स्मृति विशेष :
पुण्य तिथि : गीतकार नीरज 19 जुलाई पर विशेष
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पद्मश्री, पद्मभूषण, यश भारती सहित अनेकों सम्मान-पुरस्कारों से सम्मानित महान गीतकार गोपालदास नीरज एटा के गौरव ही नहीं सही मायने में प्रेम के खुद एक शब्दकोष थे, महाकाव्य थे। सच तो यह है कि वह गीतकार तो थे ही, प्रेम के सच्चे पुजारी थे। इसमें दो राय नहीं कि वह प्रेम के चक्रव्यूह से जीवन में कभी निकल ही नहीं सके। उनके अंतस में प्रेम की यह कमी कहीं न कहीं जरूर रही जो उनके गीतों में अक्सर दिखाई देती थी। यह कहना है वरिष्ठ पत्रकार और देश के चर्चित पर्यावरणविद ज्ञानेन्द्र रावत का। उनका यह गीत-" देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा।" प्रेम की उनकी पीडा़ को उजागर कर देता है। उनका यह गीत कि - 'आंसू जब सम्मानित होंगे,मुझको याद किया जायेगा, जहां प्रेम की चर्चा होगी, मेरा नाम लिया जायेगा' में दर्द और प्रेम की अभिव्यक्ति के एक साथ दर्शन होते हैं। उनका यह गीत कि -' हम तो बदनाम हुए इस जमाने में, लगेंगीं आपको सदियां हमें भुलाने में, न पीने का सलीका और न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में' और 'कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे' कवि सम्मेलनों में बहुत ही पसंद किया जाता था।
दरअसल उनके गीतों में जीवन का दर्शन छिपा है। उनका कहना था कि आत्मा का शब्द रूप है काव्य। मानव होना यदि भाग्य है तो कवि होना मेरा सौभाग्य...। मेरी कलम की स्याही और मन के भाव तो मेरी सांसों के साथ ही खत्म होंगे। असल में उनको फिल्मी गीतकार के तौर पर अधिक जाना जाता है। वैसे तो उन्होंने एटा में गवर्नमेंट हाई स्कूल में अध्ययन के दौरान अपने छात्र जीवन से ही गीत लिखना शुरू कर दिया था और 1942 से ही जब वह एटा स्थित गवर्नमेंट हाई स्कूल में 10वीं कक्षा के छात्र थे, स्कूल और काव्य गोष्ठियों में कविता पाठ करना शुरू कर दिया था। लेकिन फिरोजाबाद में 1942 के कवि सम्मेलन के मंच से उनको कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ करने का अवसर मिलने लगा और 1960 के दशक में आल इंडिया रेडियो से प्रसारित उनके गीत कि-' कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे' ने उनकी शोहरत में चार चांद लगा दिये।
कवि सम्मेलनों में मिली अपार सफलता के बाद उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का निमंत्रण मिला और फिर नई उमर की नई फसल नामक फिल्म के गीत ने तो फिल्म इंडस्ट्री में उनकी धाक जमा दी। उनकी इस पहली ही फिल्म के गीत इतने लोकप्रिय हुए कि वह बम्बई में ही रहकर फिल्मों के लिए गीत लिखने लगे। यह सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली, प्रेम पुजारी, पहचान जैसी अनेक फिल्मों तक जारी रहा। उनकी 1965 में आई 'नयी उमर की नयी फसल' फिल्म का 'कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे', 1971 में आई फिल्म 'पहचान' के गीत ' बस यही अपराध में हर बार करता हूं' 1972 में राजकपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' का 'ए भाई जरा देख के चलो', और चंदा और बिजली के गीत ' काल का पहिया घूमे रे भइया' ने तो उन्हें प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया। लेकिन फक्कड़ और अलमस्त नीरजजी को फिल्म नगरी रास नहीं आयी और वह अलीगढ़ वापस लौट आये जहां जीवन के अंत समय तक वह अपने मौरिस रोड स्थित घर पर ही रहे।
