मजदूर दिवस : श्रमिक कानूनों में बदलाव : डा. सत्यनारायण सिंह

1 मई मजदूर दिवस

लेखक : डा. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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वैष्वीकरण, आर्थिक उदारीकरण, लिबरल पूॅजीवाद व स्वतंत्र अर्थ व्यवस्था का शुरूआत हो चुकी है। कामगार व मजदूरों के संगठन दिन व दिन कमजोर होते जा रहे हैं। बडे औद्योगिक घरानों के दबाव में मजदूरों के हितकारी कानून, इण्डस्ट्रीयल डिस्प्यूट एक्ट, फैक्ट्रीज एक्ट, कॉन्ट्रेक्ट लेबर एक्ट आदि में बुनियादी संशोधन किये जा रहे हैं।

अब तक किसी भी उद्योग को जिसमें 100 अथवा अधिक मजदूर/स्टाफ कार्यरत था उसको बगैर सरकार की इजाजत बन्द नहीं किया जा सकता था अथवा छटनी व कमी नहीं की जा सकती थी। अब इस संख्या को बढ़ाकर 300 से अधिक किया जा चुका है, फलस्वरूप 95 प्रतिषत औद्योगिक घराने बगैर राज्य सरकार के अनुमोदन के बन्द किये जा सकते हैं अथवा उनमें छटनी की जा सकती है। श्रम कानूनों को चार कोड के भीतर समेटकर उन्हें इस तरह बदल दिया गया कि मालिकों को मजदूरों और कर्मचारियों के शोषण की ओर ज्यादा कानूनी अधिकार हासिल हो जाये। यह व्यापक बदलावों का हिस्सा है, देशी विदेशी कंपनियों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए अपने मजदूरों की मेहनत को उनकी आजीविका को और उनके जीवन को गिरवी रखा जा रहा है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार अकेले महाराष्ट्र में 41000 इकाइयों से 39000 इकाईयाॅ बगैर इजाजत के कदम उठा सकती हैं। अकेले महाराष्ट्र में औद्योगिक घरेलु उत्पाद 2013-14 में 2267 मिलियन था, गुजरात में 1500 मिलियन से ऊपर था, तमिलनाडू में 1200 मिलियन के करीब था। बहाना नुकसान को कम करने का होगा, वास्तविकता में उद्देष्य वर्कर के हक को छीनना और बेरोजगार करना होगा। फैक्ट्री एक्ट में 10 वर्कर्स पर सेफ्टी नियम आवष्यक थे अब यह प्रावधान 20 से अधिक संख्या पर लागू होगा। कोन्ट्रेक्ट लेबर एक्ट में 20 वर्कर्स पर लेबर से सम्बंधी कानून/प्रावधान लागू होते थे जो अब 50 से ऊपर वर्कर्स होने पर लागू होंगे। 300 वर्कर्स की यूनिट में भी यूनिट बन्द करने अथवा छटनी करने की स्वतंत्रता दी गई है। जहाॅ किसी वर्कर को नोकरी के प्रत्येक साल 60 दिन का कम्पनसेषन दिया जायेगा। यह सब मेक इन इण्डिया केम्पेन को सफल बनाने व उद्योगपतियों व व्यवसाइयों मंे विष्वास जागृत करने की दृष्टि से उपयुक्त बताया जा रहा है। एनएसएसओ के मुताबिक 2012 के बाद बेरोजगारी व कर्ज में वृद्धि हुई है। देश में 62.3 करोड़ गरीब होने का आंकड़ा है। न्यूनतम जीवनस्तर बनाये रखना मुश्किल हो गया है।

वैष्वीकरण आर्थिक उदारीकरण में गरीबी निवारण को भुलाया जा रहा है। 1990-91  के दौरान देष की 37 प्रतिषत जनसंख्या गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बसर करने पर मजबूर थी, प्रति व्यक्ति सकल घरेलु उत्पाद की विकास दर 3.2 प्रतिषत थी। 2003-4 में भी ग्रामीण क्षेत्र में 25 प्रतिषत आबादी गरीबी की रेखा के नीचे थी 23.95प्रतिषत शहरी क्षेत्र में थी, 1990-91 में जब 84 करोड़ आबादी थी तब 31 करोड गरीबी रेखा के नीचे थे। 107 करोड़ की आबादी पर 26 करोड़ हैं। यह ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक सुधार से हुआ परन्तु 2008-9 में खाद्यान्नों की पैदावार कम होने के कारण खाद्यान्नों की कीमत बढ़ी, 2020 तक देश की जनसंख्या के लिए 36 करोड़ टन अनाज की आवश्यकता होगी। 2007-8 में देष में कुल 21 करोड टन का उत्पादन हुआ। खाद्यान्नों की कीमत व आयात बढ़ रहा है सरकार ने उद्योग व्यवस्था को बेल आउट पेकेज दिया गया है, कृषि को नहीं।

