विभाजन की सच्चाई, नेहरू दोषी नहीं : डॉ. सत्यनारायण सिंह

14 नवम्बर जन्म दिवस पर 

लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

www.daylife.page 

राष्टीय चेतना जाग्रत करने की प्रक्रिया में उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्रवादियों का एक समूह देश के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक उत्थान के लिए राष्ट्रीय रंगमंच पर अवतरित हुआ। सन् 1985 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई जो कालान्तर में राष्ट्रवादी भावना जाग्रत करने वाली प्रमुख एजेन्सी बन गई।सन् 1910 के अंत में जाकर राष्ट्रीय आन्दोलन दो समूहों में विभाजित हो गया। एक उदारवादी (मध्यममार्गीय) तथा दूसरा उग्रवादी (अतिवादी)।

उग्रवादियों (अतिवादियों) ने राष्ट्रधर्म की आड में उग्र राष्ट्रवादिता का प्रचार किया। हिन्दु समाज के पुनर्निमाण के बजाय मुसलमानों के पुनरूत्थान के लिए दी गई विशेष सुविधाओं को तुष्टिकरण की नीति बताया गया। हिन्दु धर्म को राष्ट्रवाद के साथ जोड़ा जो वस्तुतः मुसलमानों के सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिक्रियावादी तत्वों को भड़काने के लिए उत्तरदायी सिद्ध हुआ। हिन्दुओं के सामाजिक जीवन की मुख्यधारा से मुसलमान बिलकुल अलग हो गये व कटुता और शत्रुता का वातावरण बन गया।धर्म पर आधारित राजनीति, अलगाव की राजनीति हो गई।

पृथकतावादी प्रवृतियों ने अनेक प्रकार के संगठनो को जन्म दिया जिन्होंने सांप्रदायिकता का प्रचार प्रारम्भ किया। कांग्रेस पर हिन्दु विरोधी होने का लांछन लगाया गया और हिन्दु राष्ट्र का नारा बुलन्द किया गया। हिन्दु राष्ट्र के विकास की प्रतिक्रिया स्वरूप मुसलमानों में सांप्रदायिकता की भावना तीव्र हो गई और उन्होंने भी एक पृथक मुस्लिम राष्ट्र की मांग करना शुरू कर दिया। मुस्लिम सुधारवाद ने हिन्दू और मुस्लमानों के बीच सामाजिक अलगाव व राजनीतिक शत्रुता को बढ़ाया। मुस्लिम नेताओं ने कहा संसदात्मक स्वरूप को लागू किया गया तो हिन्दू बहुमत की प्रधानता होगी,ब्रिटिश सरकार ही मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितो की रक्षा कर सकती है। ये लोग गैर-मुस्लिमानों से मुस्लिम समाज को पृथक रखने की प्रवृति व इस्लामिक अलगाववाद खोजने लगे। “जिन्ना” ने कहा ‘‘भारत में जनतांत्रिक व्यवस्था लागू नहीं हो सकती, बहुमत की दृष्टि से हिन्दूस्तान हिन्दूओं का ही होगा तथा उन्होंने मुसलमानों के लिए पृथक राज्य की मांग प्रारम्भ कर दी।’’

मुसलमानों ने बहुमत की निरंकुशता के विचार को फैलाया। सन् 1940 में 2 राष्ट्र के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। ब्रिटिश हुकुमत ने उन्हे प्रोत्साहित किया। पृथकतावादी राजनीति ने इसे स्वीकार किया।महात्मा गांधी ने हिन्दु-मुस्लिम एकता पर लगातार जोर दिया। मोतीलाल नेहरू, आचार्य नरेन्द्र देव, डा. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, पं. जवाहर लाल नेहरू, डा. भीमराव अम्बेडकर आदि ने सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं के प्रति धर्म निरपेक्षता के दृष्टिकोण को पपनाया। परन्तु सुधारवादियों में चाहे वे हिन्दु हो या मुसलमान, रूढ़ीवादी दृष्टिकोण पनपा और सांप्रदायिक हिंसा व घृणा का वातावरण फैल गया। प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायवादी शक्तियों के कारण सामाजिक अलगाववाद, राजनैतिक विघटन का वातावरण पैदा हो गया। उस काल में नेहरू व अम्बेडकर मानववाद स्वतंत्रता, समानता, प्रेम, मित्रता, सहयोग और सहानुभूति का आदर्श एवं शांतिमय पद्धति का प्रेरणा स्रोत रहें।

