लेखक : डॉ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)
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देश में विश्वविद्यालयीन शिक्षा का सम्मान अब कठघरे में आ गया है। अनेक समस्याओं से ग्रस्त विश्वविद्यालय लगातार उद्देश्य पूर्ति में असफल हो रहे हैं। खबरों से जो स्थिति उभर कर सामने आ रही है, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि विश्वविद्यालयीन शिक्षा अब अराजकता के दौर से गुजर रही है और विश्वविद्यालयों में शिक्षा व संस्कार निर्माण के स्थान पर आपसी गुटबाजी और राजनीति घुस आई है। सुयोग्य एवं श्रेष्ठ नागरिक बनने के स्थान पर निराश युवकों की फौज बनती जा रही है। विश्वविद्यालयों से जुड़े महाविद्यालयों में तो अध्ययन अध्यापन का वातावरण ही दिखाई नहीं देता। सरकारी स्तर पर इनमें शिक्षा के स्तर में गुणात्मक सुधार किये जाने के लिए कोई सामूहिक प्रयास नहीं किये जा रहे हैं।
विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों में विद्यार्थियों को पढ़ाने के प्रति रूचि नहीं दिखाई देती। प्राध्यापकों को पढ़ाने के बजाय अपने स्वयं के हित साधन व राजनीति से फुरसत नहीं है। यह भी कटु सत्य है कि कुछ कुलपतियों व प्राध्यापकों को अपने कर्तव्य का बोध नहीं रहा। शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। कुछ विश्वविद्यालय तो इस संबंध में विज्ञापन देने लगे हैं कि उक्त विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण छात्र आवेदन नहीं करें। 100 से अधिक डिम्ड विश्वविद्यालय हो चुके हैं। निजी विश्वविद्यालयों के हालात तो और भी अधिक खराब हैं। इन विश्वविद्यालयों के छात्रावासों में हर प्रकार की अव्यवस्था हो गई है और ये आपराधिक स्थल बनते जा रहे हैं। विभागाध्यक्ष रोटेसन प्रणाली से नियुक्त किये जा रहे हैं जिससे प्राध्यापकों में आपसी अनुशासन समाप्त हो रहा है। यू.जी.सी. द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार नियुक्तियां व कार्यवाहियां नहीं हो रही हैं। निर्धारित समय के अनुसार प्राध्यापक अपनी कक्षाओं में उपस्थित नहीं हो रहे हैं।
आज हाई कोर्ट जजेज का हाजरी रजिस्टर होता है। कोई जज नहीं आता है तो जग जाहिर हो जाता है। प्राध्यापक महिनों तक विश्वविद्यालय अथवा महाविद्यालय से गायब रहते हैं, उनके बगैर इजाजत विदेश जाने के भी अनेक उदाहरण हैं। उनकी कक्षाओं में उपस्थिति को सुनिश्चित नहीं किया जा रहा है। राजनीति व गुटबाजी को समाप्त करने के लिए अन्तर विश्वविद्यालय स्थानान्तरण पर अब तक विचार नहीं किया गया। जब संवैधानिक पदों पर कार्य करने वाले व्यक्तियों को एक राज्य से दूसरे राज्य में भेजा जा सकता है तो एक राज्य में एक विश्वविद्यालय के प्राध्यापक का उसी राज्य के दूसरे विश्वविद्यालय में स्थानान्तरण क्यों नहीं हो सकता। आजकल धारणा यह बन गई है कि विश्वविद्यालयों में बस केवल प्रवेश, चुनाव व परीक्षा संबंधी कार्य ही होते हैं, पढ़ने पढ़ाने का नहीं।
जब कुलपति का चुनाव शिक्षाशास्त्री, शिक्षा क्षेत्र के प्रशासक, उच्च कोटी व विद्वान व्यक्ति के स्थान पर जातिगत आधार, व्यक्तिगत संबंध, राजनैतिक संबंध एवं प्रतिबद्धता के आधार पर होने लगें तो किस प्रकार शिक्षा का यह मंदिर कार्य कर सकता है ? अनियमितता, भ्रष्टाचार, पक्षपात, अव्यवस्था के गंभीर आरोपों के बावजूद जब जोड़ तोड़, तिकडमबाजी व राजनैतिक संबंद्धता से कुलपति अपना समय पूरा करेगा तो विश्वविद्यालय में किस प्रकार शिक्षा का वातावरण बना रह सकता है? कुलपति कार्यालय का कार्य रिमोर्ट कंट्रोल से चलने लगे तो विश्वविद्यालय किस प्रकार से सुदृढ़ हो सकते है?