बंधुआ मजदूरी पर रोक लगाने के लिए 1975 में कानून बना परन्तु उसकी पूर्णतः पालना नहीं हो सकी। बंधुआ मजदूरों से 10 से 12 घण्टे  काम कराया जाता है। इसके लिए खाने के अलावा न तो पैसा मिलता है और न ही छुट्टी मिलती है। सरकारी एलान के अनुसार 1980 में एक लाख 20 हजार बंधुआ मजदूरों को आजाद कराया गया। 19 प्रदेशों में 2,86,000 से अधिक बंधुआ मजदूरों की पहचान की गई व मुक्त कराने का दावा भी किया गया परन्तु उत्तर प्रदेश में 28 हजार 385 में से केवल 85 बंधुआ मजदूरों को  पुनर्वासित किया गया। जबकि शेष 18 राज्यों में एक भी मजदूर पुनर्वासित नहीं किया गया। देष में सबसे जयादा बंधुआ मजदूरों को कर्नाटक 63000 व उड़ीसा से कराया गया परन्तु सच्चाई यह है कि आज भी बंधुआ मजदूरों से काम करवाया जा रहा है। बंधुआ मजदूरी कायम है इन्हे पुनर्वासित करने में किसी राज्य सरकार की इच्छा नही है। केन्द्रीय बजट में शिक्षा स्वास्थ्य, कृषि, ग्रामीण विकास आदि में 92000 करोड रूपये की कटोती की गई है। इन्द्रा आवास, सर्व षिक्षा अभियान, महानरेगा, मिड डे मील आदि दर्जनों योजनाओं में केन्द्र से पैसा कम मिलेगा। सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में योजनाओं में की गई कटोती करने से गरीबों, लघु कृषको व मजदूरों के कल्याण और विकास पर विपरीत प्रभाव पडेगा। महानरेगा से खेतीहर मजदूरों की आय व मजदूरी में वृद्धि हुई वह योजना भी अब खतरे में है।

2017-2018 में देश की श्रम शक्ति का 3 करोड़ अथवा 6.1 प्रतिशत श्रम शक्ति बेरोजगार थी, 2019 में अर्थव्यवस्था की हालत बिगड़ने से 4 से 5 करोड़ और बढ़ गई है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को अलविदा कर दिया गया है और पब्लिक सेक्टर यूनिट के कर्मियों को हतोत्साहित किया जा रहा है। मोदी सरकार ने प्राईवेटाइजेशन पर भरोसा किया है। सरकार देश की असंगठित क्षेत्र व शहरी श्रमिकों की कमजोरियों, समस्याएं दूर करने की तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

14 साल से कम उम्र के बच्चों से काम कराने की अनुमति नहीं है । भारत की कुल जनसंख्या का 42 प्रतिषत 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों का है। 2000 से 2005 के बीच 100 रूपयों में से औसतन 3 पैसे बच्चों की सुरक्षा पर खर्च किये गये, बाल स्वास्थ्य के हिस्से में 40 पेसे व बाल विकास पर 45 पैसे, प्रारम्भिक षिक्षा पर 1.45 रू खर्च हुए। सरकार ने भोजनालयों, ढ़ाबों तथा घरों व फैक्ट्रियों में बालश्रम को प्रतिबन्धित किया है परन्तु गरीबी एक सच्चाई है। परिवार के लिए जीवकोपार्जन करने वाले व्यक्ति के पास रोजगार नहीं है। भोजन सबको चाहिये, मजबूरन बच्चों को काम करना पड़ता है। बाल मजदूरी सम्बन्धी कानून में भी संषेाधन किया जा रहा है।

असंगठित क्षेत्रों में न्यनतम मजदूरी व काम की दषाओं में सुधार पर अब कोई ध्यान नही है। वैष्वीकरण के इस युग में ग्रामीण बच्चे विषेष रूप से असुरक्षित हैं। तमाम प्रयासों के बाबजूद बालिकाओं के मामले में हमारी स्थिति और भी अधिक खराब है। हमारे देष में ऐसे असंख्य उदाहरण है जिसमें असंगठित क्षेत्र में मजदूरों, बालक बालिकाओं, श्रमिकों का शोषण पाया गया है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का कोई धणी-धोरी नहीं है। किशोर अपराध बढ़ रहे हैं। सरकार को गम्भीर अपराधों में लिप्त किशोर की आयु को कम करना पडा है। अमीरी और गरीबी के बीच लगातार बढ़ती खाई अनेक जटिल समस्याओं व संघर्ष को जन्म दे सकती है। गरीब व गरीबी को मात्र ऐसा विषय बनाया जा रहा है जिसकी चर्चा जारी रहे। वर्तमान दौर में इण्डिया और भारत में बचपन व मजदूर मजबूर बना रहेगा। बाल मजदूरी बंधुआ मजदूरी अनसुलझी समस्याऐ बनी रहेगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)