अ. गोरेव व.जिम्यानिज ने ‘‘बायोग्राफी आफ नेहरू’’ में लिखा है मुस्लिम लीग संविधान सभा का पहले की तरह ही बहिष्कार करती रहीं और अपनी अलगाववादी नीति पर चलते हुए मुसलमानों तथा हिंदुओं के बीच छिपे-छिपे या खुले-आम झगडे उकसाती रही। अलगाव वादियों को ब्रिटिश एजेंटो से सक्रिय मदद मिलती थी। कांग्रेस के नेताओं से मिलने पर माउन्टबेटन दुख और सहानुभूति प्रकट करते और वचन देते कि रक्तपात रोकने और हिन्दूओं तथा मुससमानों के बीच मेल-मिलाप करवाने के लिए पूरी-पूरी कोशीश करेंगे। लेकिन वायसराय निर्लज्जतापूर्वक झूठ बोल रहे थेः उनके सलाहकारों ने भारत को दो राज्यों में बांटने की योजना बनानी शुरू कर दी थी। मौका मिलने पर खुद देश के विभाजन की अपरिहार्यता मानने से नहीं चूकते थे।

1944 में ही नेहरू को अपशकुन दिखायी दे गये थे और उन्होंने कहा था ‘‘बहुत सी अनजानी ताकतों और बातों की वजह से खास तौर से ब्रिटिश नीति की वजह से आगे क्या सूरत पैदा होगी? देश के भविष्य पर गंभीरता से विचार करते हुए नेहरू ने लिखा था कि देश पर जो भी विभाजन थोपा जाने का प्रयास है, वह किसी मध्ययुगीन सिद्धांत की तरफ वापस लौटना होगा।’’ भारत की एकता का कट्टर समर्थक होने के नाते उन्होंने ऐसी आजादी का इंतजाम किया जाना लाजिमी और मुमकिन माना था, जो सूबों ओर रियासतों को ज्यादा से ज्यादा स्वायत्तता दे और साथ ही केन्द्र को मजबूत बनाये रखें। बडे़-बडे़ सूबों और रियासतों में भी सोवियत रूस की तरह ओर छोटी-छोटी स्वषासी ईकाइयां हो सकती है। इसके अलावा अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बचाव और हिफाजत के लिए संविधान में सीधी मुमकिन हिफाजतें रखी जा सकती है।

वायसराय को सबसे पहले अपनी ओर समझाने में जिन्हें सफलता मिली वह सरदार पटेल थे। लीग से छुटकारा पाने के लिए पटेलभारत के एक हिस्से की कुबौनी देने को तैयार हो गये। सरदार पटेल ने कहा ‘‘हमें अच्छा लगे या बुरा अगर दो भाई साथ नहीं रह पाते तो वे जुदा हो जाते है। जुदा होने के बाद हर किसी को अपना हिस्सा मिल जाता है और वे फिर दोस्त बन जाते है। दूसरी ओर अगर उन्हें साथ रहने को मजबूर किया जाये तो हर रोज उनके बीच जबर्दस्त तू-तू मैं-मैं होती रहेगी। ऐसे में क्या रोज-रोज की चख-चख, गाली-गलौज से एक बार खुलकर झगड़ना और फिर जुदा हो जाना बेहतर नहीं है।“

