आर्थिक सुधारों के विभिन्न मुद्दों पर पुनर्विचार की आवश्यकता : डॉ.सत्यनारायण सिंह

किसे मिल रहा-विकास प्रक्रिया का लाभ ?

लेखक : डॉ.सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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किसे मिल रहा वर्तमान विकास प्रक्रिया का लाभ ? क्या हम बडे़ उद्योगों की सुरक्षा के नाम पर मिली भगत वाले पूंजीवाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं ? क्या सुधारों के नाम पर देश ऐसी विकास प्रक्रिया को बढ़ावा दे रहा है जो केवल उद्योगपतियों को लाभ पहुँचा रही है और जो भारत की जनसंख्या के अधिकतर भाग और लघु स्तर उद्योगों को उपेक्षता और विपन्नता की स्थिति में छोड़ रही है? क्या विकास व सामाजिक न्याय के बीच उचित समन्वय की दरकार के लिए समावेशी विकास व आर्थिक सुधारों के विभिन्न मुद्दों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है ? 

वर्तमान में विकास के लाभ केवल अमीरों तक पहुँचते हैं और गरीब गरीबी के चंगुल में ही ग्रस्त रह रहे हैं। औद्योगिक विकास में छोटे तथा मध्यम उद्यमों के कार्य भाग की और ध्यान केन्द्रित नहीं है। औद्योगिक प्रगति को परिचारित करने के लिए कुछ गिने चुने औद्योगिक घरानों और पूँजीपतियों पर निर्भर रह रहे हैं। जबकि छोटे तथा मध्यम उद्यम, रोजगार गहन प्रवृति और अधिक प्रसार के कारण, हमारी औद्योगिक प्रगति के लिए आकर्षक विकल्प हैं। आज लाभ अधिकतम करने का लक्ष्य ही सामने रखा जा रहा है आय में बढ़ती हुई असमानताओं के कारण बढ़ रही सामाजिक अशांति की ओर हमारा ध्यान नहीं है। हम बड़े उद्योगों की सुरक्षा के नाम पर मिली-भगत वाले पूंजीवाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं। सभी प्रकार के उद्यमों को समान व्यवहार उपलब्ध नहीं हो रहा है औद्योगिक क्षेत्र में प्रतियोगिता की मात्रा घट रही है। 

कम्पनियों के समूह द्वारा ऊँची कीमते रखने के लिए कार्टेल कायम किये जा रहे हैं और प्रतिस्पर्धा की शक्तियों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने में बाधा डाली जा रही है। यह खुली अर्थ व्यवस्था की कल्पना के विरूध है। नतीजतन गरीब लोगों पर वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि का बहुत अधिक प्रभाव पड़ रहा है। हमें लाभ अधिकतम करने की प्रक्रिया को मर्यादा और लालच की सीमाओं में नहीं रखा जा रहा। सरकार बयानवाजी में तेज है लेकिन कार्यवाही के मोर्चे पर सुस्त है। 

क्रोनीकैपटलिज्म मिली-भगत वाला पूँजीवाद है। हम इस व्यवस्था को प्रात्साहन दे रहे हैं, छोटे उद्यमों व उपभोक्ताओं को पूँजीवाद के परिणामों के विरूद्ध पर्याप्त सुरक्षा नहीं दे रहे। निगम क्षेत्र के प्रवर्तकों और वरिष्ठ कार्यकारी अधिकारियों को बड़ी सुविधायें व भारी वेतन दे रहे। श्रमिक वर्ग को पर्याप्त सुरक्षा, सुविधायें व वेतन नहीं मिल रहे। 

राष्ट्रीय आय की उच्च वृद्धि अकेले ही रोजगार जनन और निर्धनता को कम नहीं कर सकती। सर्व समावेशी विकास द्वारा आर्थिक वृद्धि दर, शिक्षा व स्वास्थ्य पर परिव्यय में वृद्धि, किसानों के लिए लाभकारी कीमतें और ग्रामीण विकास पर भारी निवेश से ही वास्तविक विकास की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है व असमानता को मिटाया जा सकता है।  

सरकार की अधिकतर नीतियां उद्योगपतियों के लाभ को ध्यान में रख कर बनाई जा रही हैं। इस नीति में सुधार की आवश्यकता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो अनिवार्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि बनी रहेगी प्रोमोटरों के अत्यधिक पारिश्रमिक और सी.ई.ओ. के ऊँचे वेतन को नियंत्रित करने के साथ ऊँची कीमतों को रोकने के लिए कार्टेल समाप्त करना आवश्यक है। श्रमिकों व जनसाधारण के कल्याण के लिए निवेश, वंचित, पिछड़े वर्गों को रोजगार के अवसर देना आवश्यक है। अधिक रोजगार कायम करने वाले उद्यमों को प्रोत्साहन आवश्यक है। 

संगठित क्षेत्र में रोजगार की नकारात्मक वृद्धि को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है। संगठित क्षेत्र में रोजगार बढ़ने के अनुमान अति आशावादी और पूर्ण तथा अवास्तविक हैं। केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में रोजगार क्षमता का विस्तार रोक दिया गया है। लघु स्तर उद्यमों को उपलब्ध संरक्षण को क्रमबद्ध रूप से समाप्त कर दिया है। बैंक उधार को भी बड़े पैमाने के उद्योगों की ओर मोड़ दिया है। असंठित क्षेत्र को सशक्त बनाने के लिए कोई ठोस योजना तैयार नहीं है। सकल देशीय उत्पाद में कृषि के गिरते भाग के कारण श्रम शक्ति में वृद्धि के महत्वपूर्ण भाग को कृषि में समाया नहीं जा सकता। विनिर्माण में भी वृद्धि निराशाजनक है, आवश्यकता है विशेष रूप से श्रम प्रधान विनिर्माण को बढ़ावा देने की। लघु उद्यम की परिभाषा की समीक्षा करना भी जरूरी है। 

कृषि रोजगार में 1 प्रतिशत से भी कम वृद्धि हुई जो गैर कृषि रोजगार में वृद्धि की अपेक्षा कम है। कृषि श्रम परिवारों में जो सबसे गरीब समूह है, उनकी बेरोजगारी में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। शिक्षित युवकों में निराशा बढ़ रही है उनकी प्रत्याशाए बढ़ गई हैं। गरीबी में कमी की रफ्तार घटी है परन्तु असमानता की खाई गहराई है। 

अर्थ व्यवस्था में धीमापन निश्चित रूप से आया है। भारत भी उसी तरह मंदी का शिकार हो रहा है जैसा कि अन्य देश हो रहे हैं। आर्थिक परिदृष्य सुहावना नहीं है। बेरोजगारी व महंगाई तेजी से बढ़ रही है। आर्थिक स्थितियों के साथ साथ सामाजिक भेद भाव एक ढांचे की तरह बना हुआ है। सामाजिक क्षेत्र में जाति, धार्मिक, लिंग आधारित वर्ग आते हैं जिनमें दलित, पिछड़े वर्ग, आदिवासी, अल्प संख्यक और महिलाओं का समुदाय है, विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये उन वर्गों तक प्रावधानों का लाभ नहीं पहुँच पा रहा है। सामाजिक वर्गो के हितों के लिए प्रावधान किए जाते हैं परन्तु पूरी तरह नीति के अनुरूप लागू नहीं हो रहे हैं। 

राजनीतिक, प्रशासनिक इच्छा शक्ति की कमी हैं इसलिए उनका वांछित विकास नहीं हो रहा है। विकास प्रक्रिया का लाभ समाज के निचलने, पिछड़े, गरीब तबको को नही मिल रहा। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)