मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघों से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 

पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान   

भारतीय वर्णव्यवस्था

सामाजिक व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने के लिये वर्णव्यवस्था को आधार बनाया गया था। वर्णव्यवस्था का आधार वैदिक साहित्य है। वेदों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में चार वर्णों की कल्पना की गई है और वेद पुरुष के शरीर से इनकी उत्पति बतलायी गयी है। उस परम पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघों से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति का उल्लेख प्राप्त होता है। चूंकि एक ही पुरुष से इन सभी वर्णों की उत्पत्ति हुई है इसलिए इसमें न तो कोई छोटा है न बड़ा। सभी वर्ण समान है। कर्मों के विभाजन के आधार पर छोटे बड़े की कल्पना का एक घृणित खेल खेलकर वर्णों में विभाजन का कुत्सित कार्य किया गया है। राजनीतिक और धार्मिक लाभ लेने के लिए समय-समय पर विभिन्न वर्णों के लोगों में फूट डालो शासन करो की नीति अपनायी गयी। जिसका परिणाम सामाजिक विभाजन पर भी दिखायी देने लगा। 

धीरे-धीरे वर्णों को जातियों में विभाजित कर दिया गया। वर्तमान में हिन्दू समाज में इसी का विकसित रूप जाति व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है। 1901 की जाति आधारित जनगणना के अनुसार भारत में 2000 से अधिक जातियां निवास करती है। वर्णव्यवस्था भारतीय सामाजिक संगठन के मौलिक तत्व के रूप में पायी जाती है। भारतीय संस्कृति में समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्थान तथा उससे संबंधित कार्य उसकी मूलभूत प्रवृत्तियों के आधार पर निश्चित होता था। इस प्रकार व्यक्ति अपने कर्म तथा स्वभाव के आधार पर जिस व्यवस्था का चुनाव करता है, वही वर्ण कहलाता है। वर्ण का संबंध व्यक्ति के गुण तथा कर्म से पाया जाता है। जिन व्यक्तियों के गुण तथा कर्म एक समान थे वे एक वर्ण के माने जाते थे। गीता में भी गुण और कर्म के आधार पर चारों वर्णों की रचना के प्रमाण है। इससे स्पष्ट होता है कि वर्णव्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण की एक ऐसी व्यवस्था है जो व्यक्ति के गुण और कर्म पर आधारित है। जिसके अन्तर्गत समाज का चारों वर्णों के रूप में कार्यात्मक विभाजन हुआ है। 

ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट पुरुष के मुख से बतलायी गई है। ऐसा कहने का तात्पर्य ब्राह्मण शरीर में मुख के समान सर्वश्रेष्ठ है। ब्राह्मणों कार्य समाज में शिक्षा देना लोगों को शिक्षित करना तथा ज्ञान के द्वारा समाज को सुसंस्कृत करना था। इसी प्रकार भुजाएं शक्ति की प्रतीक है। इसलिए क्षत्रियों का कार्य शासन संचालन एवं शस्त्र धारण करके समाज में अन्याय को मिटाकर लोगों की रक्षा करना है। समाज में वैश्यों का कार्य कृषि तथा व्यापार आदि के माध्यम से धन संग्रह करके लोगों की उदरपूर्ति करना और समाज से पूरी तरह अभाव को मिटा देना है। शूद्र की उत्पत्ति विराट पुरुष के पैरों से मानी गयी है। अर्थात् पैरों की तरह तीनों वर्णों के सेवा का भार अपने कंधों पर वहन करना है। विराट पुरुष के शरीर के विभिन्न अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति का भाव यह है कि चारों वर्णों में यद्यपि स्वभावगत भिन्न-भिन्न विशेषताएं पायी जाती है, तथापि एक ही शरीर के अलग-अलग भाग होने के कारण उनमें पारस्परिक अन्तर्निर्भरता पायी जाती है। 

वेदों से लेकर के  वेदों पर आधारित ग्रंथों में वर्णव्यवस्था का यही उल्लेख सर्वत्र पाया जाता है। वर्तमान समय में वर्णव्यवस्था के विषय में मूलभूत प्रश्न यह है कि वर्णव्यवस्था जन्म पर आधारित हो या गुण कर्म या स्वभाव के आधार पर? साधारणतः वर्णव्यवस्था का आधार जन्म को न मानकर गुण और कर्म को माना गया है। लेकिन इस विषय में मतवैभिन्य दिखायी देता है। आधुनिक युग में वोटों की राजनीति ने इसे और अधिक बढ़ावा दिया है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि समाज में विभिन्न वर्णों के लोग आपस में ही विवाद करते रहते है। वर्ण का जाति में परिवर्तन सभी विवादों की जड़ है। जातीय उच्चता और निम्नता को समाप्त करने के लिये महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने बहुत प्रयास किया है। 

राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती जैसे समाज सुधारकों ने भी वर्णव्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को जनता के सामने स्पष्ट करने का प्रयास किया और मनु की मान्यताओं को सही अर्थ में समझाते हुए बताया की वर्ण कर्म से निर्धारित होते हैं जन्म से नहीं। जातिवादी व्यवस्था वैदिक व्यवस्था नहीं है। समाज में फूट डालने के लिए कुछ असामाजिक तत्वों ने वर्णव्यवस्था का ऐसा रूप समाज के सामने प्रस्तुत किया कि वह जातिवादी के रूप में दिखायी देने लगा। जबकि उसका वास्तविक स्वरूप सृदृढ़ सामाजिक संरचना था। समाज सुधारकों ने वर्ण व्यवस्था के आधार पर यह भूषित किया कि शिक्षा का अधिकार सबको है कोई भी वर्ण शिक्षा के अधिकार से वंचित नहीं रह सकता। 

स्वामी दयानन्द ने मनुष्य मात्र के लिए शिक्षा का अधिकार घोषित किया तथा स्त्रियों और दलितों को समान शिक्षा और समानता का अधिकार दिलाकर एक नई क्रांति का सूत्रपात किया। आज के ऊँच-नीच रहित समाज के निर्माण में भारतीय समाज सुधारकों का बड़ा योगदान रहा है। आध्यात्मिक दृष्टि से अगर देखा जाये तो सभी एक ही ईश्वर के संतान है, सभी में एक ही प्रकार का रक्त है, सभी में आत्मा एक समान है तो यह विभाजन कैसा? वर्ण विभाजन समाज की विकृति को दिखलाता है। अतः जाति व्यवस्था का जो ताना-बाना समाज में बुना गया है वह ठीक नहीं है। सभी को एक समान शिक्षा, धार्मिक कार्यों को करने की स्वतंत्रता, सामाजिक समारोहों में भाग लेने की स्वतंत्रता प्राप्त है। संविधान के अनुसार भी भारत के सभी लोगों को अपनी ईच्छा से जीवन व्यतीत करने का अधिकार है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)