हमारे प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद : डॉ. सत्यनारायण सिंह

3 दिसम्बर जन्म दिवस पर विशेष 

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह 

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद, राष्ट्रपति बनने से पहले संविधान सभा के अध्यक्ष थे। 1905 में बंगभंग के जमाने से राजेन्द्र बाबू का देशभक्ति का रंग चढ़ा। 1917 में चंपारण की लड़ाई के समय उन्होंने फकीरी अपनाई व गांधी जी के कदमों पर चलकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वे एक मेघावी छात्र, जाने माने वकील, आन्दोलनकारी, सम्पादक, अध्यक्ष, भारत के खाद्य एवं कृषि मंत्री रहे। उनकी गांधी से मुलाकात बड़ी दिलचस्प व नाटकीय रही। कलकत्ते में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में मौजूद थे परन्तु वे गांधी जी के बारे में कुछ खास नहीं जानते थे और गांधी जी को भी पता नहीं था कि राजेन्द्र प्रसाद बिहार के रहने वाले है जबकि वे अपनी पहली बिहार (चंपारण) यात्रा के दौरान कलकत्ते से पटना जाकर उनके यहां ठहरने वाले थे। राजेन्द्र प्रसाद कलकत्ते से जगन्नाथपुरी चले गये और गांधी जी पटना में राजेन्द्र प्रसाद के घर चले गये। वहां एक नौकर के सिवाय कोई नहीं था, नौकर ने ही देहाती मुवक्किल समझकर गांधीजी का तिरस्कार भाव दिखाया। गांधीजी को मजरूल हक के घर जाना पड़ा। महात्मा गांधी उनकी जनसेवाओं से इतने प्रभावित हुए कि राजेन्द्र बाबू के लिए महात्मा गांधी ने कहा था ‘‘कम से कम राजेन्द्र बाबू एक ऐसे व्यक्ति है जिन्हें मैं जहर का प्याला दूं तो वह उसे निसंकोच पी जायेंगे।’’

1918 में खेडा सत्याग्रह की लड़ाई में उनकी मुलाकात सरदार बल्लभ भाई पटेल से हुई। राजेन्द्र बाबू के प्रति सरदार पटेल के दिल में आकर्षण उत्पन्न हुआ और उनके बीच प्रेम की गांठ बंधी। राजेन्द्र बाबू 1942-45 बांकीपुर जेल में रहे। दलित उत्थान के लिए उन्हें बाबू जगजीवनराम का साथ मिला। अपनी आत्म कथा में राजेन्द्र बाबू ने लिखा ‘‘1896 में उनकी शादी राजवंशी देवी से हुई, विवाह के 44-45 वर्षो में शायद ही सब दिनों को गिनने के बाद भी वे दोनों इतने महिने भी एक साथ नहीं रहे। पढ़ाई लिखाई, वकालत के पश्चात असहयोग आन्दोलन आरम्भ होने के बाद घर जाने का समय कम मिला और घर के लोगों के साथ रहने का न तो सुभीता रहा और न काम से फुरसत।

डा. राजेन्द्र प्रसाद ने तीन वर्ष से ज्यादा चली संविधान सभा की कार्यवाहियों की अध्यक्षता की, संविधान निर्माण में उनकी महान भूमिका थी। संविधान सभा में डा. अम्बेडकर ने कहा था ‘‘आपने (डा. राजेन्द्र प्रसाद) बड़ी कुशलता से इस सभा की कार्यवाहियों का संचालन किया। जिन लोगों ने इस सभा की कार्यवाहियों में भाग लिया है वे उस उदारता और सहृदयता को नहीं भूल सकते जो आपने इस सभा के सदस्यों के साथ प्रदर्शित की। ऐसे अवसर आये जबकि केवल पारिभाषिक आधार पर मसौदा समिति के संशोधन को रोकने का प्रयास किया गया। मेरे लिए वे बड़े चिन्तापूर्ण थे। मैं आपका इस बात के लिए बड़ा कृतज्ञ हूं कि आपने विधिवाद की संविधान निर्माण कार्य पर विजय नहीं होने दी।’’

