टीपू सुल्तान की भूमिका पर फिर से विवाद...

लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक) 

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नवम्बर महीने के मध्य जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बंगलुरु हवाई अड्डे के सामने कर्नाटक के बड़े योद्धा और  बंगलुरु के संस्थापक के रूप में जाने वाले कैम्पेगौड़ा की 1O4 फुट ऊँची कांस्य प्रतिमा का आवरण किया तभी से कुछ संगठनों ने यह मांग की कि ठीक इसी प्रकार प्रतिमा टीपू सुल्तान की भी लगाई जाये क्योंकि उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी से लम्बी लडाई लड़ी थी तथा इसी में शहीद हो गए थे। 

जब सरकार की ओर से इस पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी तो राज्य की पूर्व कांग्रेस सरकार में  मंत्री रहे तनवीर सेठ, जो इस समय विधायक हैं, ने घोषणा की कि वे मुस्लिम तथा धर्मनिरपेक्ष संगठनों से विचार विमर्श करने बाद टीपू सुल्तान के प्रतिमा लगाये जाने की योजना तैयार करेंगे। यह प्रतिमा 100 फुटऊँची होगी। यह मैसूरू अथवा श्री रंगपटनम, जो टीपू के काल के समय मैसूरू के शासको की राजधानी थी, में लगाई जायेगी। उस समय कुछ मुस्लिम संगठनो  ने इसका विरोध किया था। उनक कहना था की इस्लाम में मूर्ति का कोई स्थान नहीं है। यह घोषणा हुए लगभग एक माह हो गया है लेकिन इस पर अभी क्या प्रगति हुई है इसकी अभी कोई अधिकारिक जानकारी सामने नहीं आई है। 

टीपू सुल्तान के बारे इतिहासकार बंटे हुए है। इतिहासकारों का एक वर्ग उन्हें स्वंत्रता की लडाई कायोद्धा बताता है तो दूसरा वर्ग उन्हें एक क्रूर शासक बताता है, जिसने हिन्दुओं और ईसाइयों का या तो जबरदस्ती धर्मं परिवर्तन करवाया या उनका कत्ले आम किया। 2017 तक उनकी जयंति कुछ संगठनों द्वारा बहुत ही छोटे स्तर पर मनाई जाती थी। 2017 में जब राज्य में कांग्रेस सरकार थी तो उसने टीपू सुल्तान की जयंती सरकारी तौर मनाने के निर्णय किया। जिला अधिकारियों को निर्देश दिया गया कि वे अपने स्तर पर इसका आयोजन करे। बंगलूरु में राज्यस्तरीय समारोह आयोजित किया गया जिसमें  कोलकत्ता में रह रहे टीपू सुल्तान के वंशज को भी बुलाया गया। बीजेपी और कई अन्य हिन्दू संगठनों ने इसके विरोध में प्रदर्शनों का आयोजन किया। राज्य में कुछ जगह इसको लेकर प्रदर्शन हिंसक भी हो गए। उस समय राज्य विधानसभा के चुनाव कुछ ही दूर थे इसलिए कहा गया कि कांग्रेस पार्टी की सरकार मुस्लिम वोट पाने के लिए टीपू सुल्तान के व्यक्तित्व का उपयोग करने में लगी है। बाद में बीजेपी ने सत्ता में आते ही सरकारी तौर पर टीपू जयंती मनाना बंद कर दिया। 

इस बार टीपू सुलतान पर विवाद कई अन्य प्रकार से है। स्कूलों के पाठ्य पुस्तकों में टीपू सुलतान को अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाने वाला योद्धा बताया गया है। हाल में एक पुस्तक सामने आई है जिसमें टीपू सुल्तान को एक क्रूर शासक के रूप में पेश किया हैं। इसमें विशेषकर कोडवा समुदाय की लोगों का कत्लेआम किये जाने के टीपू सुलतान के अभियान का विस्तृत विवरण किया गया है। इसी प्रकार मांड्या में तमिल ब्राह्मणों के दिवाली के दिन कत्ले आम की घटना का भी लम्बा विवरण दिया गया है। इसी के चलते इस इलाके के ब्राह्मण आज भी दिवाली नहीं मनाते। इन दोनों घटनाओं के लिए अधिकारिक दस्तावेजों के उद्धृत किया गया है। बाज़ार में आने के कुछ दिन बाद ही इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाये जाने की मांग उठी। एक स्थानीय अदालत ने प्रतिबन्ध के आदेश भी जारी कर दिए लेकिन बाद में कर्नाटक हाई कोर्ट ने यह प्रतिबन्ध हटा लिया कुछ सप्ताह पहले इसी पुस्तक पर आधारित एक नाटक का आयोजन मैसूरू में किया गया। जिला प्रशासन से इस नाटक को नहीं किये जाने के मांग की गई जो खारिज कर दी गई। बाद में कड़ी पुलिस व्यवस्था में नाटक का मंचन हुआ।

मैसूरू रियासत काल में दरबार की ओर से मंदिरों की व्यवस्था के लिए धन दिया जाता था जो टीपू के शासनकाल में जारी तो रहा लेकिन  इसके लिए कुछ शर्तों लगा दी गए। यहाँ होने वाली आरती का नाम सलाम आरती करने का आदेश दिया गया। बाद में मैसूरू के कर्नाटक बन जाने के बाद धर्मार्थ विभाग के प्रबंधन वाले मंदिरों, जिनकी संख्या तीन हज़ार से अधिक है, यह व्यस्था चली आ रही थी। लेकिन दो हफ्ते पहले सरकार के ओर से आदेश जारी कर आरती से पहले सलाम शब्द हटा दिया गया। अब आरती को मंगला आरती कहा जायेगा। मुस्लिम संगठनो से 300 साल से चली आ रही इस परम्परा को बंद करने के आलोचना की है। उनका आरोप है की वर्मन बीजेपी सरकार हर वयवस्था का हिन्दू करण में लगी है। अब सरकार में धर्मनिरपेक्षता नाम की कोई चीज नहीं बची है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)