अंतरराष्ट्रीय ओजोन संरक्षण दिवस 16 सितंबर पर विशेष
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)
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आज पृथ्वी के वायुमंडल के चारो ओर स्थित ओजोन परत के दिनों दिन कमजोर होते जाने या उसमें हुए छेद में बढो़तरी होते जाने से आर्कटिक में गर्मी बढने,बर्फ के पिघलने की दर में तेजी से बढो़तरी होने, त्वचा के कैंसर के मामलों में बढो़तरी होने और इसका घातक असर मेलोनोमा के मामले में बेतहाशा बढो़तरी के रूप में सामने आने का खतरा मंडरा रहा है। यही नहीं इसके चलते मानव जीवन, जीव जंतु, पेड़-पौधों और पारिस्थितिकी का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। एक अध्ययन के मुताबिक यूवीबी विकिरण में दस फीसदी की बढो़तरी पुरूषों में मेलोनोमा के मामलों में उन्नीस फीसदी और महिलाओं में सोलह फीसदी की बढो़तरी करती है।चिली के पंटा एरिनास में किया गया अध्ययन यह साबित करता है कि ओजोन में कमी और यूवीबी विकिरण में बढो़तरी के साथ मेलोनोमा के मामलों में 56 फीसदी और गैर मैलोनोमा स्किन कैंसर के मामलों में 46 फीसदी की बढो़तरी हुई है। यही नहीं फसलों की वृद्धि भी प्रभावित हुई है सो अलग।
इसके दुष्प्रभाव स्वरूप लोगों का स्वास्थ्य खराब होगा, वंशानुगत बीमारियां, चर्म रोग, कैंसर जैसी घातक बीमारियां बढे़ंगीं, आंखों पर दुष्प्रभाव होगा, मोतियाबिंद के मामले बढे़ंगे और जलजीवन बुरी तरह प्रभावित होगा। तात्पर्य यह कि यदि हम धरती के ओजोन परत रूपी इस सुरक्षा कवच को बचाने में नाकाम रहे तो धरती पर जीवन की कल्पना बेमानी होगी। सच तो यह है कि पृथ्वी के वायुमंडल की स्ट्रैटोस्फेयर परत के नीचे के हिस्से में बडी़ मात्रा में ओजोन पायी जाती है, इसी को ओजोन परत कहते हैं। इसके क्षरण का मूल कारण प्रदूषण है जिसमें मानवीय दखलंदाजी की प्रमुख भूमिका है। इसी कारण सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरती पर सीधे-सीधे टकराती हैं जो तबाही का कारण बनती हैं। इसलिए इसे बचाना अब बेहद जरूरी हो गया है। इस परत के क्षरण में वाहनों से निकलने वाले धुंए, रेफ्रिजरेटर और एयरकंडीशनर से निकलने वाली क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस की महती भूमिका है जिसे नकारा नहीं जा सकता।
दरअसल निष्कर्षतः मानवीय गतिविधियों के कारण क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस का निर्माण होता है जो ओजोन परत का निर्माण करती है। सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें जिनको अल्ट्रावायलेट किरणें भी कहते हैं, क्लोरोफ्लोरोकार्बन की ओजोन परत को तोड़कर क्लोरीन का निर्माण करती है। क्लोरीन के कण ओजोन के मालीक्यूल्स को तोड़कर उसका क्षरण करते हैं। ओजोन परत के क्षरण से धरती पर सूर्य की पराबैंगनी किरणों का आगमन बढ़ जाता है। नतीजतन पर्यावरण तो प्रभावित होता ही है, मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है, जानलेवा बीमारियां फैलती हैं और पारिस्थितिकी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। दरअसल पृथ्वी के ऊपर की परत में स्थित ओजोन हमारे लिए रक्षा कवच का काम करती है जबकि पृथ्वी की परत के नजदीक की ओजोन हमारे लिए स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों का सबब बनती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि धरती के चारो ओर ओजोन की परत जितनी मोटी होगी, सूर्य की पराबैंगनी किरणों से उतनी ही धरती बची रहेगी। ओजोन के बिना धरती पर जीवन संभव नहीं है। वैज्ञानिकों के अनुसार 1987 के मांट्रियल प्रोटोकाल लागू होने के बाद ओजोन के छेद में तेजी से हो रही बढो़तरी में काफी कमी आयी है लेकिन इसके बाबजूद उत्तरी ध्रुव में आर्कटिक पर ओजोन में बडा़ छेद हो गया है। यह छेद करीब दस लाख वर्ग किलोमीटर का हो गया है। फिर भी यह अंटार्कटिका के छेद से बहुत छोटा है जो तीन-चार महीने में दो से ढाई करोड़ वर्ग किलोमीटर तक फैल जाता है। इसका अहम कारण मौसम में हो रहा बदलाव है। असलियत में फिर भी इसकी मात्रा दक्षिणी ध्रुव की तुलना में काफी कम है। जबकि समूचे शोध- अध्ययन इस बात के जीते जागते सबूत हैं कि दुनिया में दावे कुछ भी किये जायें प्रदूषण में दिन ब दिन बढो़तरी हो रही है, उसपर अंकुश का दावा बेमानी है।
यदि अपने देश का ही जायजा लें, अकेले देश की राजधानी दिल्ली का सीएसई का अध्ययन यह साबित करता है कि दिल्ली के वातावरण में ओजोन के प्रदूषक कणों की मात्रा डेढ़ गुणा तक बढ़ गयी है। ऐसी हालत में ओजोन परत में सुधार की आशा करना एक सपना है। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह कि इसलिए यह समय की मांग है कि हम अपनी जीवन शैली बदलें,भौतिक संसाधनों पर अपनी निर्भरता कम करें, अधिक से अधिक पेड़ लगायें, उनकी संवृद्धि और रक्षा के हरसंभव प्रयास करें ताकि सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणें सीधे धरती पर न आ सकें। तभी ओजोन परत के छेद में हो रही बढो़तरी को रोका जा सकता है और यह काम जागरूकता के बिना असंभव है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)