लेखक : सुरेश भाई
लेखक जाने-माने पर्यावरणविद, हिमालयी शिक्षण एवं अध्ययन संस्थान, उत्तरकाशी के अध्यक्ष व प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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जनवरी 2023 के प्रारंभ में जोशीमठ में भू-धंसाव की सूचनाएं देश और दुनिया के लोगों के लिए बहुत चौंकाने वाली थी। क्योंकि यह स्थान देवभूमि उत्तराखंड का प्राचीन धार्मिक स्थल है जहां पर शंकराचार्य जी की तपस्थली है जिसे ज्योतिर्मठ के नाम से भी जाना जाता है। इसी स्थान से प्रसिद्ध पौराणिक नृरसिंह मंदिर का दर्शन करते हुए श्रद्धालु व पर्यटक बद्रीनाथ का दर्शन करने जाते है।
ध्यान दिलाने की आवश्यकता है कि जोशीमठ संघर्ष समिति के लोग बहुत लंबे समय से यहां के अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।उनकी किसी ने नहीं सुनी।लेकिन जब बिना बरसात के कंप- कंपाती ठंड के बीच यहां पर अनेकों घर जमीन के अंदर धंसने लगे, जगह-जगह से जलस्रोत फूटने लगे और हजारों घरों में दरारें चौड़ी होने लगी जिसकी सूचना इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट, सोशल मीडिया ने देश के सामने प्रस्तुत की है। जिसके बाद सरकार की नींद भी खुल गई। स्थानीय लोगों के अनुसार इस बड़े भू-धंसाव का कारण जोशीमठ शहर के नीचे बन रही तपोवन- विष्णुगाड परियोजना (520 मेगावाट) की निर्माणाधीन सुरंग है। जिसमें निर्माण के दौरान भारी विस्फोटों का प्रयोग हुआ है। जिसके कारण यहां की धरती कांपती रही है और इस क्षेत्र में आ रहे छोटे- बड़े भूकंप से भी पहाड़ों पर दरारें पड़ रही है जिसके ऊपर जोशीमठ शहर बसा हुआ है।
इस क्षेत्र के जब लगभग 4000 लोगों के घरों में दरारें पड़ने लगी और वे अपना घर छोड़कर इधर-उधर भागने लगे तो राज्य और केंद्र की सरकार ने 8 सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्थानों को भू-धंसाव की जांच के लिए अलग-अलग जिम्मेदारियां दी है। 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के दिन इन केंद्रीय जांच एजेंसियों की प्राथमिक रिपोर्ट जब सामने आई तो उसमें कहा गया कि जोशीमठ के क्षेत्र में बसे हुए लगभग 4000 प्रभावितों को विस्थापित करने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है। क्योंकि यहां पर 400 से अधिक स्थानों पर 40 से 50 मीटर तक गहरी दरारें पड़ी हुई है। भू-धंसाव के चलते इसमें जो पानी भरा था वह लगभग निकल चुका है और अब वहां खोखला हो गया है। वैज्ञानिक कहते हैं कि यह पहले से ही कच्ची जमीन थी जिसका भूजल नीचे चले जाने के कारण भार सहने की क्षमता धीरे-धीरे कम होती जा रही है।
जिसके कारण कभी भी इस क्षेत्र का 30 प्रतिशत भाग धंस सकता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को यह प्राथमिक रिपोर्ट सौंपी गई है। कहा जा रहा है कि जांच की अंतिम सर्वे रिपोर्ट आने के बाद जोशीमठ की तस्वीर और भयावाह हो सकती है। भू-धंसाव के अध्ययन के लिए 8 केंद्रीय संस्थानों में जिसमें केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान को जिम्मेदारी है कि वह दरार वाले भवनों की जांच के साथ ही क्षतिग्रस्त भवनों के ध्वस्तीकरण करने की कार्यवाही करेगा और अस्थाई पुनर्वास के लिए प्री,-फैब़ीकेटेड मॉडल भवन तैयार करेगा । वाडिया हिमालयन भू-विज्ञान संस्थान का काम है कि वह यहां की भू -भौतिकी अन्वेषण के साथ ही जियोफिजिकल सर्वेक्षण का काम करेगा जिसकी रिपोर्ट मार्च के बाद ही आ सकती है।
