सीकर (राजस्थान)
प्रधान सम्पादक, 'विश्वा', अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, यू.एस.ए.
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जो कुछ हमारे चेतन-अवचेतन में होता है वह यथासमय प्रकट हो जाता है। सामान्य जीव मूर्ति के निकट जाते समय भी अपनी माँगों की लिस्ट जेब में डालकर ले जाता है वहीं यम द्वारा भटकाने के लिए अनेक प्रलोभन दिए जाने के बावजूद नचिकेता यम से सब सुख-साधन माँगने की बजाय आत्मज्ञान मांगता है। कोई भी प्रसंग आने पर तत्संबंधी कुछ समान या विरोधी प्रसंग स्मृति के तहखाने से उछलकर किसी गवाक्ष से झाँकने लगते हैं।
बुद्ध की बात आते ही जाने कौन-कौन प्रकट हो गए मगर आश्चर्य कि सभी में कोई न कोई विचित्र समानता। राज्याभिषेक की योजना बनाते ही वनवास का विधान, लौटे तो सीता का त्याग और स्वयं की सरयू में समाधि। कृष्ण का कारागार में जन्म, अँधेरी रात में टोकरी में लेटकर उफनती यमुना पार कर गोकुल-गमन, सबको बिलखता छोड़ मथुरा प्रस्थान, रणछोड़ बन दूरस्थ द्वारिका जाना, महाभारत के लिए इन्द्रप्रस्थ-प्रस्थित फिर लीलाधारी का प्रभास पाटन में व्याध के तीर आहत होकर परलोक गमन |महावीर का वस्त्र तक त्याग कर वन-वन भ्रमण। नानक का सच्चे सौदे के लिए भारत ही नहीं, मक्का-मदीना तक प्रवास |दयानंद का शिव लिंग पर रखे गुड़ खाते चूहे को देखकर ज्ञान के लिए घर छोड़कर समस्त भारत में भटकना |विवेकानंद का विश्व-भ्रमण। गुजरात के एक शर्मीले बालक का इंग्लैण्ड से अफ्रीका होते हुए भारत आगमन और फिर एक लकुटी-लँगोटी में भारत को खोजते-खोजते खो जाना |बुद्ध भी कहाँ इन सबसे भिन्न हैं ?
बहुत पहले लक्ष्मी नारायण लाल का एक एकांकी पढ़ा था- यक्ष-प्रश्न।
यक्ष ने पूछा- वनवास क्या है ?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- सबके बीच होना।
शायद 'सबके बीच होने के लिए' घर से निकलना, वनवास में जाना ज़रूरी है | क्या सूरज का कोई घर होता है ? उसे तो जगत भर की रोशनी के लिए जलते और चलते जाना है। कोई भी घर में बैठकर भगवान कैसे बन सकता है ? व्यष्टि और समष्टि का रहस्य खोजकर सामान्य जन के लिए आचरण का विधान करने का काम घर में बैठकर कैसे हो सकता है ? ज्योतिषियों की द्विअर्थी भविष्यवाणी और पिता का मोहमय मन ! कहीं पुत्र सन्यासी हो गया तो ? सब भोगों की व्यवस्था होते हुए भी संन्यास। संन्यास माने कष्ट !मोहाविष्ट पिता सोच ही नहीं पाए कि सभी सुख-सुविधाओं के होते हुए भी क्या जीवन कष्टों से रहित हो सकता है ? नानक दुखिया सब संसार !
सिद्धार्थ को समस्त भोग्य संसाधनों से घेर दिया गया |विवाह, पत्नी और फिर पुत्र भी। सातों पर्दों से भी जीवन के सच से सिद्धार्थ का साक्षात्कार हो ही गया |व्याधि, वृद्धावस्था और अंततः विदा। विचलित हो गए युवराज |हल खोजने सबको सोता छोड़कर कर गए 'महाभिनिष्क्रमण'। महाभिनिष्क्रमण भोग के पंक से निकलकर, सबके बीच होने के लिए।
स्वेच्छा से अनेक दैहिक कष्टों और घनघोर साधनाओं से शरीर को सुखाकर अंत में नगर से लौटती ग्रामवधुओं के गीत- 'वीणा के तारों को इतना मत कसो कि टूट जाएं और इतना ढीला भी मत छोड़ो कि संगीत ही न बजे' को सुनकर मध्य-मार्ग के निर्णय तक पहुंचे- 'मध्य-मार्ग' मतलब 'सम्यक-सत्य'। किसी प्रकार की अति नहीं। जीवन की नदी अतियों के छिछले किनारे नहीं होती वरन अतियों के के दुकूल के बीच सरसराती हुई प्रवाहित होती है। बुद्ध का अपने निर्वाण से पूर्व श्रावस्ती लौटना; शुद्धोधन और राहुल को अपना शिष्यत्व प्रदान करना कहीं अपने जीवन में भी 'मध्य-मार्ग' की स्वीकृति तो नहीं ? हो सकता है, वे कहीं यशोधरा की मनः स्थिति को भलीभाँति समझते हों। क्या पता, प्रकारांतर से प्रायश्चित ही कर रहे हों।
