आर्थिक सुधार और मंहगाई : डा. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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आजादी के सात दशक पश्चात देश की जो तस्वीर सामने आ रही है वह उस तस्वीर से बिलकुल भिन्न है जिसकी हमारे बलिदानी नेताओं और देशवासियों ने कल्पना की थी। एक प्रगतिशील, आत्मनिर्भर, असाम्प्रदायिक, सामाजिक, आर्थिक रूप से सशक्त, भ्रष्टाचार से मुक्त भारत जिसमें गरीबी-अमीरी की खाई कम हो, विचारधाराओं की भिन्नता के बावजूद समता-समानता हो, की कल्पना की थी। 

इस कल्पना को साकार करने में सामाजिक, आर्थिक समस्याओं को करने में व जनता के कल्याण में सरकार का बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप आवश्यक है। प्रारम्भिक वर्षो में भारत में सार्वजनिक क्षेत्र ने बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर पैदा किये, अनेक सामाजिक जरूरतों को पूरा किया। कई क्षेत्रों में काफी हद तक आत्मनिर्भरता प्राप्त की। सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश करना सुरक्षित और अक्षुण्ण रहा। सार्वजनिक क्षेत्र के बिना आत्मनिर्भरता, सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक विकास संभव नहीं है परन्तु अब भारत में निजीकरण नीति के अन्तर्गत पूंजीवादी लाबी व विदेशी सहयोगियों के दबाब में, देश के संसाधनों, राष्ट्रीय सम्पत्तियों और सार्वजनिक निधियों के निजीकरण की नीति तैयार की गई है। आर्थिक सुधार, वैश्वीकरण और उदारीकरण के लुभावने वायदों के बीच कार्यदक्षता, प्रतिस्पर्धा, उत्पादन व वृद्धि, कीमतों में कमी, असमानता व गरीबी में कमी के वायदे व आकर्षक नारे अर्थहीन सिद्ध हो रहे है। 

इस विचारधारा ने छोटे व्यापारियों के बजाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए बाजार तैयार व सुविधा देना है। लघु उद्योग व मध्यम उद्योग मांग में कमी, उत्पादन में कमी, मजदूरी की अधिकता के कारण घाटे में चल रहे है अथवा बन्द करना पड़ा है। आर्थिक गुलामी पैर पसार रही है, गरीब-गरीब होता जा रहा है, अमीर और अधिक अमीर होता जा रहा है। भाजपा शासन ने स्वदेशी को स्वदेशी हटाओ में बदल दिया है। कही रूग्णता के नाम पर तो कही प्रशासनिक अकुशलता या अकर्मण्यता या व्यापारिक प्रवृत्ति के नाम पर भला बुरा कहकर बदनाम कर निजीकरण किया जा रहा है। 

आर्थिक सुधारों के नाम पर दिये जा रहे बदलाव के बाद पैट्रोल, डीजल, गैस की कीमतों में वृद्धि हुई, रूपये का अवमूल्यन हुआ, परिवहन व भाडे की लागत में तेजी आई। किसानों को पानी, बिजली, उर्वरक, कीटनाशक, अन्य वस्तुओं पर आर्थिक सहायता वापिस ली गई अथवा कम की गई जिसके फलस्वरूप कृषि उत्पादों की लागत बेतहाशा बढ़ गई। उपयोग की आवश्यक वस्तुएं अनाज, खाने का तेल, दालें, नमक, सब्जियों की कीमतों में वृद्धि हुई। किसानों ने अलाभकर होने से परम्परागत खाद्य फसलों को बोना बंद कर दिया, दूसरी ओर जमाखोरी बढ़ी। राजनैतिक दबाब में जमाखोरी के विरूद्ध कार्यवाहियां बंद कर दी। राजनैतिक दबाब के कारण प्रभावी कार्यवाही करने की बजाय सरकार ने कहना प्रारम्भ कर दिया कि कार्यवाही करने की सरकार के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है। मंहगाई को पूंजीवादी नीतियों से नहीं रोका जा सकता। आम लोगों के भोजन, आवास, कपड़ा, स्वास्थ्य, शिक्षा व रोजगार जैसे बुनियादी जरूरतों के समाधान हेतु प्रभावी कार्यवाही पूंजीपतियों के समर्थक होने के कारण नहीं की जा रही। 

निजीकरण नीति ने शिक्षा व स्वास्थ्य को व्यवसाय बनाकर रख दिया। 95 प्रतिशत से अधिक जनता के लिए उच्च व तकनीकी शिक्षा पंहुच से बाहर हो गई। नर्सिंग होम, प्राईवेट स्कूलों व निजीकरण से लोगों में गरीबी, बीमारियां, निरक्षरता कायम है। परिवहन क्षेत्र रेल, सड़क में खड़ी हुई समस्याएं व मंहगाई और बढ़ गई। क्रय शक्ति घटी है, पूंजी का कुछ लोगों के पास केन्द्रीयकरण हुआ है। ठेकेदारी व्यवस्था बढ़ रही है। नौकरियो में ठेका प्रथा प्रारम्भ हो गई है, रेगूलर नौकरी के बजाय अल्पकालीन सेवाएं ली जा रही है। एकाधिकारवादी प्रवृत्ति व व्यवस्था बढ़ रही है। अल्प बेरोजगारी की समस्या बढ़ रही है। भाजपा कहती है मंहगाई बढ़े तो बढ़े। बांटो और राज करो की राजनीति से घृणा व भेदभाव बढ़ रहे है, आम लोगों की तकलीफे बढ़ रही हैं। भयंकर असमानता बढ़ रही है। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, असमानता के कारण देश के हर हिस्से में अपराधों का ग्राफ उंचा होता जा रहा है। देश के कुछ लोगों के विकास को राष्ट्रीय विकास माना जा रहा है। 

आर्थिक नीतियों में बदलाव लाकर देश के आम लोगों के पक्ष में कार्य करने की आवश्यकता है। नीतियों में बदलाव लाकर आम लोगों के पक्ष में कार्य कर भोजन, मकान, चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार की सुविधा सभी को मिले सुनिश्चित करना आवश्यक है। देश में अशांति, हिंसा समाप्त कर, नीतियों में परिवर्तन से जब लोगों के पास आवश्यक क्रय शक्ति होगी तब ही मंहगाई कम होगी। आर्थिक नीतियों के तहत उत्पादकता, रोजगार, भूमि सुधार, श्रम कानूनों में सुधार करने की जरूरत है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)