उन्होंने संवैधानिक समस्याओं के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर विचार करने के लिए समितियां नियुक्त की। इसमें कई समितियों के सभापति या तो पंडित जवाहर लाल नेहरू थे या सरदार बल्लभ भाई पटेल और इस प्रकार संविधान की मूल बातों को इन्हीं महान नेताओं द्वारा शीघ्रता से हल किया गया। मसौदा समिति ने श्री बी.एन.राव द्वारा निर्मित मूल मसौदे पर विचार किया और संविधान का मसौदा बनाया। 

26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक में डा. प्रसाद ने कहा ‘‘साम्प्रदायिक समस्या एक बहुत ही जटिल समस्या थी जो इस देश में एक अरसे से प्रचलित थी। दूसरा गोलमेज सम्मलेन जिसमें महात्मा गांधी गये थे, इसी कारण असफल हुआ कि साम्प्रदायिक समस्या हल न हो सकी। उसके बाद का देश का इतिहास इतना आधुनिक है कि उसके कहने की आवश्यकता नहीं है। धार्मिक पहचान पर आधारित राजनीति, भारतीय संविधान के मूल्यों के विरूद्ध है, हमें इस राजनीति को सिरे से खारिज करना होगा और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और हमारे मूल्यों को अंगीकार करना होगा।’’

उन्होंने यह भी कहा ‘‘आखिर संविधान एक यंत्र के समान, एक निष्प्राण वस्तु ही तो है। उसके प्राण तो वे लोग है जो उस पर नियंत्रण रखते है और उसका प्रवर्तन करते है और देश को आज तक एक ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है जो अपने सामने देश के हित को रख सके। हमारे जीवन के भिन्न भिन्न तत्वों के कारण भेदमूलक प्रवृत्तियां पैदा हो जाती है, इनमें साम्प्रदायिकता भेद है, जातिगत भेद है, भाषा के आधार पर भेद है, प्रान्तीय भेद है और इसी प्रकार के अन्य भेद है। इसके लिए ऐसे दृढ़ चरित्र व्यक्तियों की, ऐसे दूरदर्शी लोगों की और ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो छोटे-छोटे समूहों और क्षेत्रों के लिए पूरे देश के हितों का त्याग न करें और जो इन भेदों से उत्पन्न हुए पक्षपात से परे हो। हम केवल यह आशा करते है कि देश-देश में ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे। वयस्क मताधिकार बड़ा कदम है। हम पृथक निर्वाचन मण्डलों से छुटकारा पा चुके है। संविधान में बगैर किसी अधिक कष्ट के संशोधन किया जा सकता है।’’ 

डा. राजेन्द्र प्रसाद ने यह खेद प्रकट किया कि विधानमण्डल के सदस्यों के लिए अहर्ताएं निर्धारित नहीं की गई। विधि के प्रशासन में सहायता जो देते है, जो विधि का निर्माण करते है, उनके लिए हम कोई अर्हता न रख सके, उनमें चरित्र बल हो, संतुलित विचार करने व स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने का सामर्थ्य हो यह आवश्यक है। भारतीय भाषा में संविधान नहीं बना सके। दोनों मामलों में व्यवहारिक कठिनाईयां रही है। मुझे आशा है हममें ये योग्यताएं होंगी और इन अभिसमयों का हम विकास करेंगे। 

भाषण का सर्वोच्च बात रही कि डा. राजेन्द्र प्रसाद ने सदस्यों व विशेषज्ञों के साथ छोटे से छोटे कर्मचारी (चपरासी), आरक्षित दल व छोटे पदों पर लगे लोगों को याद किया और संविधान निर्माण के कार्य में उनके योगदान की प्रशंसा की (तांलिया)। उन्होंने सभा को यह इंगित किया कि छोटे से छोटा कर्मचारी भी महत्वपूर्ण है। यह उनकी महानता थी।