धार की उम्मीदें युवाओं से...!
लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी है)
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देशभर में महिलाओं के साथ यौन उत्पीडन व छेडछाड की घटनाओं की खबरों की बाढ़ सी आई हुई है। महिलाओं और बच्चियों का अवैध देह व्यापार भी आज कुछ चुनिन्दा इलाकों से बाहर निकलकर व्यापक संगठित अपराध का रूप ले चुका है। दुनियाभर में बच्चों की घृणित तस्करी जारी है। सैक्स बाजार ने बच्चों को भी एक वस्तु बना दिया है। भारतीय जीवन का कटु सत्य बलात्कार भयावह आयाम लेता जा रहा है।
वैज्ञानिक मानते है कि बच्चे अपने परिवेश से कल्पनाएं लेकर फैंटेसी चुनते है, गुस्सा करना, हिंसक होकर बदला लेना, फिल्मों, टेलीविजन पर देखे जाने वाले दृश्य उन्हें यौन विकृति का शिकार बनाते है। नेट का संसार अनजाने ही इन्हें बहुत सी ऐसी जानकारियों दे देता है जो मन को गुदगुदाती है, कौतूहल जगाती है, अनजानी दुनिया में पंहुचाकर उनके नैतिक मूल्यों का ह्रास करती है। पति पत्नि के रिश्तों की परिणति बच्चों पर हिंसा के रूप में होती है, हस्र भयाभव होता है। बाल मजदूरी का धिनौना रूप बाल वैश्यावृति है।
असंगठित क्षेत्र में कार्यरत बच्चों में होटल, ढाबा, फैक्ट्री, दुकान, वर्कशाप, हाकर, कचरा चुनना, घर में मजदूरी, नौकरी का काम बालकों को यौन अपराधों में धकेल रहा है। औरत की इज्जत, लिंग भेद और पूर्वाग्रहों के कारण शहरों में अब भी महफूज नहीं है। टीवी व म्यूजिक विडियो पर अश्लील तस्वीकों को बड़े मजे से पचाया जा रहा है। परम्परागत ढांचा टूट रहा है, सीमायें पार की जा रही है। अकेली असुरक्षित नौकरी व आसरा ढूंढती महिला सहज शिकार होती है परन्तु जो लड़कियां देर रात तक बाहर नहीं रूकती, ढंग के कपड़े पहनती है, सतर्क रहती है। जो महिलायें समझती है पुरूषों जैसा अधिकार नहीं है, उनके जैसे व्यवहार करने का अधिकार नहीं है, सुरक्षित रहती है।
न्यायिक व्यवस्था में भी बलात्कार के प्रति पूर्वाग्रह झलकते है। पीड़ित को शुरू में ही शक के दायरे (कठघरे) में खड़ा किया जाता है। पुरूष को अक्सर उसकी सुस्त चाल के लिए दोषी ठहराया जाता है। बलात्कार के केवल 10 फीसदी मामलों में ही सजा मिल पाती है। कई बार पीड़ित पक्ष को अंतिम समय पर मुकरने पर मजबूर होना पड़ता है, अपराधी बच जाता है। बलात्कार को परिवार के सम्मान या शुद्धता, अशुद्धता की भावना से जोड़ दिया जाता है।
बालीवुड में अभिनेत्रियों की ऐसी जमात उभर आई है जो किसी तरह की वर्तनाओं की सम्मान नहीं कर व मुम्बईया फिल्मों में नायिकाओं के बोल्ड व बिंदास होते रंग ढंग और तेवर शोहरत की खातिर बदलते नैतिक मूल्यों के दौर में हर तरह की छूट लेने की ओर युवक युवतियों को आकर्षित कर रही है। भड़काउ दृश्य व संवाद समाज के नैतिक मूल्यों को नजरअंदाज कर रहे है।
