन्य बुद्धिजीवि वर्ग संसद व विधायिका में चुनकर आते थे तथा देश की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाते थे। अच्छे वक्ता होने के साथ-साथ संसदीय प्रक्रिया के मर्मज्ञ थे, अपने विषय में बोलते थे। बड़े गौरवशाली और प्रबुद्ध सांसद होते थे। विपक्ष की संख्या कम होने पर भी विपक्ष प्रभावी होता था। शक्तिशाली विरोध, दबाब व आलोचना का सत्तारूढ़ दल स्वागत करता था। सरकार की नीतियों का आलोचना करने का पूरा अवसर मिलता था।
अटल बिहारी वाजपेयी, डा. राममनोहर लोहिया की शिकायतों व आलोचना और आरोपों को प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने कभी रफा दफा करने की कोशिश नहीं की और यहां तक कहा ‘‘जब सदन का एक प़क्ष चाहता है कि कुछ किया जाना चाहिये तब भावनाओं की अवहेलना नहीं की जाये व मामलों को बहुमत से तय नहीं किया जाये।’’ विरोधी पक्ष के वक्ता सरकार की नीतियों और कृत्यों की भखिया उधेड़कर रख देते थे। कई मंत्रियों को अपने पदों से हाथ धोना पड़ा था। अध्यक्ष के आदेशों की अवहेलना पर सदस्यों को सदन से निलम्बित भी किया जाता था। परन्तु अध्यक्ष पूर्णतया निष्पक्ष रहा था।
विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच तीखी झड़पें, गर्मागर्मी, वाद विवाद और सदन से वाक आउट की घटनाएं होती थी। अनुशानहीनता और पीठासीन अधिकारी की अवज्ञा पर सांसद की प्रत्याडना होती थी। सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना होती थी। स्पष्ट बहुमत नहीं होने के बावजूद सदन चलते थे। अब संसद के संबंध में जो बात सबसे अधिक कही जाती है वह है सदन में सदस्यों का हंगामा, एक दूसरे पर आरोप, अनुशासनहीनता, नारेबाजी, शोरगुल, कार्यवाही को न चलने देना। संसद जिसे विशेषकर विधि बनाने वाली संस्था समझा जाता था उसके लिए विधि निर्माण कार्य गौण हो गया।
हमारी संसद में 50 वर्षों तक कितने ही विशिष्ट और गुणी पुरूष सांसद हुए है, वाद विवाद में कटुता, वाक कौशल, संसदीय व संस्कृतिक प्रक्रियाओं के प्रति निष्ठा, व्यक्तिगत शालीनता, प्रक्रिया संबंधी नियमों पर अधिकार के लिये जाने जाते रहे। पं. जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री, दबे पैरों से धीरे-धीरे सदन में प्रवेश करते थे और बड़े विनम्र भाव से, बड़ी गरिमा से अध्यक्ष और सदन का सिर झुकाकर अभिवादन करते थे, घंटों सदन में बिताते थे, सदन की कार्यवाही को ध्यान से सुनते थे, कटु आलोचनाओं और प्रहारों को बड़े ध्यान से सुनते थे। हमारे देष ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी श्रेष्ठता और उज्जवल भविष्य की भावी संभावना की स्थापना करायी।
1967 के बाद संसद सदस्यों की पहचान बदली। भारत में लोकसभा अध्यक्ष की स्थिति वेसी है जैसे कि ‘‘हाउस आफ कॉमन्स’’ के अध्यक्ष की। उसका पद प्रतिष्ठा, गौरव और अधिकार का है। उसका मुख्य कार्य शान्त और व्यवस्थित ढंग से सदन को चलाना है। स्वतंत्रता ओर निष्पक्षता अध्यक्ष पद के दो महत्वपूर्ण गुण है। वरीयता के क्रम में अध्यक्ष का बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है। अध्यक्ष चुने जाने पर वह अपने दल से स्तीफा देता था, राजनैतिक रूप से तटस्थ हो जाता था, अपने को दल की सब गतिविधियों से अलग कर लेता था। राजनीति में दखल नहीं रखता था। दल के क्रिया कलापों में भाग नहीं लेता था। राजनैतिक विवादों और दल के अभियानों से दूर रहता था। सदन के कार्य का संचालन प्रक्रिया तथा कार्य संचालन के नियमों के अनुसार निर्वहन करता था। सदन के कार्य का संचालन शांत व व्यवस्थित ढंग से निष्पक्ष तरीके से सुनिश्चित करता था। जी.पी.मावलंकर, अनन्त शैयनम आयंगर, नीलम संजीव रेड्डी, सोमनाथ चटर्जी जैसे अध्यक्षों ने पार्टी लाईन का ध्यान नहीं रखकर अपने कर्तव्य का निर्वहन किया है।
पं. नेहरू ने अध्यक्ष के महत्व व उत्तरदायित्व को देखते हुए संसद में कहा था कि अध्यक्ष सदन का प्रतिनिधित्व करता है, सदन की गरिमा व सदन की स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता हैं। इसलिए यह पद स्वतंत्र और सदा ऐसे व्यक्तियों से सुशोभित हो जो असाधारण रूप से निष्पक्ष हो। परन्तु गत संसदीय कार्यवाही के दौरान ऐसा प्रतीत नहीं हुआ। 80 सांसद तख्तीयां लेकर खडे हुए तो भी अध्यक्ष को 50 सदस्य दिखाई नहीं दिये और सदन स्थगित होता रहा।