आईआईटी रुड़की के द्वारा यहां की मिट्टी और पत्थरों की स्थिति में क्या बदलाव हो रहा है।उसकी भार क्षमता कितनी है।इसका अध्ययन कर रही है।भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान इस क्षेत्र के ग्राउंड मूवमेंट पर लगातार नजर बनाए हुए हैं और उनके द्वारा भी अगले 3 माह में एक अंतिम रिपोर्ट सौंपी जा सकती है। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के द्वारा पुनर्वास के लिए चयनित भूमि का भूगर्भीय अध्ययन किया जा रहा है। ग्राउंड वाटर बोर्ड के द्वारा जमीन के भीतर का जल और उसके बहने की दिशा और दशा का पता लगाया जाएगा। इस क्षेत्र की जमीन के भीतर स्प्रिंग वाटर और उसके बहने की दिशा और दशा का भी अध्ययन सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड के द्वारा किया जा रहा है।
यहां पर स्थित जेपी कॉलोनी के पास प्रारंभ में 3 जनवरी को हुए भू-धंसाव के समय 550 लीटर प्रति मिनट जल रिसाव हो रहा था जो 27 जनवरी तक 171 लीटर हो गया है। लेकिन यह पानी कहां से आ रहा है, इसका अभी तक कोई पता नहीं हो पाया है। नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के द्वारा 30 से 50 मीटर गहराई तक का भूगर्भ का मैप तैयार किया जा रहा है। हो सकता है कि अगले 3 हफ्ते में इसकी एक अंतिम रिपोर्ट सरकार के समक्ष प्रस्तुत की जा सकती है। राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान हाइड्रोलॉजिकल सर्वे कर रही है। इस संस्थान की टीम यहां जमीन पर सतह और भूगर्भ के बहने वाले जल का मैप तैयार करने जा रही है।
केंद्रीय संस्थानों के द्वारा किए जा रहे अध्ययनों की प्रारंभिक रिपोर्ट से पता चलता है कि जोशीमठ के एक बड़े क्षेत्र को विस्थापित किया जा सकता है ।लेकिन अभी अध्ययन के विवरण से यह पता नहीं चल पा रहा है कि इसके नीचे बन रहे सुरंग बांध के निर्माण से क्या प्रभाव पड़ रहा है ? चारों ओर चौड़ी सड़क एवं पर्यटन के नाम पर यहां की धरती में हो रहे बड़े निर्माण कार्य से निकल रहे मलवे के निस्तारण की व्यवस्था और उसके प्रभाव को लेकर भी क्या कोई अध्ययन किया जा रहा है? जो इस हिमालय भू-भाग को बचाने की दूर-दृष्टि योजनाकारों के सामने पेश कर सकती है।
क्योंकि यही एक उपयुक्त समय है, जब बाढ़,भूकंप और भूस्खलन से प्रभावित मध्य हिमालय के इस भू-भाग को सुरक्षित रखने के लिए किस प्रकार के उपाय किए जा सकते हैं। इसका एक रोड मैप भी तैयार किया जा सकता है। उत्तराखंड हिमालय के लोगों ने तो इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए महत्वपूर्ण संघर्ष किए हैं।जिसके बावजूद भी यहां की प्रकृति और संस्कृति की बर्बादी को नहीं रोका जा सका है। यहां के पर्यावरण को न्याय दिलाने के अनेकों संघर्ष हासिये पर चले गए हैं।इसी तरह की अनसुनी के चलते अब प्रकृति ने ही अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया है जो पिछले 30 वर्षों से जारी है । समय-समय पर ऐसी अनेकों आपदाएं आ रही है जब बिना बरसात के भी भूस्खलन और भू-धंसाव जैसी समस्याएं यहां के लोग झेलने लगते हैं।