भारतीय सिनेमा इतना आगे निकल गया है कि युवक युवतियों के मन मस्तिष्क को प्रदूषित कर रहा है क्योंकि वे इतने परिपक्व नहीं है कि उसे केवल पर्दे के सीन समझ सके। अस्सी के दशक में जैसा जलवा बुटिक का था, नई सहत्राब्दी में रही स्थिति मौज मजे के आयोजन के प्रबंधन की है, पार्टीबाजी महानगरों की जिन्दगी का एक अभिन्न अंग बन गई है, नियमित पार्टीबाज, पूर्व माॅडल और सोशलसाइट इस चलन को जमकर भुनाने में जुटे है। नई सदी में महानगरों में बात-बात पर पार्टियां देने के शौकीन अमीरों की कृपा से समारोह आयोजन कारोबार उफान पर है। कारोबारों में एक नया पेशेवर तबका उभरा है जो खुद को इवेंट आर्गेनाईजर कहते है।
ग्राहक अपनी पार्टी के जरिये अपनी बात रखना चाहता है, नफीस तरीके से बेहतर, जिसे देखकर टीवी व वीज्युअल देखकर, पढ़पढ़ कर काफी नफीस हो गये है, एकदम खास चीजें चाहते है। धासू पार्टियां की जा रही है, उसमें कोई भी दिख सकता है, पैसे वाला भारत युवक युवतियों को अभिभूत कर रहा है। महानगरों में मजे की जिंदगी जीने के लिए अतिरिक्त कमाई करने को किसी भी हद तक जाने वाले युवाओं की कमी नहीं है। भारत का युवा और साधन संपन्न शहरी तबका मौज मस्ती वाली पार्टियों में कोकीन जैसे मादक पदार्थ लेने लगे है। हर शहर में ऐसे दीवाने मिल जायेंगे जो पीकर सामान्य रह ही नहीं पाते। आर्थिक उदारीकर के दौर में तरह-तरह की वाइन और शराब की भरमार है। अमीरजादों की एक पूरी पीढ़ी शराब के नशे में शहरों व कस्बों तक में मिल जायेगी।
विज्ञापन के जादू ने डेढ दशक में हर क्षेत्र में भारतीय समाज में वर्जनाएं तोड़ी है। पहले मध्यम वर्ग सहम-सहम कर पीता था, छुप छुपकर अपराध बोध से पीता था, आज स्थिति भिन्न है। युवाओं में नव उदारवादी नफासत का प्रतीक है शराब।
यौन शोषण के लिए महिलायें स्वयं भी जिम्मेदार है। दृढ इच्छा शक्ति की कमी भी कई बार कामकाजी महिलाओं की शत्रु बन जाती है। इच्छा शक्ति की कमी के कारण महिलायें अनजाने में उन सबके लिए तैयार हो जाती है जो उन्हें नहीं करना चाहिए। बोस ओवरटाइम का बहाना कर रोकते है। अतिरिक्त वेतन वृद्धि, सुख सुविधाओं, प्रमोशन, अच्छी नौकरी की गिरफ्त में न आने पर उन पर दबाब डाला जाता है व डर दिखाया जाता है। महिला कुछ महत्वाकांक्षी हो तो जाल में फंस जाती है। देश विदेश की यात्रायें, पंच सितारा होटलों के आराम, मंहगे उपहारों का आकर्षण, आर्थिक कमजोरी, नौकरी की मजबूरी, विवशता, साहस की कमी के साथ महिला का उन्मुक्त आचरण, ना समझी भी जिम्मेदार है। आवश्यकता से अधिक फैशन, भडकाऊ व तडक भडक वाली वेशभूषा भी उनकी परेशानियों का कारण बन रही है। परिवार जैसी संस्था के मूल्य और सुरक्षा सवालियां घेरे में आ रही है।
यौन उत्पीडन के अनगिनत मामले, महिलाओं के खिलाफ अपराध, लगातार बलात्कार के मामले बढ़ रहे है। अपराधों में लगातार इजाफा हो रहा है, पुलिस के लाख प्रयासों के बावजूद इन पर अंकुश नहीं है। पुलिस रिकार्ड के अनुसार बलात्कार के आधे से ज्यादा मामलों में परिचितों, सहकर्मियों, रिश्तेदारों या पड़ौसियों की कारगुजारी सामने आ रही है, जीवनशैली भी जिम्मेदार है।
