11 अप्रेल (जन्म दिवस)
(लेखक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं)
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19वीं सदी में ज्योतिराव फुले प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने जातिवाद व वर्ण व्यवस्था पर प्रहार किया, निम्नवर्ग की सामाजिक, आर्थिक समस्याओं के निवारण हेतु शक्तिशाली आन्दोलन प्रारम्भ किया। उनके आन्दोलन और कार्यक्रमों का उद्देश्य सामाजिक समानता और सामाजिक न्याय की स्थापना कराना था। साथ ही दलित-शोषित समाज की मुक्ति को अधिक आवश्यक मानते थे । उनका सोच वर्ग भेद अथवा वर्ग संघर्ष नही था, वे निम्नवर्ग व नारीवर्ग को ज्ञानवान बनाकर संगठित करने में विश्वास करते थे। शुद्ध आचरण और कर्तव्य पथ पर निष्ठापूर्वक चलने को ही वे धर्म मानते थे। उनका कथन था कि ’’जातियां हिन्दु धर्म की नींव का पत्थर है,’’ जाति भेद, ऊंचनीच, छुआछूत, शोषण, वर्ग संघर्ष पर उन्होने तीव्र प्रहार किये। वे सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत और पितामह थे। सामाजिक व धार्मिक असमानता और दासता के विरुद्ध खडे होने वाले प्रथम व्यक्ति थे।
महात्मा फुले के दार्षनिक विचार महात्मा बुद्ध के दर्षन से प्रभावित है। उनके विचार सत्य, तर्क, औचित्य, सदाचार और नैतिकता पर आधारित है, उन्होंने अंधविश्वास, कर्मकाण्ड आदि का विरोध किया है व निरर्थक बताया है।
ज्योतिराव ने उनके साथ समाज में घटी घटनाओं से महसूस किया ’’जाति व्यवस्था इस देष के संगठित जीवन के लिए मुसीबत का कारण है, परन्तु उसे तोडना भी बहुत कठिन है, इसलिए उन्होंने निम्न जातियों के लिए ज्ञान के दरवाजे खेालने का दृढ निष्चय किया। शिक्षा के महत्व पर उन्होंने कहा ’’विधा के न होने से बुद्धि नही, बुद्धि के न होने से नैतिकता नही, नैतिकता के न होने से गतिमानता नही आई गतिमानता के न होने से धन-दौलत नही मिली, धन दौलत न होने सेष्षूद्रो का पतन हुआ और वे गुलाम होकर रह गये, इतना अनर्थ एक अविधा के कारण हुआ।’’
जिस समय देश में सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र मे सुधारात्मक आन्दोलन चल रहे थे व देश को स्वतंत्र कराने के प्रयास किये जा रहे थे,ज्योतिराव ने निम्न वर्ग के लिए अज्ञानता, पूर्वाग्रह, निरक्षरता, दासता से मुक्ति हेतु आधार तैयार किया। उन्होंने कहा था’’ किसी भी विचार मान्यता तथा परम्परा को केवल तर्क और बुद्धि की कसौटी पर ही स्वीकार करना चाहिए।’’ बुद्ध की तरह उनका आदर्श समाज, सत्य, न्याय व हर स्तर पर मैत्री, स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृभाव पर आधारित है। उनका दर्शन भौतिकवादी जीवन को सुखी बनाने पर आधारित है। वे स्त्री-पुरुष भेद के सख्त खिलाफ थे।
महात्मा फुले ने 1848 में पहली कन्या पाठशाला खोली वे विधवा-विवाह के समर्थक थे व बालविवाह के विरोधी थे। विधवाओं के अवेैध बच्चों के लालनपालन के लिए उन्होंने सन् 1863 में कार्य किया। विधवाओं की गुप्त तथा सुरक्षित प्रसूति के लिए प्रसूतिगृह खोला और उसमें जनमें विधवा के बच्चे गोद लिया। विधवाओं के मुण्डन को रोकने के लिए नाईयों को संगठित किया सन् 1879 में बम्बई में मिल मजदूरों का पहला संगठन बनाया और मजदूर आन्दोलन को षोषण के विरुद्ध लडने में सहायता की। जमीदारों के जुल्मों से पीडित किसानों की मदद की। कई ग्रंथ लिखकर षूद्रो और अतिशूद्रो में जागृति की और उन्हें मानसिक दासता से मुक्त कराने का प्रयास किया। अपनी पत्नि सावित्री बाई को घर पर पढा लिखा कर उसे पहली भारतीय महिला अध्यापिका बनाया।