संविधान के प्रारूप में संसदीय शासन प्रणाली में स्थिरता की अपेक्षा उत्तरदायित्व को तवज्जों दी गई। इसमें प्रतिनिधिक, संसदीय एवं लोकतंत्र मूल तत्व हैं। परन्तु आज राजनीति का व्यवहारिक पक्ष यह है कि वास्तविक शक्ति मात्र प्रधानमंत्री के पास है, प्रधानमंत्री उसकी धुरी है। संसद में अब ऐसे अनेक दल व सांसद चुनकर आते है जिनकी कोई विशिष्ट विचारधारा नहीं है। विशिष्टजनों या जातीय साम्प्रदायिक, जनजातीय, भाषायी या क्षेत्रीय पहचानों से बनते रहते हैं और विलीन होते रहते हैं।
संसदीय लोकतंत्र एक सभ्य और सुसंस्कृत शासन प्रणाली है, उसकी अपनी एक संस्कृति है, वह निर्णय करती है कि क्या कृत्य संसदीय अथवा असंसदीय है। संसदीय लोकतंत्र 50 वर्षो तक हमारे यहां सफलतापूर्वक चलता रहा परन्तु अब हमारे जनप्रतिनिधियों पर प्रश्न चिन्ह लग गया। आज संसदीय जीवन एक लाभकारी व्यवसाय बन गया है। राजनीति में चरित्र और सेवा मूल्यों के अभाव में अपराधीकरण के जाल को और फैला दिया। राजनेता भी राष्ट्र की अस्मिता पर कालिख पोतकर धनोपार्जन में मशगूल है। राजनेताओं ने अपने हित और स्वार्थ की पूर्ति हेतु जातिवाद के आधार पर राजनीति करने का जुगाड़ बैठा लिया है। राजनीतिक दलों में जातिवाद का बोलबाला होने से योग्य नेतृत्व का अभाव दिखाई देने लगा है तथा व सत्ता के लिए राजनैतिक दलों के सिद्धांत और उसूलों की बलि चढ़ाकर जातिय भावना के साथ चल पड़े हैं। जातिवाद के आधार पर उम्मीद्रवारी के लिए टिकट मांगा जा रहा है। इससे राजनीतिकों की छवि खराब हो रही हैं। राष्ट्र और जनता के हित के बजाय जातिवादी व पार्टीवादी नेता पार्टी को सत्ता बनाये रखने के चलन में रहते है।
सत्र के प्रथम दिन से अन्तिम दिन स्थगन एवं सौर-सराबे ने यह सोचने को विवश किया है कि पक्ष-विपक्ष देष हित चाहते है या मात्र अपने दलिय या सरकार का । इस प्रकार के आचरण से जनतंत्र कलंकित हुआ है आम आदमी का विश्वास संसदीय प्रणाली व राजनेताओं से उठ रहा है। संसद मे आसीन व्यक्तियों के राजनैतिक चरित्र से जनता को निराशा ही हुई है।
अब स्पष्ट है राजनेता का अर्थ राष्ट्र को प्रगति की दिशा में अग्रसर करने वाला नहीं, अपने दल को सत्ता की ओर अग्रसर करने अथवा कायम रखने वाला रह गया है। आज राष्ट्र गौण है, दल प्रमुख है। सिद्धान्त गौण है, सत्ता प्रमुख है। चरित्र गौण है, कुर्सी प्रमुख है। राजनेता में राष्ट्रीय चरित्र, न्याय सिद्धांत और नेतृत्व क्षमता नहीं रही व आज कुशल राजनेता वही है जो अपने दल के लिये राष्ट्र के साथ विश्वासघात कर सकता हो। आचार्य तुलसी ने कहा था ‘‘अब राजनीतिज्ञ का अर्थ उस नीति निपुण व्यक्तित्व से नहीं है जो हर कीमत पर राष्ट्र की प्रगति, विकास, विस्तार और समृद्धि को सर्वोपरि महत्व दें, किन्तु उस विदुषक विस्तारक व्यक्तित्व से है जो राष्ट्र के विकास, समृद्धि को अवनति के गर्त में भेंटकर अपनी कुर्सी को सर्वोपरि महत्व देता है। अपनी कुर्सी के लिये विश्वासघात करने का जिसमें दुस्साहस हो।’’
आज लोगों में यह बात बैठ चुकी है कि इस देश में पैसे से सिपाही से लेकर सांसद तक को खरीदा जा सकता है। देश की जनता का लोकतांत्रिक प्रणाली से विश्वास कम हो रहा है। नौकरशाही सर्वाधिक भ्रष्ट हो चुकी है। प्रतिदिन एक नया घोटाला उजागर हो रहा है। संसद का पूरा सत्र हंगामें की भेंट चढ़ गया। पक्ष-विपक्ष अपनी बात पर अटके रहें, अपनी पार्टी और अपने स्वार्थ की चिंता में सत्ता पक्ष भी झुकने को तैयार नहीं हैं।
आशा करनी चाहिए कि आने वाले वर्षो में संसदीय संस्थाओं का गौरव व सम्मान लौटेगा तथा हमारा लोकतंत्र और गणतंत्र अधिक प्रसस्थ होगें। विभिन्न दलों में सामंजस्य, समन्वय और सहअस्तित्व की अपेक्ष की गयी है। सार्वजनिक महत्व की समस्याओं के समाधान के समय विधायक, प्रशासक अनुशासित हो। प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत है वोट देने व लेने की प्रक्रिया स्वप्रेरित व स्वेच्छाचारी हो, सदाचार, सेवा और प्रतिभा के आधार पर व्यक्ति का चुनाव हों। कर्तव्यपालन में उदासीन सांसद व विधायक को वापस बुलाने का प्रावधान भी हो। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)