ज्ञात-अज्ञात गीतों के अलावा 'संघर्ष' 1944, 'अंतर्ध्वनि' 1946,'विभावरी' 1948, 'प्राणगीत' 1951, 'दर्द दिया है' 1956, ' बादर बरस गयो' 1957, 'मुक्तकी' 1958, 'दो गीत' और 'नीरज की पाती' 1958, 'गीत भी अगीत भी' 1959, 'आसावरी' 1963, 'नदी किनारे' और 'लहर पुकारे' 1963, 'फिर दीप जलेगा' 1970, 'तुम्हारे लिए' 1972 और 'नीरज की गीतिकाएं' 1987 उनकी कृतियां प्रमुख हैं।
उनका बचपन बहुत मुश्किलों में बीता। पिता की मृत्यु के बाद गरीबी के चलते पढ़ने एटा मामा के यहां आये। एटा से हाईस्कूल करने के बाद इटावा में टायपिस्ट, कानपुर डीएवी कालेज में क्लर्क और फिर बाल्कट ब्रदर्स, कानपुर की एक कंपनी में टाइपिस्ट की नौकरी की। नौकरी करते-करते ही उन्होंने प्रायवेट इंटर, बी ए और फिर हिन्दी साहित्य में एम ए पास किया। एम ए करने के बाद कुछ समय मेरठ कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक रहे लेकिन मैनेजमेंट के अनर्गल आरोपों के चलते नौकरी छोड़ दी और फिर अलीगढ़ स्थित धर्म समाज कालेज में आपकी हिन्दी के प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति हुयी।
वह उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के अध्यक्ष और मंगलायतन यूनीवर्सिटी के कुलाधिपति भी रहे। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि वह अकेले ऐसे गीतकार रहे जिन्होंने फिल्म इंडस्ट्री की तीन पीढि़यों के साथ काम करने का अवसर मिला। उनके बारे में मेरी मां मुझे बतातीं थीं कि पिता की मृत्यु के बाद वह एटा अपने मामा श्री हरनारायण जौहरी जो उस समय एटा के जाने-माने वकील थे, के यहां आकर पढ़ने लगे थे। यहां उन्होंने कक्षा छह से दसवीं तक गवर्नमेंट हाई स्कूल में पढा़ई की और दसवीं में वह फर्स्ट क्लास पास हुए। उसके बाद वह इटावा चले गये। वह शिव के परम भक्त थे। बचपन में जब वह पटियाली गेट स्थित अपने मामा के यहां रहकर पढा़ई कर रहे थे, तब वह कुंए पर नहाते वक्त 'महामंत्र है जो कल्याणकारी, जपाकर जपाकर जपाकर जपाकर हरिओम ततसत् हरिओम ततसत्' गुनगुनाते रहते थे।
जीवन के अंतिम दौर में वह वृद्धावस्था जनित बीमारियों से जूझ रहे थे। इसके बावजूद वह राजकीय इंटर कालेज, एटा के 101वें स्थापना सम्मेलन में 2015 में संजीव यादव व मुझ जैसे पूर्व छात्रों के अनुरोध पर एटा आये थे। एटा आने के बारे में पहले तो उन्होंने बीमारी के चलते असमर्थता जतायी थी लेकिन जब उनके मित्र और हमारे अग्रज पर्यावरणविद श्री सुबोध नंदन शर्मा ने उनसे कहा कि-" तुम्हारे स्कूल के बच्चे उसका 101वां स्थापना दिवस मना रहे हैं और तुम्हें सबसे पुराने छात्र होने के नाते मुख्य अतिथि के रूप में बुला रहे हैं, ऐसा मौका फिर कहां मिलेगा। उस स्कूल के बच्चों का कितना मान बढे़गा कि उनके बीच आप होंगे।" आखिर वह एटा उस समारोह में आये। उस समय उन्होंने कहा था कि अपने पूर्व कालेज के स्थापना समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में सहभागिता करने का मुझे सौभाग्य मिला, इसपर मुझे गर्व है। उस समय उन्होंने कहा था कि एटा मे मेरा बचपन बीता और यहीं में 10वीं तक पढा़ भी। यह मैं कैसे भूल सकता हूं। उस समय उन्होंने कहा था कि-' अब तो कोई ऐसा मजहब चलाया जाये, जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाये' और ' जब चले जायेंगे हम लौट के सावन की तरह, याद आयेंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह' । आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके गीत हमेशा लोगों की जुबान पर रहेंगे और गुनगुनाये जाते रहेंगे। उनको भूलना आसान नहीं है। वह हमारे कालेज के गौरव थे। 19 जुलाई 2018 को नयी दिल्ली स्थित एम्स में उन्होंने अंतिम सांस ली।उनकी पुण्यतिथि पर उनको शत शत नमन। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं)