श्रीमती इन्दिरा गांधी व लोकतंत्र : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)

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प्रधानमंत्री म्यूजियम में पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के चित्रों के आपातकाल का चित्रण कर उन्हें तानाशाह, लोकतंत्र विरोधी बताकर उनकी प्रतिष्ठा, देश के लिए किये गये प्रतिष्ठापूर्ण योगदान को कमतर करने की चेष्टा की गई है। यह सर्वथा अनुचित व अनैतिक है। संवैधानिक तरीकों को छोड़कर, असंवैधानिक तरीकों को अपनाकर जब राज्य सत्ता को गिराने का प्रयत्न किया जा रहा था तो श्रीमती गांधी ने संविधान प्रदत्त तरीका अपनाकर लोकतंत्र की रक्षा की थी।

1975 तक देश के शासन, सत्ता व कुर्सी से अभिशप्त, दक्षिणपंथी व कांग्रेस विरोधी दल इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले बाद, मुख्यधारा के अंग बनने के लिए सक्रिय होकर, देश में हिंसा, अनुशासनहीनता और अपराध को वातावरण बनाने लगे। 1974 में गुजरात में सरकार विरोधी आन्दोलन शुरू किया। लूटमार, दंगा फिसाद, खून खराबा, अनशन, घिराव आदि सब कुछ हुआ। 95 व्यक्ति मारे गये 933 व्यक्ति घायल हुए। सरकारी सम्पति का नुकशान हुआ, 15 राष्ट्रीयकृत बैंको पर हमले किये गये। निर्वाचित सरकार को जबरदस्ती गद्दी से खींचकर उतार देने की मिसाल कायम हो गई। विद्यार्थी समुदाय को सशस्त्र संघर्ष हेतु उकसाया गया। चिमनभाई मंत्रीमण्डल को बिदा लेनी पड़ी, विधानसभा भंग कर देनी पडी, इन्दिरा गांधी हटाओं का नारा दिया गया।

बिहार में विधानसभा भंग करने के लिए उग्र आन्दोलन शुरू किया। हिंसा आगजनी लूटपाट ने जनजीवन को आतंकित किया, विश्व विद्यालयों पर छात्रों का आधिपत्य हो गया, काॅलेजों में छात्रों ने अपना आचार्य नियुक्त करना प्रारम्भ कर दिया, विधायकों के साथ दुव्र्यवहार, समाचार-पत्रों के दफ्तर में आगजनी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, आनन्द मार्ग, जनसंघ द्वारा छात्रों को भड़काकर अराजकता का वातावरण पैदा किया गया। दुर्भाग्य से दक्षिणपंथी प्रतिगामी तत्वों को जयप्रकाश नारायण ने समर्थन देना शुरू कर दिया। राष्ट्रपति स्व. शंकर दयाल शर्मा चेतावनी भी दी, ‘‘निराशा में विभ्रम के शिकार जयप्रकाश नारायण प्रतिक्रियावादी तत्वों की गिरफ्त में आ गये। गांधीवादी थे परन्तु जनतंत्र के ढांचे को खत्म कर देने का षडयंत्र चला रहे, विवेकहीन राजनीतिज्ञ नई व्यवस्था कायम करने के नाम पर अव्यवस्था फैलाने को कृत संकल्प थे।’’ जयप्रकाश नारायण ने विषम परिस्थिति का निर्माण कर दिया।

राजनैतिक हालात समझकर नक्सलवादियों ने भी अन्य तत्वों की तरह अंधाधुन्ध मारवाड को अपना मूलयंत्र बना लिया। वातावरण फासिस्टवाद की दुर्गन्ध से भरने लगा। चीन के प्रमुख समाचार-पत्र ने घोषणा की ”भारत में एक क्रान्तिकारी वर्ग के अधीन ग्रामीण विप्लवियों ने सशस्त्र क्रान्ति का सूत्रपात कर दिया हैं। गांधीवादी व संसदीय प्रणाली तो केवल भारतीय जनता को बहकावे में रखने के लिए है।“

इन्दिरा गांधी द्वारा उठाये गये प्रगतिशील कदम उठाने से नाराज तत्वों ने कानून और व्यवस्था को चुनौती देना व सरकारी कर्मचारियों व सेनाओं को आदेश नहीं मानने को उकसाना प्रारम्भ कर दिया। बंगालदेश के मामले में अमेरिका की चेतावनी नहीं मानने से अमेरिका नाराज था और इन्दिरा गांधी को हटाना चाहता था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनाव रद्ध कर दिया परन्तु सुप्रिम कोर्ट ने कहा ‘‘श्रीमति इन्दिरा गांधी बाकायदा प्रधानमंत्री के रूप में काम कर सकती है।“ कांग्रेस व श्रीमति गांधी को संसद में बहुमत था फिर भी देशव्यापी खुला आव्हान व कानूनों का उल्लंघन किया जाने लगा। मोर्चा बना, मोर्चे ने मुठभेड़ की लम्बी तैयारी कर ली थी, मुकदमा तो संयोग मात्र था। संसद मे बहुमत व पूरी पार्टी का विश्वास होते हुए भी प्रधानमंत्री श्रीमति गांधी जिसे देश और करोड़ों नागरिकों के प्रति उत्तरदायित्व का वहन करना था, त्याग पत्र देकर राष्ट्र को अनिश्चितता के वातावरण में कैसे फैंक सकती थी? राजनीतिक स्थिति सामान्य होती और देश में एक सबल विरोध पक्ष होता तो त्यागपत्र दे सकती थी। संविधान के अन्तर्गत आपातकाल की घोषणा पर यह नहीं कहा जा सकता कि श्रीमति इन्दिरा गांधी तानाशाही की पोषक थी। उन्होंने भारत में लोकतंत्र को समाप्त करने का प्रयास नहीं किया। देश की अधिकांश जनता ने कहा था “इन्दिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर भारत को विनाश से बचा लिया।” छल प्रपंच का बोलबाला, विभिन्न दलों के अनैतिक गठजोड व अन्दरखाने समझौतो के आगे हथियार डालकर देश को खतरे में नहीं डाला जा सकता था।

आपातकाल तब लागू हुआ जब प्रतिपक्ष के मोर्चे ने 25 जून को खुला आव्हाहन किया कि कानूनों का देशव्यापी उल्लघंन किया जाय। पुलिस व आर्मी को आदेश नहीं मानने के लिए उकसाया और नागरिक अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने की घोषणा की। श्रीमति गांधी ने संविधानतर चुनौती का मुकाबला संविधान के अनुसार किया। संसद में कांग्रेस का स्पष्ट बहुमत, पार्टी का नेतृत्व में विश्वास, सुप्रिम कोर्ट की आज्ञा के बाद प्रधानमंत्री पद विवादास्पद नहीं था। दो वर्ष बाद ही श्रीमति गांधी ने स्वयं, बिना किसी दबाव के, चुनावों की घोषणा की और चुनाव में पराजित होने पर त्याग पत्र दे दिया।  

जयप्रकाश नारायण निराशा या भावुकता के कारण अथवा अपने समाप्त हो रहे नेतृत्व को जिन्दा रखने के लिए यह भूल चुके थे कि उनके साथ जो राजनीतिक दल थे उनका सम्पूर्ण दृष्टिकोण नकारात्मक तथा विनाशक था। जातिवादी, साम्प्रदायिक, सिद्धान्तहीन विरोध पर आधारित मोर्चा था। सामन्ती अवशेषो तथा प्रतिक्रियावादी राजनीतिज्ञों का ध्रुवीकरण व सांठ-गांठ हो चुकी थी। भारत के पड़ोस में हिंसक क्रान्तिया हो चुकी थी पूंजीपतियों का निरन्तर एकाधिकार ढह रहा था। अमेरिकी समाचार-पत्र बाल्टी मोरन ने भारतीय राजनीति पर टिप्पणी करते हुए लिखा था ”भारत आज राजनीतिक दिवालियेपन के निकट है, इन्दिरा सरकार का रूख वामपंथ की और है“ परन्तु फ्रांसिसी समाचार-पत्र फिगारों ने लिखा था ”इन्दिरा गांधी का चुनाव कराने का निर्णय ही उन पर लगाये गये तरह तरह के आरोपों को गलत सिद्ध करता है। स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव हुए। उनका इरादा आपात स्थिति लागूकर वंशानुगत शासन स्थापित करना या तानाशाह बनना नहीं था। इन्दिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा खूनी क्रान्ति की संभावना को टालने और लोकतंत्र व लोक को सर्वशक्तिमान बनाने के लिए की थी। इन्दिरा गांधी पर यह दोषारोपण नहीं किया जा सकता कि भारत में लोकतंत्र को नष्ट किया और तानाशाही लाने का प्रयास किया।“ आपातकाल की घोषणा संवैधानिक थी या नहीं इस प्रश्न पर टीका टिप्पणी होती रहेगी, परन्तु इन्दिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर, स्वयं उसे हटाकर चुनाव कराकर, त्यागपत्र देकर लोकतंत्र को पल्लवित होने का अवसर ही दिया।

अनेक फैसलों के बाद यह जरूरी है व इन कानूनों को रद्ध किया जाए। मीडिया, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, छात्रों प्राध्यापकों के विरूद्ध सख्त फौजदारी मुकदमें बने है, उन्हें वापिस लिया जाए। अघोषित आपातकाल तो घोषित आपातकाल से भी अधिक लोकतंत्र के लिए चुनौती हैं। सरकार के खिलाफ बात करना भी राजद्रोह माना जाकर दण्डनीय कार्यवाही की जा रही है।

लोकतंत्र की एक कसौटी जवाबदेही है लोकतंत्र दो चुनावों के बीच अदृश्य नहीं हो जाता। अच्छा राजकाज मुहैया कराना नैतिक जिम्मेदारी है, नाकामियों या गलतियों का विरोध करना भी संवैधानिक अधिकार हैं परन्तु स्पष्ट राजनैतिक बहुमत, संसद के विश्वास को भुलाकर अवैध असंवेधानिक चुनौतियों के आगे नहीं झुका जा सकता था। आपातकाल समय की मांग व आवश्यकता थी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)