जीवन की यही सुरसरि सिद्धार्थ से बुद्ध बने शास्ता के साथ समस्त आर्यावर्त को आप्लावित करती हुई दक्षिण-पूर्व एशिया को सरसा गई। सत्य और हिंसा के भाव से युक्त जन-प्रवाह दिशा-दिशा से बुद्धं शरणम् गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि, संघम शरणम गच्छामि गुनगुनाता हुआ निकल पड़ा जैसे नदियाँ अपने परम गंतव्य समुद्र की ओर दौड़ती हैं। हजारों विहारों की स्थापना हुई, बुद्ध की करुणा ने उपेक्षित नारियों को भी 'संघ' में स्थान दिया।
लेकिन क्या हुआ अंत में ? अपने अंतिम दिनों में संघों और सामान्य जीवन से दूर जा रहे 'धर्म' ने बुद्ध को विवश किया सोचने के लिए। अपना निर्वाण निकट जान उन्होंने अपने आत्मीय आनंद को संघों को भंग करने की सलाह दी। लेकिन जैसे अधिक विस्तार से सृष्टि अपने स्रष्टा के नियंत्रण से बाहर होती जा रही है वैसे ही तब तक बात बुद्ध के हाथ से भी निकल चुकी थी। तभी अपने अंतिम काल में आनंद द्वारा मार्ग-दर्शन माँगने पर बुद्ध ने कहा- अप्प दीपो भव- अपने दीपक स्वयं बनो |पुनः 'संघ' से 'स्वयं' में स्थित हुए 'शास्ता'।
अंततः अपना विवेक ही काम आता है क्योंकि हर जीवन और हर देश-काल कुछ न कुछ भिन्न होता है जिसे अपने ही तरीके से समझना-झेलना पड़ता है। यदि किसी दुर्घटना में तत्काल मृत्यु न हो तो सभी बूढ़े होते हैं, शनैः शनैः दृष्टि, श्रवण, वाणी से क्षीण हो जाते हैं लेकिन चेतना ऐसी स्थिति में भी कायम रहती है। कोई किसी के साथ न तो हर क्षण रह सकता है, न ही किसी के दुःख-सुख को स्वयं की तरह समझ सकता है। वास्तविकता तो यह है कि सामान्यतया व्यक्ति स्वयं भी अपने को नहीं समझ सकता तो किसी और से क्या उम्मीद करे |रात में कभी नींद उचट जाए तब कौन आपके साथ जागेगा ?आप खुद ही अपने साथ होंगे। अकेले होंगे- अपने सभी भयों, चिंताओं, कर्मों-कुकर्मों के विचार और स्मृतियों के साथ। अपने अँधेरे और अपने उजाले के साथ। इस यात्रा में मार्ग खोजने के लिए अपना दीपक खुद को ही बनना है। यही सच है।
इसको जानना, समझना और शांतचित्त से निःशेष हो जाना ही 'निर्वाण' है। नहीं तो क्या पता, इसके बाद भी भटकना पड़े !
वनगमन, सबके बीच में हुए बिना, 'स्वयं' से 'संघ' तक की यात्रा किए बिना 'अप्प दीपो' होना भी तो संभव नहीं है |स्रष्टा को भी तो 'एकोहं' से 'बहुस्यामः' होना पड़ता है। लेकिन साक्षात्कार-रियलाइज़ेशन संघ-समूह में नहीं हो सकता। निर्वाण सामूहिक नहीं होता, यह व्यक्तिगत उपलब्धि है। सृष्टि न तो पूर्ण रूप से व्यष्टि है, न समष्टि। न धरती है न आकाश। इन दोनों के बीच शून्य-रिक्त जैसा कुछ। धरती से दिखते चाँद-तारे और आकाश से दिखते पेड़। एक रोशन और एक फल-फूल युक्त। तन भी, मन भी और अनंत भी।
बुद्ध दोनों में हैं- संघ में भी और निर्वाण में भी।
तभी तो समस्त ब्रह्मज्ञान के बावजूद वेद का मंत्र भी यही कहता है-
सं गच्छध्वं सं वदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।। - ऋग्वेद. १०.१९१.२
अर्थात् (हे जना:) हे मनुष्यो, (सं गच्छध्वम्) मिलकर चलो। (सं वदध्वम्) मिलकर बोलो। (वः) तुम्हारे, (मनांसि) मन, (सं जानताम्) एक प्रकार के विचार करे । (यथा) जैसे, (पूर्वे) प्राचीन, (देवा:) देवो या विद्वानों ने, (संजानाना:) एकमत होकर, (भागम्) अपने - अपने भाग को, (उपासते) स्वीकार किया, इसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग स्वीकार करो। सीधे-सीधे इसे इस अर्थ से समझें कि (हे मनुष्यो) मिलकर चलो। मिलकर बोलो । तुम्हारे मन एक प्रकार से विचार करें। जिस प्रकार प्राचीन विद्वान एकमत होकर अपना-अपना भाग ग्रहण करते थे, (उसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग ग्रहण करो)। वास्तव में यही संगठन का और परस्पर संवाद का वह मंत्र है जिसके माध्यम से लोक अपने अस्तित्व को साक्षात प्रकट करता है।
अर्थात सामूहिकता सन्मति, संवाद, मतैक्य और अपने भाग से संतुष्ट रहकर, दूसरे का भाग न हड़पने की वृत्ति से ही निभेगी। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)