लेखक : डा.सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)
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प्रसिद्ध फ्रांसीसी बुद्धिजीवी आन्द्रे मालरा ने प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के साथ 1958 में हुई मुलाकात में नेहरू से पूछा ‘‘प्रधानमंत्री के तौर पर सबसे बड़ी चुनौती क्या लगती है?’’ नेहरू ने बेहिचक जबाब दिया ‘‘उचित तरीको से न्याय संगत राज्य की स्थापना’’ परन्तु थोडी झिझक के साथ रूककर कहा ‘‘शायद एक धार्मिक देश में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना उतनी ही बडी चुनौती है।’’
आजादी के 75 वर्ष बाद भी नेहरू का यह आदर्श हासिल नहीं हो सका। भारत दस्तावेजों में बेशक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, सभी धर्मो के नागरिकों को संवैधानिक सुरक्षा प्रदान की गई है परन्तु सामाजिक, राजनैतिक स्तर पर देखे तो धर्मनिरपेक्षता अभी भी एक आकर्षक विचार व रहस्य है। नये धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण का उदात्त सपना बिखर गया दिखता है। धर्मनिरपेक्षता का आदर्श झूंठा साबित हो रहा है। सहिष्णुता का झीना आवरण उतर चुका है। भारत ऐसा धर्मनिरपेक्ष देश बन गया है जिसका समाज धर्म के आधार पर बंटा हुआ है। सियासी तिकडमो के चलते साम्प्रदायिक नाराजगी पनप रही है। यहां तक कि समझदार व शांति प्रिय लोग भी सहिष्णुता का जहर उगल रहे है। हत्याओं और जघन्य अपराधों को अंजाम दे रहे है, नफरत को इज्जत बख्शी जा रही है। सहनशीलता व सद्भाव को चुनौती दी जा रही है। एकीकृत राष्ट्रीयता का नजरिया खत्म सा हो गया है। लेखिका अनिता नायर के अनुसार इसे धार्मिक कट्टरता कहा जा रहा है।
भारतीय संविधान का जन्म उदात्त आदर्शो में से हुआ था। दार्शनिक राजनेता एस.राधाकृष्ण ने दिसम्बर 1946 में संविधान सभा में कहा था ‘‘भारत के लोग चाहे वे हिन्दु हो या मुसलमान, राजा हो या किसान, सभी इस देश के नागरिक है, हमारे लिए यह मानना संभव नहीं है कि हमारी अलग-अलग पहचान है।’’
महात्मा गांधी धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। कभी राजनैतिक आचरण को धार्मिक नैतिकता से अलग नहीं माना। नेहरू धर्म को नितान्त निजी मामला मानते थे। सरदार पटेल व राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेता धर्मनिरपेक्षता को व्यवहारिकता का तकाजा मानते थे। इन्दिरा गांधी ने प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक तत्वों पर प्रहार किया, यह भी स्पष्ट किया कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह नहीं है कि अल्पसंख्यक लोग कानून का उल्लंघन करें। गरीब व वामपंथी मतदाताओ को साथ लिया। बंगलादेश का गठन हुआ, हिन्दु धार्मिक राजनीति की काट बनी रही।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता व्यवहार के स्तर पर हस्तक्षेप, तटस्थता और उदासीनता के पचडे में फंस गई। भारत में अब मजहब एक जहर बन गया। भाजपा ने सर्वानुमति को तोडा, हिन्दु वोट बैंक खडा करने की तैयारी की, आक्रामक अभियान चलाकर, अल्पसंख्यक कल्याण को तुष्टीकरण की संज्ञा देकर असंतोष उभारा, धर्मनिरपेक्षता के लिए छदृम धर्मनिरपेक्ष का जुमला गढा, मध्यमवर्गीय हिन्दुओं को आकर्षित किया। राम जन्मभूमि आन्दोलन से बेशक हिन्दु तबको व संगठनों को एकजुट किया। नतीजन तीखा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ, भाजपा अयोध्या आन्दोलन के कंधों पर सवार होकर सत्ता तक पंहुच गई।
सिर्फ हिन्दुओं में साम्प्रदायिकता नहीं फैली, साथ-साथ इस्लामी कट्टरता भी बढती गई। अपनी पहचान कायम रखने तथा बहादुरी दिखाने को उत्सुक युवाओं को इस्लामी कट्टरता में ही अपना भविष्य नजर आने लगा। इस्लामी तेवरो से एक समूचा समुदाय सक्रिय होने को मजबूर हो गया। साझा नागरिकता के लिए अनिवार्य शर्त यानि भाईचारा टूट गया। मुस्लिम समुदाय भी उग्रवादियों के हाथों में कठपूतली बनकर रह गया, अपना कोई भला नहीं कर रहा।
सुप्रिम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कुलदीप सिंह के अनुसार धर्मनिरपेक्षता को क्षमाप्रार्थी साम्प्रदायिकता में बदल दिया गया है। यह समझना होगा कि उस संस्कृति, विरासत और इतिहास से नाता नहीं तोड़ सकते। सामाजिक समरसता कई बुनियादी नियमों को मानने पर भी संभव है। कुछ नियम विविधता को मान्यता देते है, जैसे- खानपान, पहचान, भाषा, धर्म, राजनैतिक पसंद। असली सुरक्षा बहुसंख्यक समुदाय के सद्भाव में ही है। इसे सांझापन की न्यूनतम अनिवार्य मानना होगा।
धर्मनिरपेक्षवादियों की मान्यता है अच्छे नागरिक और राष्ट्रीयता की अंतिम परीक्षा संविधान का समान रूप से पालन करने में हैं। आरएसएस सरीखे संगठन व स्वाग्रही राष्ट्रवादी की मान्यता है धर्मनिरपेक्ष होने के बावजूद भारत एक हिन्दु राष्ट्र है। राष्ट्रगान को लेकर मुसलमानों की आपत्ति को दुराग्रह की मिसाल करार दिया जाता है। मजहबी फलसफे व जेहाद को मान्यता द्वारा कट्टरपंथी भाव उत्पन्न करते है। धार्मिक त्यौहारों पर नारों, जुुलूसों, एम्पलीफायर, नमाज, हनुमान चालिसा के नाम पर दंगे साम्प्रदायिक बदहाली की ओर इशारा करते है।
विश्वव्यापी मीडिया के युग में भारत में साम्प्रदायिक हिंसा महज देशी चिन्ता का विषय नहीं है जिसके नतीजे देश के लिए हानिकारक हो सकते है। बहुसंख्यकों को कोई शिकायत हो या अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस करे तो धर्मनिरपेक्षता नहीं चल सकती। सहिष्णुता, विश्वास, समानता और धार्मिकता अनिवार्य है, सभी खामियों के बावजूद इसे स्वीकार करना चाहिए। सद्भावना खुद नागरिको पर निर्भर है लेकिन दुर्भावना दूर करने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी होगी। इसमें बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक विध्वंस कार्य के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। सबको उचित और तत्काल न्याय की गारंटी मिलनी चाहिए। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने निजी विचार हैं)