लेखक : डाॅ. सत्यनारायण सिंह
(लेखक रिटायर्ड आई.ए.एस. अधिकारी हैं)
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75 साल बाद भी यह सवाल अपनी जगह कायम है कि साधारण जन के जीवन में इस आजादी का अर्थ क्या है? हमारा ध्यान जब उन स्वप्नों, आदर्शो, मूल्यों और उद्देश्यों से पर जाता है, जिनके लिए स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी गयी थी तो लोकतंत्र, समता, बहुलतावाद, सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों व पंडित जवाहलाल नेहरू के ’नियति से साक्षात्कार‘ की नियति को जानने की इच्छा होती है, जो इस बीच हमारे राजनीतिक तंत्र में लगातार घटती गयी है। सन् 1947 में हासिल आजादी दरअसल हमें उपलब्ध है अथवा नहीं, इसके लिए आत्म-निरीक्षण जरूरी है। कभी-कभी व्यक्त किए जाने वाले सरोकारों को छोड़कर अब हमारी राजनीतिक आजादी की सार्थकता, आत्म-प्रवंचना की शिकार है। देश का बुद्धिजीवी वर्ग भले ही अधूरी आजादी, आंतरिक औपनिवेशीकरण, नवऔपनिवेशीकरण, इंडिया बनाम भारत जैसी परिघटनाओं को लेकर चिंता व्यक्त करता रहता है।
ऐसा नहीं कि इस बीच भारत ने विकास नहीं किया। दरअसल विकास ही हमारे लोकतंत्र का इतना प्रमुख मुद्दा बना कि उसने आजादी के पर्याय का भी रूप ले लिया। इस विकास के बल पर देश दुनिया के नक्शें में सम्मानित जगह बना सका और अर्ध-विकसित की सीढ़ी से उठकर विकासशील देश की श्रेणी में आ गया। दूसरी और साम्प्रदायिक किस्म के हिंदुत्व और उपभोक्ता बाजार के इतने अतिरेक पैदा हो गये, कि भारत में विकास के पर्दे में छिपी दारूण सचाइयों की और से सभी ने आंखे मूंद ली। इसका संदेश भी अब साफ है एकांगी किस्म के आर्थिक विकास और मध्यवर्ग की समृद्धि की आड़ में समाज की बुनियाद में बढ़ रही समस्याओं और संकटों को देर तक अनदेखा नहीं किया जा सकता।
महात्मा गांधी ने कहा था ”बड़े बलिदान अैर कष्टों को झेलने के बाद राष्ट्र का उदय हुआ है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के अन्र्तगत निर्बल को भी सबल के समान अधिकार मिले, लोकतंत्र में हमे यह अधिकार सुनिश्चित करना है।“ अर्ध-विकसित से विकासशील बने भारत की एक बड़ी विडबना यह रही है कि तरक्की का जो ढांचा अपनाया जा रहा है और अंर्तराष्ट्रीय बाजार व्यवस्था के दबाव मं उसने जो रूप अख्तियार किया है, उसके कारण समाज में कई तरह के विभाजन हो गये है। देश के भीतर ही औपनिवेशीकरण की प्रक्रियाएं शुरू हुई है। एक संपन्न भारत अपने ही एक बड़े हिस्से को विपन्न बनाने लगा है। एक तरफ तेजी से सम्पन्न होते वर्ग दूसरी तरफ साधारण लोग खेती के चैपट होने, भूख और कंगाली के चलते आत्म-विनाश का रास्ता अपनाने को मजबूर। अमीर तबके नव-उपनिवेशीकरण के वाहक भी बन गये। अमीर-गरीब का फर्क अपने यहां सबसे नग्न और अश्लील रूप में देखने को मिलता है।
