विकास दर बनाम गरीबी और अपराध...!!

लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह

(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)

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आजादी के बाद केन्द्रीय सरकारों ने विकास को गति देने की चेष्टा की। विकास आर्थिक, सामाजिक, शैक्षीक, तकनीकी, वैज्ञानिक व औद्योगिक हर क्षेत्र में लाया गया। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा विकास कार्यो की रूपरेखा तैयार की जाती और उस पर अमल किया गया। 1950 से 2007 तक कुल 10 पंचवर्षीय योजनायें बनी, समय-समय पर वार्षिक योजनायें भी बनी। प्रथम पंचवर्षीय योजना 1951-56 में जहां विकास दर 3.60 थी, दसवीं योजना में 2002 से 2007 में यह 8 फीसदी हुई। ग्यारहवी योजना 2007 में 9 प्रतिशत का लक्ष्य रखा गया। भारत विकासशील से विकसित देश के पायदान पर आ गया।

विनिर्माण उद्योगों, सूचना तथा प्रोद्योगिकी, विज्ञान, हर क्षेत्र में देश आत्मनिर्भरता तक पंहुच गया। विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारत की विभिन्न परियोजनाओं में धन लगाना प्रारम्भ कर दिया। उच्च विकास दर का प्रभाव चिकित्सा, शिक्षा, यातायात, उद्योग, व्यापार क्षेत्रों पर पड़ा। देश का प्रत्येक कोना व वर्ग प्रभावित हुआ। गांव-गांव, घर-घर में टेलीफोन, मोबाइल, टेलीविजन, कम्प्यूटर पंहुचा। प्रत्येक क्षेत्र में उपयोग बढ़ा, रोजगार सृजन हुआ, गरीबी, बेरोजगारी उन्मूलन में सहायता मिली।

गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, ग्राम विकास व समृद्धि योजनायें, आवास योजनायें, स्वरोजगार योजनायें बनी, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, ऊर्जा के विकास, हेतु कार्यक्रम बने, कार्य हुआ। सरकार का ध्यान गांव व कृषि पर गया, हरित व दुग्ध क्रांति हुई। 1973-74 में जो गरीबी की दर 54.9 प्रतिशत थी वह 1993-94 में 36 प्रतिशत व 2005 में 27.5 प्रतिशत हो गई। 2007 में प्रति व्यक्ति आय 25500 वार्षिक हो गई जो 1993-94 में 13000 थी। गरीबी में कमी आयी परन्तु धीरे-धीरे उदारीकरण, निजीकरण, औद्योगिकरण को बढावा मिला परन्तु आवश्यकतानुसार गांव व कृषि व्यवस्था पर ध्यान केन्द्रित नहीं रहा। गांव व ग्रामीणों को विकास का लाभ कम हो गया, कृषि की विकास दर में गिरावट आने लगी। पूंजी का अभाव व पैदावार में कमी, उत्पादन लागत में वृद्धि, विपणन मूल्य में कमी स्पष्ट दृष्टिगत होने लगी।

गरीबी को दूर करने के मूलतः तीन रास्ते है ‘‘शिक्षा, रोजगार, अन्न व मूलभूत वस्तुएं’’। उच्च विकास दर का फल गरीबी उन्मूलन में तभी आयेगा जब शिक्षा का उपयोग रोजगार सृजन में बेरोजगारी भगाने, मांग से अधिक अन्न उपजाने, तकनीक विकास में होगा। रोजगार के अवसरों में बढ़ावा देकर अप्रत्याशित समय में गरीबी को कम करना होगा।

देश ने अरबपतियों को पैदा किया है, उनकी संख्या बढ़ रही है, उनकी पूंजी धन संपत्ति बढ़ रही है, आय बढ़ रही है। आयकर दाताओं की संख्या में इजाफा हुआ। सवाल यह है कि विकास का लाभ उदारीकरण, निजीकरण की नीतियों से किसको मिला। भारत में 10 प्रतिशत रोजगार ही संगठित क्षेत्र में है, बाकी 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में है। इसमें अनस्किल्ड लेबर्स का रोजगार सृजन 5 प्रतिशत हुआ है। गरीब और गरीब हो रहे हैं, अमीर ज्यादा अमीर हो रहे हैं।

हमारी अर्थव्यवस्था ने आज जो स्थिति प्राप्त की है वह उद्योग व सेवा क्षेत्र के जरिये है, राष्ट्रीय उत्पादन में इनका हिस्सा 78 प्रतिशत है। इन सभी क्षेत्रों से जुड़ी आबादी, संगठित, असंगठित सभी महज 45 प्रतिशत है जबकि 65 प्रतिशत लोग खेती से जुड़े है। कृषि में रोजगार वृद्धि की दर महज डेढ फीसदी है। गांवों में बढ़ रही बेरोजगारी की दर ढाई फीसदी है। कृषि की बदहाली से किसान इसे छोड़ रहे है, कृषि कार्य मंहगा हो रहा है। सार्वजनिक, निजी निवेश, बहुत कम हुआ, तकनीकी प्रगति नाममात्र की हुई है। उदारीकरण का प्रभाव छोटे व मझौले उद्योगों पर बुरी तरह पड़ा है। ग्रामीण इलाकों के पारम्परिक उद्योगों के बंद होने से बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि हुई है। गांवों में 5 से 6 करोड़ बेरोजगार है, 1990 की तुलना में 300 प्रतिशत ज्यादा हो गई है।

बेलगाम बढ़ती आबादी, अशिक्षा, जनसंख्या विस्फोट के कारण आधारभूत सुविधायें भी नहीं मिल रही। संयुक्त राष्ट्र द्वारा गरीबी को परिभाषित किया गया है। भोजन, आवास, वस्त्र, शौच, शिक्षा, चिकित्सा, शुद्ध पेयजल, रोजगार आदि में तीन सुविधाएं जिसके पास नहीं है वह गरीब है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की 32 प्रतिशत जनसंख्या प्रतिदिन 20 रूपया भी खर्च नहीं कर पाती। भारत के 40 प्रतिशत परिवार एक कमरे में रहते है, साक्षरता में वृद्धि हुई परन्तु शिक्षितों की संख्या में ज्यादा वृद्धि नहीं हुई। भारत में करोड़ों लोगों को शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं होता, चिकित्सा मुख्य एजेन्डे में नहीं है।

गत वर्षो में वर्तमान सरकार की नीतियों व कदमों से आज भारत की गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या सन 1951 की संख्या के नजदीक पंहुच गई। उंची विकास दर खोखली है, रोजगार की ज्यादा संभावनाएं, ज्यादा मूलभूत विकास, लोगों के हाथों में ज्यादा पैसा और उपभोक्ताओं के पास ज्यादा अवसर नहीं है। विकास पूर्णतया असंतुलित है। गरीब भूखे पेट, कुपोषित लोगों में असंतोष के साथ अपराध भी बढ़ रहे है। लोगों को रोजगार, रोजगार की सही कीमत मिले तभी उंची विकास दर होने का मतलब साबित होगा। विकास संरचना में सामाजिक संरचना शामिल नहीं है। भौतिक पूंजी के साथ मानवीय पूंजी का विकास आवश्यक है, समता की नीति की पालना आवश्यक है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)