मुलायम सिंह का अवसान, पिछडो़ं के युग का विराम : ज्ञानेन्द्र रावत

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राजनीति में साढे़ पांच दशक के लगभग पिछडो़ं, गरीबों, किसानों और अल्पसंख्यकों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले नेता, अपने धुर राजनीतिक विरोधियों से भी अच्छे व मधुर सम्बंध रखने वाले, समाज के लिए सदैव प्रतिबद्ध रहने वाले और देश की राजनीति की धरोहरों में अनूठे नेता के रूप में विख्यात मुलायम सिंह के निधन से देश की राजनीति में ऐसी रिक्तता पैदा हुयी है जिसकी भरपायी असंभव है। उनके निधन से भारतीय राजनीति का एक अध्याय समाप्त हो गया है। इसमें दो राय नहीं कि देश की राजनीति में चौधरी चरण सिंह के अवसान के बाद हुयी रिक्तता को भरने का काम यदि किसी नेता ने किया, तो वह मुलायम सिंह ही थे जिन्हें चौधरी चरण सिंह का नैपोलियन तक कहा जाता था। 

प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह यादव जिन्हें उनके प्रशंसक और अनुयायी चौधरी साहब के नाम से पुकारते थे, ने राजनीति में अपने परम मित्र और 80 के दशक और उसके बाद 90 के दशक तक लोकदल की राजनीति में साथ-साथ शीर्षस्थ भूमिका निबाहने वाले राजेन्द्र सिंह को भी पीछे छोड़ एक ऐसा मुकाम हासिल किया, जो आजतक कोई हासिल नहीं कर पाया। यही वजह रही कि वह प्रदेश में लोकदल के इतिहास में ऐसे अध्यक्ष रहे जिसकी कार्य कुशलता, राजनीतिक दक्षता और जनता में पैठ की सर्वत्र सराहना की जाती है। देखा जाये तो प्रदेश में राम बचन यादव, रामनरेश कुशवाहा जैसे नेता भी लोकदल अध्यक्ष रहे, लेकिन मुलायम सिंह का जन समस्याओं के लिए किये जाने वाले संघर्ष का ही परिणाम रहा कि उनके सामने प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे रामनरेश यादव तक राज्य के यादवों और अन्य पिछडे़ वर्ग में अपनी पैठ बनाने में नाकाम रहे। 

दस्यु उन्मूलन के नाम पर पिछडो़ं पर होने वाले अत्याचार के विरुद्ध उनके राज्यव्यापी संघर्ष कहें या आंदोलन ने उन्हें राज्य में पिछडो़ं का सर्वमान्य नेता बना दिया। यह बात भी सही है कि इस आंदोलन में समाजवादी नेता मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज, शरद यादव, रामनरेश यादव आदि नेताओं की भी अहम भूमिका थी और इस आंदोलन को पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का भी आशीर्वाद कहें या वरद हस्थ प्राप्त था। यही वह अहम कारण रहा कि वह प्रदेश में मंत्री, नेता विरोधी दल, मुख्यमंत्री, सांसद और रक्षा मंत्री जैसे पदों तक वह पहुंचे और उन पदों पर रहते हुए उन पदों की गरिमा को यथा संभव बनाये रखने में भी उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोडी़। 

वह बात दीगर है कि देश की राजनीति में एक समय ऐसा भी आया जबकि उनके प्रधानमंत्री बनने का भी अवसर आया लेकिन प्रधानमंत्री बनने न देने में उनके जातीय बंधुओं और अन्य नेताओं की भी अहम भूमिका रही। इसमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। इसमें अहम कारण उन जातीय बंधु नेताओं की महत्वाकांक्षा प्रमुख थी। वह बात दीगर है कि उन नेताओं की वह महत्वाकांक्षा कभी पूरी नहीं हुयी और वह राजनीति के घटाटोप अंधेरे में गुम ही हो गये और उन नेताओं का प्रधानमंत्री बनने का सपना सपना ही रह गया। समय इसकी गवाही देता है। प्रदेश और देश की राजनीति में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। सामाजिक उत्थान व प्रदेश के विकास हेतु किये गये उनके कार्य सदैव स्मरणीय रहेंगे।उनके निधन पर उन्हें आदर और सम्मान के साथ भावभीनी श्रृद्धांजलि।

गौरतलब यह है कि देश में अल्प संख्यकों के हितों के प्रबल पक्षधर होने के चलते उन पर मुल्ला मुलायम सिंह होने का भी आरोप लगा लेकिन इससे वह कभी विचलित नहीं हुए और अपने रास्ते पर अंतिम क्षण तक अडिग रहे। दरअसल उन पर कार्तिकी स्नान के पर्व पर अयोध्या में जलियांवाला बाग जैसा कांड करवाने का आरोप लगाया गया जिसमें निहत्थे राम भक्तों को घेरकर उनपर घंटों फायरिंग की गयी। आरोप यह भी लगाया गया कि उस गोलीकांड में दो सौ की मौत हुई और उमा भारती, ठाकरे, नृत्यगोपाल दास के नेतृत्व में हजारों रामभक्त घायल हुए। जबकि उनके इस मुस्लिम प्रेम के चलते चुनाव में दीगर मतदाताओं के कोप का भी भाजन बनना पडा़। 

उन पर परिवारवाद के पोषण और ताल, तिकड़म व अवसरवाद के पुरोधा कहें या सुप्रीमो होने का भी आरोप लगाया गया परन्तु उन्होंने इसका कभी खंडन नहीं किया। वैसे देखा जाये तो इस तरह के आरोप कांग्रेस शासन में मुलायम सिंह सहित भाजपा व अन्य सभी विरोधी दल कांग्रेस पर लगाते नहीं थकते थे लेकिन विडम्बना देखिए आज वही दल इनमें आकंठ डूबे नजर आते हैं और गांधी परिवार पर परिवारवाद का पानी पी पीकर आरोप लगाते नहीं थकते। क्या इसे ही राजनीति कहा जायेगा? बहरहाल उनका नाम प्रदेश की राजनीति, सत्ता और पिछडो़ं पर लम्बे समय तक अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले नेता के रूप में दर्ज रहेगा। यह कटु सत्य है। उनके जाने के बाद अहम सवाल यह है कि क्या यादवों का क्षत्रप अब कौन होगा? उनके पुत्र अखिलेश यादव जो अब समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष हैं या मुलायम सिंह के जीवन में उनके कंधे से कंधे मिलाकर चलने वाले भाई शिवपाल सिंह यादव जिन्हें अब बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। यही विचारणीय प्रश्न है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार हैं)

लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)