जरूरत से ज्याद उच्छृंखलता, आधुनिकता के नाम पर फूहडपन, अत्यधिक स्वतंत्रता खुद खतरे को आमंत्रित करती है। हम पुरानी संस्कृति को भूल गये है, मार्डन कहलाने के नाम पर सारी चीजें करते है, इस प्रकार की आधी अधूरी छूट से समाज में विकृतियां आना स्वाभाविक है। दृश्य माध्यमों से समाज में विकृतियां परौसी जा रही है जो युवा मन में आपराधिक प्रवृत्ति को जन्म दे रही है। महिला अधिकारों का गलत इस्तेमाल हो रहा है।
बच्चियों के साथ बहशियाना व्यवहार करते है, अखबारों में सुर्खिया मिलती है, प्रचार होता है, सरकार और पुलिस प्रशासन गंभीर नहीं है, न्यायिक प्रक्रिया व पुलिस प्रक्रिया को जिम्मेदार ठहराते है। घिनौने से घिनौना कृत्य कर साफ निकलने के लिए पुलिस प्रशासन को दोषी ठहराते है, सही है कई मामलों में रक्षक ही भक्षक बन रहे है। छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार के कई मामले प्रकाश में आये है, रिश्तेदार व पड़ौसी दुश्मन साबित हो रहे है, प्यार की आड में बलात्कार हो रहे है। एक समाजशास्त्री के अनुसार वर्तमान वातावरण में कुंठा पैदा हो रही है, वे लड़कियों का सानिध्य बलपूर्वक प्राप्त करना चाहते है। इस प्रकार कई व्यक्तिगत व सामाजिक कारण हो सकते है इसलिए पुलिस प्रशासन को चोकन्ना होना ही पड़ेगा। बलात्कार के मामले सामने आने पर लोगों को कानून व्यवस्था पर सवाल उठाना ही होगा परन्तु सामाजिक वातावरण को समाप्त किये बगैर। सामाजिक कार्यकर्ता, विरोध पक्ष के भडकाउ नेता इन मुद्दों पर बेहद सक्रिय देखे जाते है। मंचों पर एकत्रित होकर घटनाओं पर लगाम लगाने की मांग करते है, राजनीति करते है।
यह भी सही है कि पूर्व के मुकाबले अब लोग ज्यादा मामले प्रकाश में लाने लगे है। कानून व्यवस्था व न्यायपालिका में विश्वास है, पुलिस रिपोर्ट करने लगे है। आवश्यकता है इस विश्वास को बनाये रखने के लिए पुलिस निष्पक्ष व शीघ्र जांच कर दोषियों को पकड़े व न्यायपालिका स्पीडी ट्रायल से उन्हें सजा दिलवाये। न्याय व्यवस्था यदि ऐसे मामलों को मुस्तैदी से हल करेगी तो महिलाओं में सुरक्षा की भावना बढ़ेगी। बलात्कार महिला को पुरूष विरोधी बना रहा है। बच्चों के प्रति अपराध, शोषण, देह व्यापार, उनकी खरीद फरोख्त समाज व्यवस्था के सही हालात बयां करते है। सरकार व सिविल सोसायटी की ओर से पूरी सजगता साथ कार्यवाही करनी होगी। अधिक धन कमाने की भावनात्मक समस्या को छोड़ना होगा।
लड़कियों व महिलाओं को शारीरिक शिक्षा देनी होगी। संगठित अपराधियों पर जोरदार प्रहार की दरकार है। बालिकाओं व बच्चे की प्रति उपेक्षा समाप्त कर उन्हें कुसंगत से बचाना होगा, बच्चों को अनुशासित रखने के प्रयास बढ़ाने होगे। बाल न्यायालयों को अधिक सक्रिय करना होगा, पुलिस व व्यवस्था को समाज के प्रति जिम्मेदारी के कारगर करना होगा। राजनेताओं को राजनीति करने के बजाय सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर विचार करना चाहिए, महिला सशक्तिकरण के लिए आगे आना चाहिए। आर्थिक रूप से आजाद अकेली महिलाओं की एकता ही उन्हें शक्तिशाली और सुरक्षित बना सकती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)