उनकी लिखी प्रमुख पुस्तकों में किसान का कोडा, गुलामगिरी, अखण्ड, अछूतो की कैफियत आदि है जिन्होंने महाराष्ट्र में एक नयी विचारधारा बहाई व आन्दोलन खडा किया। ज्योतिबा फुले समता आन्दोलन के जनक, स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता के पोषक बने। वे अज्ञान, जातिभेद, स्त्रियों की दासता के विरोधी एवं स्त्री षिक्षा के समर्थक, अछूतोद्धार, व विधवा पुनर्विवाह के प्रबल समर्थक के रुप में सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत बने।
ज्योतिबा फूले ने ’’सत्य षोघक समाज का गठन किया जिसके चार प्रमुख सिद्धान्त हैं, ईश्वर हम सभी में व्याप्त है वह सर्वव्यापक है, सर्वषक्तिमान, निर्गुण, निर्विकार तथा सत्य स्वरुप है, प्रत्येक व्यक्ति को ईष्वर भक्ति का अधिकार प्राप्त है, उसके लिए किसी मध्यस्थता की आवष्यकता नही है, मनुष्य की श्रेष्ठता का प्रमाण उसकी जाति नही वरन उसके अपने गुण है तथा समाज में स्त्री पुरुष का दर्जा बराबर है, ऊंच-नीच की भावना व्यर्थ है,असमानता समाप्त होनी चाहिए।’’
अपने दर्शन को आम आदमी तक पहुंचाने के लिए लिखा है ’’समस्त प्राणियों, पेड पौधों, व वनस्पति, सौर मण्डल को निर्भिक ने पैदा किया। यह तथ्य समानता का धोतक है और यह भेदभाव को नही मानता। ’’ज्योतिराव ने बाल विवाह, बालहत्या व सती प्रथा की रोक को अत्याचार की पराकाष्ठा बताया। अछूतों के लिए पानी की व्यवस्था करने को सर्व प्रथम उन्होंने अपने पूर्वजो द्वारा निर्मित कुआ उनके लिए खेाला। ज्योतिराव ने नषाबन्दी हेतु भी अथक प्रयास किए।
उनके विचारों से प्रभावित डाक्टर अम्बेडकर ने कहा ’’राष्ट्रीय एकता का सिद्धान्त सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से मान्य व्यवहार के रुपों की ओर संकेत करता है। लोेगों के आचारण का मूल्यांकन अब राष्ट्रीय दृष्टिकोण के आधार पर होना चाहिए न कि किसी धर्म विषेष के साथ सम्बन्ध के आधार पर। स्वतंत्रता को समानता से अलग नही किया जा सकता और समानता को स्वतंत्रता से पृथक नही किया जा सकता। समानता के बिना स्वतंत्रता पर केवल कुछ लोगों, जाति-वर्गाे का अधिपत्य हो जायगा। सामाजिक एकता निष्चित रुप से हमारी राष्ट्रीय एकता के साथ जुडी है। जाति व्यवस्था हिन्दु समाज संगठन की एक विचित्र विषेषता है इसमें कर्मकाण्ड छुआछूत, प्रायष्चित, बहिष्कार, तिरस्कार आदि का विकास हुआ,दलित तथा पहाडी जनजातियां वस्तुतः हिन्दु समाज की परिधि से बाहर हो गई।’’
महात्मा फुले ने कहा था कि जाति व्यवस्था व सामाजिक असमानता ईष्वर निर्मित नही है मनुष्य निर्मित है और इसे समाप्त किए बिना अज्ञानान्धकार में हजारों वर्षाे से डूबे, दबे-कुचले, शोषितों, अछूतो और महिलाओं के जीवन में उजाला नही आसंकता। उनका कथन था मन, कर्म, और वचन से दीन हीन शूद्रो को छोटा और अछूत बताने वाला कभी गुणवान महिमावान व आदरणीय नही हो सकता चाहे उसका जन्म उच्च कुल व उच्च जाति में हुआ हो। न्याय, नीति, समानता, स्वतंत्रता, ज्ञान, संयम, क्षमा, षील ये ही धर्म के आधार है, इनका विच्छेद या वर्जन किसी के लिए भी उचित नहीं है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)