पूर्व में प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, कर्मठ प्रशासक, उच्च कोटी के इंसान कुलपति नियुक्त होते थे। उनमें किसी प्रकार का पक्षपात, संकोच, डर की भावना नहीं होती थी। उनके चरित्र पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता था, उन पर कोई भ्रष्टाचार, पक्षपात का आरोप नहीं लगा सकता था। विश्वविद्यालय के कार्य नियमित, सुचारू एवं कानून कायदों के हिसाब से व समयबद्ध रूप से होते थे। कुलपति की एक छवि थी। वे कभी विवादों के घेरे में नहीं आते थे। अपने आदर्श व सद्चरित्र से कार्य करते थे। उनको कभी अपने पद की चिंता नहीं रही। वे जोड़ तोड़ च तिकडमबाजी अथवा राजनीतिक सम्बद्धता में विश्वास नहीं करते थे। उनको बड़े से बड़े नेता भी शिष्टाचार के अनुरूप ही विचार विमर्श हेतु आमंत्रित करते थे। सिंडीकेट व सीनेट की नियमित बैठकें होती थीं। विश्वविद्यालयों को नियमानुसार नियमित वित्तिय सहायता प्राप्त होती थी। विश्वविद्यालयों के कुलपति एवं आचार्यो का इतना खौफ, प्रभाव एवं अनुशासन था कि सभी प्राध्यापक एवं छात्र उनके कहे अनुसार दिलोजान से काम करते थे। ऐसे उदाहरण भी है, जब प्राचार्यो ने अनुशासन की दृष्टि से कोई कार्य करना उपयुक्त नहीं समझा और दबाब पड़ा तो त्याग प़त्र दे दिये।
प्राचार्यों व शिक्षकों के हालात भी अब बदल गये हैं। पहले खुले रूप से राजनीति में भाग लेना तो दूर राजनैतिक चर्चा में भी भाग नहीं लेते थे। अपने राजनैतिक विचार भी छात्रों के सामने प्रकट नहीं करते थे। आजकल खुलेआम राजनैतिक संगठनों की विचारधारा से बंधे हुए हैं व संगठनों से जुड़े हुए हैं। चुनावों में खुलकर भाग लेने लगे हैं। छात्रसंघों का संचालन करते हैं। नियमित रूप से निजी प्रोजेक्ट लेकर आर्थिक सहायता प्राप्त करने में व्यस्त रहते हैं। आज के प्राध्यापक राजनैतिक संबंद्धता के आधार पर अपनी पार्टी, संगठन, विचारधारा एवं अपने विकास की बात सोचते हैं। वेतन को पेंशन समझते हैं, पढ़ाने का काम पार्ट टाईम हो गया है।
पूर्व में विश्वविद्यालय व महाविद्यालय में पुलिस प्रवेश को कुलपति व प्राचार्य अपना अपमान समझते थे। यदाकदा ही विश्वविद्यालय कैम्पस में पुलिस देखी जा सकती थी। अब तो लगातार नियमित रूप से छावनी के रूप में देखी जा सकती है और बगैर पुलिस की सहायता के विश्वविद्यालय में अनुशासन बनाये रखना असंभव हो गया है। शिक्षा की अनुशासित व सुचारू व्यवस्था नहीं होने से कुछ छात्र तो घर से विश्वविद्यालय केवल मित्रों से चर्चा करने व राजनीति करने को उपस्थिति देते हैं। अनेक छात्र तो नौकरी नहीं मिलने से राजनीति करने हेतु ही विश्वविद्यालय आते है, निराशा व कुंठा में अपना समय व्यतीत करते रहते हैं। विश्वविद्यालय में ग्रामीण छात्रों व शहरी उच्च वर्ग व आरक्षित वर्ग के छात्रों में भी स्पष्ट अंतर दिखाई देता है।
विश्वविद्यालयों में खेलकूद का स्थान व महत्व तो पूरी तरह समाप्त हो चुका है। खेलकूद के मैदान खाली पड़े रहते हैं। छात्रावासों में अनेक वर्षो से ऐसे छात्र रह रहे हैं जिनको परीक्षा में असफल रहने से अन्य कहीं प्रवेश नहीं मिलता। अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। छात्रावासों में व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रही। छात्रावासों में असामाजिक तत्वों के आवास की चर्चा भी रहती है। आपस में सद्भाव, स्नेह, भाईचारा नहीं होता।