आज भी सरकारी कार्यालयों और राजनीति के साथ चप्पे-चप्पे पर व्याप्त भ्रष्टाचार से आमजन परेशान हैं। भ्रष्टाचार एक ऐसी बेल है, जिसने सारे सरकारी तंत्र को जकड़ लिया है। इसके कारण सरकारी कार्यालयों में बिना रिश्वत दिए काम कराना बहुत ही मुश्किल हो गया है। सरकारी भर्तियों में भी हर कदम पर रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद, और पक्षपात होता है। वर्तमान दौर में देश के हर सरकारी महकमे में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। देश को सबसे पहले भ्रष्टाचार से आजादी की जरूरत है। इससे सरकारी दफ्तरों में कार्य निष्पादन की गति बढ़ जाएगी, विकास में गति आएगी।
गरीबी आज भी तरसती आंखों से दो जून की रोटी मिलने की उम्मीद की कोर्ठ किरण तलाशता है। हालांकि ऐसा भी नही है कि गरीबी बिल्कुल कम नहीं हुई। बेशक, देश में बड़ी संख्या में लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए है, लेकिन यदि हम गरीबी की पैमाइश के अंर्तराष्ट्रीय पैमानों की बात करे, जिसके तहत रोजाना 1.90 अमेरिकी डाॅलर यानी लगभग 130 रूपए खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है, तो देश की 21.30 फीसदी यानी लगभग 29 करोड़ से ज्यादा लोग गरीब है। वहीं जीवन प्रत्याशा, शिक्षा, प्रजनन दर, सकल घरेलू आय और मुद्रास्फीति जैसे पैमानों से मिलकर बने मानव विकास सूचकांक में हम 130 वें पायदान पर है। गरीब देशों के इंडेक्स में भी हम लगभग मध्य में यानी 84 वें स्थान पर है। समृद्धि सूचकांक में 142 देशों में से भारत 99 वें स्थान पर है।
गौरक्षा के नाम पर दलित/अल्पसंख्यक उत्पीड़न, दलितों के साथ हुए अत्याचार, ये बताने के लिए काफी है कि आजादी के 75 साल बाद भी हम जाति की मानसिक बेड़ियों में जकडे़ हुए है। इन्हीं सब घटनाओं का असर रहा है। कि विश्व शांति सूचकांक में हम 141 वें नंबर पर फिसल गए है। जबकि 2010 में 128 वें स्थान पर थे। पाकिस्तान को छोड़कर हमारे सभी पड़ोसी देश आगे है। भूटान 13 वें, नेपाल 78 वें, बांग्लादेश 83 वें, श्रीलंका 97 वें, म्यांमार 115 वें और चीन 120 वें स्थान पर है।
नशाखोरी बढ़ रही है नशाखोरी देश में गरीबी का मुख्य कारण हैं। वर्तमान दौर में देश का युवा नशे का शिकार होकर भटकाव की तरफ बढ़ रहा है तथा शिक्षा और करियर से परे होता जा रहा है। नशे के शिकार लोग देश में अनुत्पादकता को बढ़ावा देते है। शराबबंदी, नशीले पदार्थों पर रोक लगाने से देश में अपराधों में कमी आ जाएगी और गरीबी से भी उबर जाऐंगे इसे नकार दिया गया है।
सम्पन्नों-विपन्नों में विभाजित भारत का क्या कोई कारगर समाधान है और क्या विकास के पहियों को राजमार्ग की बजाए गरीब पगडंडियों की और मोड़ना संभव है। नेहरू युग का स्वप्न भंग हो चुका है, गांधी के आदर्श भुला दिये गये है, आजादी की आधी रात की संतानें बुढ़ा रही है, स्वाधीनता संग्राम की चेतना की स्मृति भी। आज की पीढ़ी सरकार की खोखली, मूल्यविहीन देशभक्ति के तमाम आडंबर से इतर, देश से सचमुच प्रेम करने वाले लोग लगातार घट रहे हैं। हमारे राजनेताओं पर यह गंभीर जिम्मेदारी बनती है कि वे आजादी के विस्मृत किये गये आदर्शो-मूल्यों को फिर से प्रासंगिक बनायें और एक नये भारत का स्वप्न देश को दें। यद्यपि अब सरहदे सुरक्षित है सेना किसी भी चुनौती का सामना करने को तैयार है, देश की वैश्विक स्वीकारता बढ़ी है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)