कनिका "कहानी" जिंदगी की

लेखिका : ममता सिंह राठौर

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कनिका तुम्हारा चेहरा हवाओं के डोलने के साथ मन को हिला जाता है, लगता है तूफान आ रहा है बड़ा अजीब लगता है कहने में तुम और तूफान, तुम तो बिल्कुल मासूम  कैसे बयान करूं तुम इतनी भोली लगती थी बल्कि अभी भी-----मन भी बड़ा अजीब है इसको कौन समझता है, न तुम समझी न मैं समझ  सकी, कौन अपराधी है मैं य  तुम, यह कौन बताएंगा, सब दोष देते हैं, तरह-तरह की बातें करते हैं, पर मैं खुद को ही----मानती हूँ, पर तुमने खुद को सजा दी ऐसा क्यों ?

यह  प्रश्नन सोने नही देता है, मन को कही लगने नही देता है, ईश्वर के सामने बैठूं तो लगता है प्रभु की नजर में ----- क्या ईश्वर नें तुमसे नहीं कहा, पर मेरा मन बार-बार कहता है। इसका जवाब तो ईश्वर हमसे आवश्य लेंगे तब मैं क्या कहूँगी? ईश्वर के घर में किसी को किसी तरह की छूट नहीं मिलती यह बात सब कहते है मानते हैं, पर न तुम  मान सकी और न मैं मान सकी यदि मैं मान लेती तो तुम आज बाबुल की  बगिया में खिल खिलाती मुस्कराती नजर आती  पर तुम तो तितली सी न जाने कहाँ उड़ गयी।   

मैं बार -बार सोचती हूँ तुम जितनी कोमल थी उससे कहीं ज्यादा कमजोर थी। 

कनिका सब बच्चों में अलग थी कुदरत ने बड़ा मासूम बनाया था, उतनी ही वो सच्ची लगती थी हमें बल्कि और भी लोगों को, वो इतनी झूठी कब होगयी ? य हमने उसके झूठ कोपकड़ कर समझाया क्यों नहीं? वो झूठी हुई तो किसकी वजह से? झूठ और सच को तराजू में तौलने बैठती हूँ तो कभी मैं झूठी कभी वो झूठी। 

पर  मैं तो पुरानी सोच समझ ये रूढ़िवादी, पर वो तो आज में जी रही थी सबकुछ जान समझ रही थी, अपने आस- पास के लोगों की तरह ही थी, कुछ नया तो नहीं था,

जिसकी समझ ही न हो उसे कैसे समझाया जाए, ऐसा भी नहीं था,

सब समझ रहे थे वो भी समझ रही थी, फिर डर था। 

पर वो  तो डरती भी नहीं थी। 

यह बात सब बोलते हैं कि न वो अन्धेरे से डरती न अकेले से, फिर किसका डर था। 

कौन है वो जिसने जीभ मोड़ दी शब्द छीन लिए कुछ लोग कहते हैं कि ससुराल वाले कुछ लोग कहते हैं मायके वाले।

कनिका का स्वभाव ज्यादा बोलने वाला नहीं था कुछ भी कहो तो मुस्करा देती या फिर छोटा सा जवाब देती किसी के काम को न नहीं कहती इसीलिए वो बड़े से परिवार में सब की अपनी लगती थी, अपने अपने सबके थे, पर वो सब की थी, शादी में आज कल लड़किया जैसे चहकती हैं वैसे वो चहकी पता नहीं क्यों  चहकना उसे आया नहीं य भाया नहीं, कुदरत तूफान  उठाये था जिधर से भी खबर आती आशुओँ की बाढ़ सी आती सब के मन में डर था कोरोना का, पर शायद कुछ और भी डर था। 

इस डर को समझ नहीं सके य समझ कर भी-----न समझे न कह सके यह बहुत बड़ा प्रश्न है?

जिन्दगी बहुत छोटी है सब कहते है, तो इसका मतलब है सब समझते भी हैं, तो फिर सच 'न' कहने का कारण? और सच 'न' मानने का कारण?  दोनों प्रश्न हमेशा उठेंगे? और सच अपना पूरा हिसाब लेगा। 

कनिका कुछ प्रश्नन तो  तुम्हारे लिए भी हैं, बहुत से  प्रश्नन तुम्हारे पास भी  रहें होंगे पर तुमने न उनका जवाब ढूंढा जवाब मांगा। 

ऐसा क्यों किया?  एक बात तो सामने आ गयी तुम सरल थी उतनी ही ज़िद्दी इतनी ज़िद्दी की कि भीतर-भीतर खाये जा रही थी पर ख़ामोशी से दबाए जा रही थी, अरे एक बार यह जिद तुम आँगन में करती क्यों बचपन में तुम रुठ जाती थी कहते है, मामा जहरा  कह के चिढ़ाते थे अभी भितुम हमारे लिए वही थी, तुम्हारी उम्र थोड़ी गिनती तुम्हारी जिद पे, ये कोई गिन भी लेता  तो क्या, या तुम डर गयी या डराई गयी यह प्रश्नन भीतर तक झकझोरता है कौन है वो कोई  तो है, यह मन बोलता है, तुम किसी और कि वजह से ख़ुद को सजा देने वाली आज की लड़की कैसे हो गयी, तुम ऐसी बिल्कुल न थी। 

तुमने क्या सोचा कहानी खत्म कर देने से विराम लग जाता है, यह प्रश्नन तुम्हारे साथ चलता होगा क्यो की मेरे साथ यह प्रश्नन हर वक्त चलता है,

जिंदगी से ज्यादा किसी को कुछ प्यारा नहीं होता हर कोई डरता है मौत से---- पर तुमने उसे गले लगा लिया क्यों  नई जिंदगी की शुरुआत थी कुछ मन का था कुछ बेमन के, मन को लगाना मनाना तुम्हे आता था तुमने बहुत अच्छे से सीखा था, तुम्हारे चारो तरफ भीड़ थी रिश्तों की, जहाँ तरह तरह की बातें होती रहती थी पर तुम सदैव सहज रहती थी, किसी से बैर नहीं था तुम्हारा। 

पर तुम ख़ुद की बैरन कैसे बन गयी ?

अब जब कि तुम मुक्त हो,तो क्या मुक्त हो पायी हो अपनी आत्मा से, ये मुक्ति मिल पायेगी उस वजह, किरदार-