चार धाम के प्रमुख पड़ाव पर जोशीमठ शहर देश और दुनिया के लोगों के लिए एक आकर्षण का केंद्र है।जहां हुई इस घटना के बाद सरकार को बहुत जल्दी ही फैसला लेना पड़ रहा है। इसका कारण जोशीमठ बचाने के संघर्ष में लगे हुए आंदोलनकारियों का दबाव भी है। दूसरा यह एक ऐसा पर्यटन क्षेत्र है जहां से औली, फूलों की घाटी, चिपको आंदोलन का रैणी गांव, बद्रीनाथ धाम, हेमकुंड साहिब और अंतिम गांव नीति माना के दर्शन करने भी लोग यहां से होकर जाते हैं। चीन का बॉर्डर भी यहां के बहुत नजदीक है।
इस तरह के धार्मिक एवं सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इलाके में बसे हुए जोशीमठ के महत्व को ध्यान में रखते हुए सरकार ने अपने बहुचर्चित वैज्ञानिक संस्थानों से अध्ययन कराने का जो निर्णय लिया है वह निश्चित ही स्वागत योग्य है।लेकिन यहां पर जिस तरह से एक प्रकार की मानव जनित आपदा खड़ी हुई है। इसके कई उदाहरण उत्तराखंड के अन्य स्थानों पर भी मिल रहे हैं। यह उन स्थानों पर अधिक हो रहा है, जहां पर सुरंग आधारित परियोजनाओं का निर्माण किया जा रहा है।इस क्षेत्र की संकरी भौगोलिक संरचना को नजरअंदाज करते हुए पर्यटन विकास के नाम पर बड़े-बड़े निर्माण कार्य किए जा रहे हैं, जिसे यहां की संवेदनशील धरती सहन नहीं कर पा रही है। इसका परिणाम भूस्खलन और भू-धंसाव के रूप में देखा जा रहा है है।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जी नया जोशीमठ बनाने के लिए प्रयास जरूर कर रहे है लेकिन यहां भू-धंसाव के पीछे मानव जनित कार्यों को समझने की भी जरूरत है। जिसको ध्यान में रखकर भविष्य में ऐसी घटना से बचा जा सकता है। उत्तराखंड के आपदा सचिव डॉ रंजीत सिन्हा मानते हैं कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर भी प्रदेश के 143 गांव भू-धंसाव की चपेट में है। इसी तरह के भू-धंसाव की सूचना कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, टिहरी बांध के चारों ओर के गांव, ऋषिकेश- कर्णप्रयाग रेल लाइन के कारण खोदी जा रही सुरंग के ऊपर बसे हुए दर्जनों गांव, भटवाड़ी आदि स्थानों के हजारों मकानों पर दरारें और भू-स्खलन देखा जा रहा है।
मौका रहते यहां पर भी अध्ययन की आवश्यकता है ताकि लोगों को सुरक्षित जीवन प्रदान किया जा सके। इसी मांग को लेकर लेकर जब जोशीमठ में एक साल पहले गांधी वार्ड में भू-धंसाव प्रारंभ हुआ था। तब से यहां के लोग अपने को असुरक्षित महसूस कर सुरक्षा की मांग करते आ रहे हैं। 27 जनवरी को स्थानीय गांव के सैकड़ों लोगों ने विशाल जूलूस- प्रदर्शन निकालकर निर्माणाधीन सुरंग आधारित तपोवन- विष्णुगाड जल विद्युत परियोजनाओं और ऑल वेदर रोड के लिए प्रस्तावित हेलंग -मारवाड़ी बाईपास का जबरदस्त विरोध प्रारंभ कर दिया गया है।
लोग मानते हैं कि इन दोनों के निर्माण के कारण ही यहां जोशीमठ और उसके आसपास के पहाड़ अलकनंदा की तरफ धंस रहे हैं ।दूसरी ओर सरकार कह रही है की हेलंग बाईपास का निर्माण सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है और उन्होंने वैज्ञानिकों की एक समिति बनाकर किसी भी तरह इस चौड़ी सड़क निर्माण को स्थगित नहीं कर रहे हैं। सरकार और स्थानीय जनता इस पर आमने सामने आ गई है लगता है कि यदि राज समाज मिलकर जोशीमठ से हिमालय बचाने की तकनीकी अपने वैज्ञानिक संस्थानों से विचार करके निकालेंगे तो जोशीमठ जैसी अन्य घटनाओं को भी रोका जा सकता है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)