वायसराय के निमंत्रण पर गांधी 31 मार्च 1947 को दिल्ली पहुंचे। माउन्टबेटन से पहली मुलाकात से पहले गांधी ने चिंतित मौलाना आजाद को सांत्वना देते हुए कहा था ”जब तक मैं जिंदा हूं, मै भारत के बंटवारे के लिए कभी राजी नहीं होऊंगा“। गांधी माउन्टबेटन बातचीत तीन दिन तक चलती रही पटेल उनके साथ थे और इस सारे दौर में ज्यों ही गांधी वायसराय निवास से निकले थे। उन्होंने कहा “इस समय हालत ऐसी है गांधी ने बुझी-बुझी आवाज में कबूल किया कि बंटवारे के बिना काम शायद नहीं चल सकता। सवाल सिर्फ यह रह गया है कि उसे अमली रूप कैसे दिया जाये।’’ कलकत्ता के दंगों और मार्च की घटनाओं के बाद से वह एक गंभीर मानसिक संकट से गुजर रहे थे। जिस अहिंसा का गांधी अपने देशवासियों को इतने वर्षो से और इतनी हठधर्मिता के साथ पाठ पढ़ाते आये थे और जिस अहिंसा को उन्होंने सभी समस्याओं की रामबाण औषधी माना हुआ था, वही अहिंसा यहां कलकत्ता, लाहौर और रावलपिंडी मे बिलकुल बेअसर सिद्ध हुई थी।

10 मई, 1947 की शाम को षिमला में माउन्टबेटन ने नेहरू को भारत के भविष्य से संबंधित अपनी योजना में मसविदे से अवगत कराया, जिसे वह ब्रिटिश सरकार के सामने पेश करने वाले थे। माउन्टबेटन ने उन्हें जो योजना बतायी थी, वह असल में भारत के टुकडे़-टुकडे़ करने की योजना थी। उसके अनुसार वास्तविक शासन प्रांतों को सौंप दिया जाना था और केन्द्र में कमजोर संघीय सरकार ही रहने देनी थी। रहा सवाल इन प्रांतों के आपस में बिलयन का तो इसे अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद हर प्रांतीय सरकार को अपने तौर पर हल करना था।

11 मई 1947 को सुबह नेहरू ने वायसराय को एक कड़ा पत्र भेजा जिसमें उनकी योजना को भारत के लिए सर्वथा अस्वीकार्य  करार दिया। माउन्ट बेटन और उनके सलाहकारों के असली इरादों को भांपते हुए नेहरू ने लिखा किइस योजना पर अमल किये जाने से देष टुकडे़-टुकडे़ हो जायेगा, आपसी झगड़ों अव्यवस्था और हिंसा को बढावा मिलेगा, केन्द्रीय सरकार की प्रतिष्ठा गिर जायेगी और सेना, पुलिस तथा सिविल सर्विस का मनोबल टूट जायेगा। माउन्टबेटन ने नेहरू के इतने कड़ेविरोध पर हैरान होने का दिखावा करते हुए अपनी योजना में जरूरी तब्दीलियां करने का वायदा किया और नेहरू तथा दूसरे कांग्रेसी नेताओं को आष्वासन दिया कि वह सचमुच में एक शक्तिषाली और एकीभूत भारत का का निर्माण करना चाहते है।

मौलाना आजाद, नेहरू और उनके समर्थक कांग्रेसियों को ऐसे वक्तव्य से तसल्ली शायद ही हुई। उल्टे उससे उनकी इस आषंका को ही बल मिला होगा कि ब्रिटिष साम्राज्यवाद भारत को अपने प्रभाव क्षेत्र से न निकलने देने के लिए कुछ भी कर सकता है। ग्रेट ब्रिटेन के शासक भारत में भ्रातृघाती गृहयुद्ध भड़काने के लिए तैयार बैठे थें ताकि दुनिया के सामने एलान कर सकें कि हिन्दुस्तान के लोग आजादी पाने के लिए तैयार नहीं है और फिर व्यवस्था स्थापित करने तथा बनाये रखने के बहाने देष में अतिरिक्त फौजें जा सके।

