कर्नाटक : बीजेपी और हिन्दू ऐजंडा

लेखक : लोकपाल सेठी

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक) 

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यदयपि कर्नाटक में विधान सभा चुनाव अभी लगभग एक वर्ष बाद होने है, पर सत्तारूढ़ बीजेपी ने इन चुनावों में अपने हिन्दू ऐजंडे को अभी से अंतिम रूप देना शुरू कर दिया है। बीजेपी इन चुनावों में इसे मुख्य मुद्दा बनाने के रणनीति अपनाएगी। 

 लगभग नौ महीने पहले बीजेपी हाई कमांड ने येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटा बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया था। येद्दियुरप्पा बीजेपी के  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले नेता थे, उन्होंने ही  दक्षिण में इस राज्य में बीजेपी की जड़ें जमाई थे तथा सत्ता में लाया था। उन्हें पद से हटाने के कई कारणों में एक कारण यह भी था कि वे 77 वर्ष के हो चुके थे जबकि पार्टी के नियमों और परम्परा के अनुसार पार्टी का कोई भी नेता 75 वर्ष की उमर के बाद न तो संगठन में और न सरकार में किसी पद रह सकता है। बोम्मई, जनता दल की पृष्ठभूमि वाले नेता है लेकिन कई वर्ष पूर्व बीजेपी में आ गए थे। वे राजनीतिक परिवार से आते है। उनके पिता एस आर बोम्मई कभी राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके है। उनकी छवि एक ईमानदार नेता की है। 

जब पिछले साल के मध्य में उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया तो उनको साफ़ कह दिया गया था कि 2023 में होने वाले राज्य विधान सभा के चुनावों से पूर्व उन्हें पार्टी के हिन्दू एजेंडे को रूप देना है क्योंकि अगला चुनाव इसी एजेंडे पर लड़ा जायेगा। 

उन्हें तीन काम पूरे करने को कहा गया था। राज्य गोरक्षा कानून बनाना और धर्मांतरण विरोधी कानून लागू करना। बाद में इसमें सरकारी नियंत्रण और प्रबधन वाले बड़े मठों और मंदिरों को निजी हाथों का देने का एजेंडा भी जोड़ दिया गया। चूँकि सत्ता में आने के बावजूद बीजेपी के पास राज्य विधान मंडल के ऊपरी सदन विधान परिषद् में बहुमत नहीं था इसलिए येद्दयुरप्पा चाह कर भी गोरक्षा और धर्मांतरण विरोधी कानून पारित नहीं करवा पाए। जहाँ तक गोरक्षा कानून की बात है वह निचले सदन में तो पास हो गया था लेकिन अंतिम क्षण यह फैसला हुआ कि इसे विधान परिषद् में पेश नहीं किया जायेगा चूँकि जनता  दल(स) इस मुद्दे पर सरकार का साथ देने के लिए तैयार नहीं था।   

अब विधान प्ररिषद में बीजेपी का पास बहुमत है इसलिए मुख्यमंत्री बोम्मई ने पार्टी आल कमान को वायदा किया है कि वे गोरक्षा और धर्मांतरण विरोधी जैसे दोनों कानूनों के अलावा सरकारी नियंत्रण वाले मंदिरों और मठों को निजी हाथों में देने वाला कानून भी पारित करवा लेंगे। चूँकि गोरक्षा और धर्मांतरण  विरोधी कानून पर पहले ही किसी न किसी प्रकार से बहस हो चुकी है इसलिए सारा ध्यान सरकारी नियंत्रण वाले मंदिरों और मठों को निजी हाथों में देने पर केन्द्रित है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता है कि अन्य धर्मों की तरह हिन्दुओं को भी उनके धार्मिक स्थल का प्रबन्धन  करने का अधिकार होना चाहिए। 

दक्षिण में आजादी से पहले रियासतों में मंदिरों का प्रबंधन राजशाही के हाथ में था। राजकीय कोष से उन्हें धन दिया जाता था तथा इनमें पुजारी आदि की  नियुक्ति  राजपाट दवारा ही ही की जाती थी।  सारे चढ़ावे पर राजपाट का ही नियंत्रण रहता था। आजादी का बाद भी इस व्यवस्था को जारी रखा गया।  कर्नाटक में छोटे, बड़े ऐसे लगभग 35,000 मंदिर है जिसका नियंत्रण सरकार के धर्मस्थल प्रबंधन विभाग के पास है। मोटे तौर पर इन मंदिरों में वार्षिक चढ़ावा  लगभग एक लाख करोड़ रूपये सालाना है। इन मंदिरों को  को तीन श्रेणियों में  बांटा गया है। ए श्रेणी में वे मंदिर आते है जिनका वार्षिक चढ़ावा 5 लाख होता है। जिन मंदिरों का चढ़ावा 25 लाख है उनको बी श्रेणी में रखा गया। इससे अधिक चढ़ावे वाले मंदिर सी श्रेणी में आते हैं जिनका वार्षिक चढ़ावा  करोड़ों में है। मोटे तौर लगभग 170 ऐसे मंदिर है जो धनवान मंदिर हैं क्योंकि वहा चढ़ावा करोडो में आता है। बाकी मंदिरों का चढ़ाव  इतना कम है कि पुजारियों और अन्य कर्मचारियों का वेतन तथा रोज की आरती, पूजा सामग्री का खर्च भी नहीं निकलता। विभाग इनको  वार्षिक रूप से निर्धारित रूप से अनुदान देता है।

कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों का आरोप है कि इन मंदिरों को निजी हाथों, जिनमें निजी ट्रस्ट भी शामिल है, को सौंपना चाहती। उनको लगता है निजी हाथों में जाने से इन मंदिरों का प्रबन्धन उन लोगों के हाथ में आ जायेगा, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े है। उनका कहना है कि यह एक बड़ा षडयंत्र है ताकि राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के नियंत्रण में भारी मात्र में धन आ जाये जिसका वे अपनी मनमर्जी से उपयोग अथवा दुरूपयोग कर सकें। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)