कर्नाटक में कांग्रेस का अभी भी दबदबा

लेखक : लोकपाल सेठी

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक है)

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कर्नाटक में पिछले हफ्ते विधान परिषद् के द्विवार्षिक चुनावो  के नतीजे  इस बात की ओर संकेत देते है कि यद्यपि सत्तारूढ़ बीजेपी पिछले चुनावों की तुलना से काफी अधिक सीटें जीती लेकिन इसके बावजूद विधान मंडल के इस ऊपरी सदन में बहुमत का आंकड़ा  नहीं  क्योंकि दक्षिण के इस राज्य में साढ़े तीन वर्ष पूर्व सत्ता खो जाने के बाद अभी भी कांग्रेस का राजनीतिक दबदबा बना हुआ हैं। कुल 25 सीटों पर हुए चुनावों में बीजेपी और कांग्रेस को 11-11 सीटें मिली जबकि जनता दल (स) मात्र दो स्थान पर ही जीत पाई। एक सीट निर्दलीय को मिली, जिसने बीजेपी से बगावत करके चुनाव लड़ा और उम्मीदवार  अपनी लोकप्रियता के बल पर चुनाव जीता। 

चुनावों से पूर्व 75 सदस्यों वाली विधान परिषद् में बीजेपी के पास 32 सीटें थी, कांग्रेस के पास 29, तथा जनता दल (स) के पास 12 सीटें थी। चुनावों के बाद दलीय स्थित में अब बीजेपी के पास 3 , कांग्रेस के पास 26, जनता दल (स) के पास 10 सीटें है। एक सदस्य निर्दलीय है। बहुमत के लिए किसी भी दल को 38 सीटों की जरूरत होती है। यह अलग बात है की बीजेपी के बागी उम्मीदवार लखन जारकीहोली या तो बीजेपी में लौट जायेगा या फिर जरूरत पड़ने पर  सदन में बीजेपी का साथ देगा। 

चुनावों से पूर्व बीजेपी का दावा था कि उसे कम से कम 15 सीटें मिलेगी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। कुछ महीने पहले राज्य में हुए दो विधान सभा उपचुनाव हुए थे, जिनमें बीजेपी और कांग्रेस ने एक एक सीट जीती थी। बीजेपी ने वह सीट हारी जो मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई के गृह जिले में आती थी। सामान्यता इस प्रकार के चुनावों में सत्तारूढ़ दल का वर्चस्व रहता है। अगर सत्तारूढ़ दल कम सीटें जीतता है तो माना जाता है कि दल और सरकार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। ये दोनों चुनाव 6 माह पूर्व मुख्यमंत्री बोम्मई के कार्यकाल में हुए थे। पार्टी हलको में यह खुसुर पुसुर शुरू हो गई कि अगर येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री बने रहने दिया होता तो पार्टी अधिक सीटें जीत सकती थी। राज्य में लिंगायत समुदाय राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से सबसे बड़ा और प्रभावी समुदाय है। 

येद्दियुरप्पा इसी समुदाय से आते है। इसलिए छह पूर्व जब पार्टी का सरकार में नेतृत्व बदलने का निर्णय किया गया तो  पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व पर इस बात का दवाब था कि उनके स्थान पर किसी लिंगायत नेता को ही इस पद ब बैठाया जाये। इसलिए इसी समुदाय के बोम्मई को  ही यह पद देने का निर्णय किया गया। लेकिन जहाँ येद्दियुरप्पा इस समुदाय के लगभग एक छत्र और सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं, यही बात बोम्मई के बारे में  यह बात नहीं कही जा सकती। 2018  के विधान सभा चुनावों में बीजेपी को कुल 225 में से 104 सीटें मिली थी जबकि कांग्रेस को 76 और जनता दल (स) को  36 सीटें मिली। राज्यपाल ने सबसे बड़े दल के नेता के रूप में येद्दियुरप्पा को सरकार बनाने के आमंत्रित किया। 

सरकार बनी लेकिन यह बस ढाई दिन ही चली क्योंकि येद्दियुरप्पा सदन में बहुमत सिद्ध नहीं कर पाए। इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से जनता दल (स) की मिलीजुली सरकार बनी। मुख्यमंत्री का पद जनता दल(स) के एचडी कुमार स्वामी को मिला। लेकिन कांग्रेस की और जनता दल(स) की भीतरी गुट बंदी के चलते सरकार केवल एक वर्ष ही चल पाई। इन दोनों दलों के एक दर्ज़न से अधिक सदस्यों ने विश्वासमत से पहले ही सदन के सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। इन सभी ने बीजेपी में शामिल होने की घोषणा की। येदियुरप्पा जुलाई 2019 में चौथी बार मुख्यमंत्री बने। जब इन खाली सीटों पर उप चुनाव हुआ तो बीजेपी में शामिल हुए कांग्रेस और जनता दल (स) के  पूर्व विधायकों को उम्मीदवार बनाया गया और लगभग सभी के सभी जीतने में सफल रहे। 

इनकी जीत को श्रेय येद्दियुरप्पा को दिया गया। इसलिए जब 6 महीने पहले पद छोड़ने के लिए कहा गया तो वे बड़ी आना कानी के बाद ही इसके लिए राजी हुए। उस समय उनकी उमर 78 साल हो गयी थी। बीजेपी के  नियम और परम्परा के अनुसार कोई भी नेता 75 वर्ष की ऊमर के बाद न तो सरकार और न ही संगठन में किसी पद रह सकता। फिर भी उनसे वायदा किया  कि उन्हें किसी सम्मानजनक पद रखा जायेगा। 

उन्हें राज्यपाल बनाये जाने की पेशकश की गयी लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने आश्वासन दिया कि वे राज्य में पार्टी को मज़बूत बनाने के लिए काम करते रहेंगे। लेकिन धीरे धीरे उन्होंने महसूस किया की उन्हें साइड लाइन किया जा रहा है इसलिए इन दोनों चुनावों ने उन्होंने आधे मन से काम किया, जो काफी हद तक बीजेपी को नुकसान पहुँचने वाला सिद्ध हुआ। इससे कांग्रेस को अपनी स्थिति फिर से मजबूत करने का मौका मिला। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)