छात्रसंघों की स्थापना छात्रों के सर्वांगीण विकास व उनमें नेतृत्व क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से की गई थी परन्तु अब छात्र राजनीति के आधार पर, क्षेत्रवाद व जातिवाद के आधार पर, अपने बड़े नेताओं के आदेशानुसार चुनाव लड़ते हैं व काम करते हैं। देश हित में यह सोचना आवश्यक हो गया है कि युवकों के भविष्य के लिए किस प्रकार के सुधार व संशोधन विश्वविद्यालय अधिनियम में किये जायें ? किस प्रकार उनकी व्यवस्था व कार्य संचालन में बदलाव लाया जाय। यूजीसी द्वारा निर्धारित योग्यता मापदण्डों व सिफारिशों को पूरी तरह लागू किया जाना आवश्यक किया जाय। उनमें राजनैतिक इच्छानुसार संशोधन करने की प्रवृति को समाप्त किया जाय। ऐसे प्राध्यापकों के नाम जगजाहिर किये जाएं जो खुलकर राजनैतिक संगठनों में सक्रिय हैं, महिनों तक विश्वविद्यालय में नहीं आते, क्लासेज नहीं लेते, क्लिनिक चलाते हैं।
आज ये उच्च शिक्षण संस्थान कभी भ्रष्टाचार तो कभी विवादित मुद्दों को लेकर चर्चा में रहते हैं। अतः विश्वविद्यालय की कार्य प्रणाली व आय व्यय पर भी पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया जाना आवश्यक है जिससे प्रशासनिक, वित्तिय अनियमितता व घोटाले नहीं हों। प्रवेश प्रक्रिया से लेकर शिक्षक भर्ती व परिणाम तक सवालों के घेरे में रहते हैं। चहेतों को शोध प्रक्रिया में मदद करना और अन्यों को प्रताड़ित करना भी एक गंभीर समस्या है।
देश को विकास के पथ पर ले जाने के लिए विश्वविद्य़ालयों को भ्रष्टाचार व राजनीति से मुक्त करने की आवश्यकता है। स्वायत्ता की दुहाई देने पर नकेल कसना आवश्यक है। प्रत्येक छात्र पर विश्वविद्यालय का सालाना खर्च लाखों में आता है। विश्वविद्यालय को स्किल डवलपमेंट से जोड़ा जाय व रोजगार प्रशिक्षण की व्यवस्था हो, प्राध्यापकों व कर्मचारियों की नियमित नियुक्तियां व पदोन्नति की जाय जिससे अध्ययन अध्यापन का कार्य बढ़ सके। उनमें निर्धारित मापदण्डों, शैक्षणिक योग्यताओं व मेरिट का ध्यान रखा जाये। राजनैतिक आधार एवं भाई भतीजावाद के आधार पर नियुक्तियों को बंद किया जाय। यूजीसी द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार प्राध्यापक अपनी कक्षाओं में उपस्थित हों। कटिबद्धता को समाप्त करने के लिए अन्तर विश्वविद्यालय स्थानान्तरण पर विचार किया जाये। सरकारों को इन शिक्षण संस्थाओं में अपने निजी विचारधारायें फैलाने की सोच को भी छोड़ना होगा।
विश्वविद्यालय में शिक्षा के स्तर में सुधार लाने के लिए सख्त कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। प्रवेश समय पर हों, कक्षायें समय पर लगे, छात्रसंघ चुनाव समय पर हों, परीक्षायें समय पर हों, परीक्षाफल समय पर निकले, विश्वविद्यालय राजनीति का अखाडा नहीं बने, लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों की पालना हो। यह सब सुनिश्चित करना होगा और जिम्मेदारी निर्धारित करनी होगी। विश्वविद्यालय प्रशासन को इस संबंध में एक उपयुक्त दृष्टिकोण अपनाकर कार्य करना होगा। हर स्तर पर प्रवेश कर रही राजनीति व प्रशासनिक दखलंदाजी को समाप्त कर नियमित अध्यापन सुनिश्चित करना होगा। आधुनिक दौर में आधुनिक उपकरणों के साथ शिक्षा व्यवस्था में सुधार कर ही विश्वविद्यालय की खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त की जा सकती है विदेशों में इन विश्वविद्यालयों की खोई प्रतिष्ठा को प्राप्त किया जा सकता है। (लेखक का अपना लेखन, अध्ययन एवं अपने विचार है)