ग्रेट ब्रिटेन के शासको की नीति धार्मिक आधार पर थी भारत का दो भागों में विभाजन करना था, हिन्दू राज्य भारत और मुस्लिम राज्य पाकिस्तान। रियासतों का प्रश्न असमाधित छोड़ा गया थ उन्हें खुद फैसला करना था कि वे दोनों में से किसी एक डोमीनियन में शामिल होंगी अथवा इंगलैण्ड के साथ पहले जैसे संबंध बनाये रखेगी, यानी उसके उपनिवेष बनी रहेगी। मुस्लिम लीग के नेताओं ने लगभग एकमत से माउन्टबेटन योजना का स्वागत किया और कांग्रेस के साथ सहयोग पूरी तरह से रोक दिया। सरदार पटेल ने राजनीतिक यथार्थवाद को स्वीकार किया ‘‘जो माउन्टबेटन योजना को कबूल कर लेने का तकाजा था।’’ नेहरू, मौलाना आजादव अन्य कांग्रेस नेताओं को मन मसोसकर बहुमत की इच्छा के सामने झुक ही जाना पड़ा।

देश के नागरिकों को स्पष्ट करने के लिए सरदार पटेल ने देश का दौरा किया।3 जनवरी 1948 को कलकत्ता में और 17 जनवरी 1948 को मुम्बई में, 15 जुलाई 1948 को पटियाला (पेपसु), 3 अक्टुबर 1948 को नई दिल्ली में, 12 अक्टुबर 1948 को गुजरात में, लखनऊ, व मैसूर 30 अक्टुबर को पुनः बम्बई चौपाटीकहा था‘‘यदि हमने हिन्दुस्तान का टुकडा करना मंजूर नहीं किया होता तो आज जो हालात है उससे भी बुरे हालात होने वाले थे और हिन्दुस्तान के 2 टुकडे नहीं बल्कि अनेक टुकडे होने वाले थे। जब तक हम परदेशियों को नहीं हटा दे, विदेशी हुकुमत नहीं हटा दे तब तक दिन प्रतिदिन ऐसे हालात होते जायेंगे। हमको साफ तौर पर दिखाई दिया कि हमारे हाथ में हिन्दुस्तान का भविष्य नहीं रहेगा और परिस्थितियां काबू से बाहर हो जायेगी। ऐसे में यदि हिन्दुस्तान के 2 टुकडे करने से काम ठीक हो जाये तो वैसा ही कर लो। हमने सोचा था कि हमारा प्रथम कर्तव्य है कि ब्रिटिश सत्ता को यहां से जितनी जल्दी हो सके हटा दिया जाये। विदेशी हुकुमत यहां से जल्दी हटा दी जाये तो हम इस प्रकार के टुकडे हजम कर लेंगे। सबसे बड़ी जरूरत थी तीसरी ताकत के हाथ से मुल्क को निकालना व गुलामी से मुक्त करना। एक ही तरीके से विदेशी यहां रह सकते थे किवह हिन्दु-मुसलमानों के बीच झगडा करवाये।’’

30 अक्टूबर 1948 को पुनः मुम्बई चौपाटी की एक सभा में सरदारपटेल ने कहा था ‘‘ हमने हिन्दुस्तान के दो टुकडे मंजूर कर किये उस समय मेरा दिल दर्द से भरा हुआ था और मेरे साथियों की भी यही हालत थी। हम लोगों ने राजी खुशी इस चीज को स्वीकार नहीं किया बल्कि लाचारी में इसे कबूल किया। हमने यह भी देखा कि अगर हम आज अलग नहीं होंगे तो हिन्दुस्तान के सैकड़ों टुकडे होने जा रहे है। हमने हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए जो कोशीश की वह मिट्टी में मिल जायेगी और हमें आजादी नहीं मिलेगी। हमारे सिर पर तीसरी सत्ता बैठी थी जो उसका पूरा फायदा उठा रही थी। हमने सोचा कि हमारा परम कर्तव्य इस तीसरी सत्ता को यहां से हटा दिया जाये और जितनी जल्दी हो सके उसको यहां से हटा दिया जाये चाहे उसके लिए कितनी भी कीमत अदा करनी पडे। इसलिए हमने इसे मंजूर कर लिया कि हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता चंद दिनों में स्वीकार हो जाये और विदेशी हुकुमत यहां से जल्दी हटा दी जाये।’’तत्कालीन परिस्थितियों में देश का विभाजन होना आवश्यक हो गया था। इसके लिए न तो सरदार पटेल जिम्मेदार है और न ही पं. जवाहर लाल नेहरू। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)