अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट
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राजस्थान में सत्तारूढ़ कांग्रेस के बीच चल रहा घमासान थमने का नाम ही नहीं ले रहा। पार्टी हाई कमांड के निर्णय का लगभग एक साल बेसब्री से इंतजार करने के बाद सचिन पायलट और उनके समर्थक अब आर पार की लड़ाई लड़ने के मूड में लगते है।
एक साल पूर्व जब पायलट ग्रुप के लगभग दो दर्ज़न विधायकों ने मुख्यमंत्री के नेतृत्व के खिलाफ बगावत की थी उस समय लग रहा था के राजस्थान में भी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के खिलाफ जिस प्रकार ज्योतिर्मादित्य सिंधिया की बगावत के चलते कांग्रेस सरकार चली गई थी। ठीक इसी प्रकार अशोक गहलोत को भी जाना होगा। लेकिन गहलोत कमल नाथ से बेहतर राजनीति के खिलाड़ी सिद्ध हुए। वे न केवल अपनी कुर्सी बचाने में सफल हुए बल्कि पायलट और उनके समर्थकों का पार्टी के भीतर कद कम करने में सफल रहे। कहा जाता है की बागी पायलट को यह आश्वासन दिया गया था कि उन्हें न केवल उप मुख्यमंत्री बना दिया जायेगा बल्कि उनके समर्थक विधायकों को मंत्री बनाने के बाद अच्छा विभाग भी दिया जायेगा।
एक समय था जब राहुल गाँधी को पार्टी का अध्यक्ष बनने के बाद यह साफ लग रहा था कि अब पार्टी में युवा नेताओं का बोलबाला रहेगा और पुराने तथा वरिष्ठ नेता अब कमजोर पड़ जाएँगे। जिन युवा नेताओं के आगे बढ़ने की उम्मीद की जा रही थी उनमें मध्य प्रदेश के सिंधिया, उत्तर प्रदेश के जीतीन प्रसाद, महाराष्ट्र में मिलिंद देवरा तथा राजस्थान से पायलट शामिल थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राहुल गाँधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी पार्टी के पुराने नेताओं से एक बार फिर घिर गयी जो लम्बे समय से अपने आप को पार्टी का कर्णाधार मान कर चल रहे थे। इनमें से कई नेताओं का अपना कोई बड़ा जनाधार नहीं है। बस उनकी सबसे बड़ी योग्यता यही है कि वे गाँधी परिवार के वफादार हैं। इसमें सबसे बड़ा नाम अशोक गहलोत का आता है, जो गाँधी परिवार के आशीर्वाद से ही आगे बढे और मुख्यमंत्री सहित पार्टी में ऊंचे पदों पर रहे।
जब राहुल गाँधी ने पार्टी की बागडोर संभाली तब यह माना जा रहा था कि अब न केवल युवा आगे बढ़ेंगे। उनकी योग्यता और क्षमता के अनुरूप पद दिए जानेगे न कि केवल इसलिए के वे गाँधी परिवार के वफादार हैं।
राजस्थान में 2013 के विधान सभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद सचिन पायलट को राज्य में पार्टी का मुखिया बनाया। गहलोत मुख्यमंत्री पद खोने के बाद राज्य की राजनीति की बजाय केंद्र की राजनीति में अधिक व्यस्त रहे। अगले पांच साल में पायलट ने राज्य में पार्टी के संगठन को इंतना मज़बूत किया कि 2018 में पार्टी सत्ता में लौटने में सफल रही। न केवल पार्टी के राज्य नेताओं न बल्कि केंद्रीय नेताओं ने इसका सारा श्रेय पायलट को दिया। जीत के बाद लग रहा था कि पायलट को मुख्यमंत्री पद से नवाजा जायेगा।
वे न केवल युवा है बल्कि योग्य और सक्षम नेता है। लेकिन गाँधी परिवार के वफादार अशोक गहलोत को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हुआ। मामला कई दिन तक अटका रहा। सचिन कम से कम उप मुख्यमंत्री का पद चाहते थे। आखिर इस बात पर मानेगे कि उन्हें न केवल मंत्री बनाया जायेगा बल्कि वे राज्य पार्टी के अध्यक्ष भी बने रहेंगे। यह भी बात हुई की कुछ अन्तराल के बाद गहलोत पार्टी की केद्रीय राजनीति में आ जायंगे और पायलट स्वतः ही मुख्यमंत्री बन जायंगे। जब ऐसा नहीं हुआ तो पिछले साल उन्होंने बगावत कर दी। यद्यपि बगावत दब गयी लेकिन भीतर ही भीतर यह सुलगती रही और कुछ सप्ताह पहले फिर भड़क उठी। इसका अंत क्या होगा यह कहना अभी कठिन है, लेकिन आने वाले कुछ माह राज्य की कांग्रेस पार्टी में उथल पुथल के दिन रहेंगे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक)