लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत, पर्यावरणविद
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित लेखक भी हैं)
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प्रकृति पर्व होली रंगों के साथ- साथ उमंग, उल्लास और हर्ष का पर्व भी है। इस पर हर्ष और उल्लास के साथ हमें यह विशेष तौर से ध्यान रखना चाहिए कि रंगों के इस्तेमाल के कारण कहीं हर्ष के स्थान पर यह पर्व विषाद और जीवन भर के एक त्रासद संयोग में न बदल जाये। इसलिए हमें कुदरत के रंगों यानी टेसू, हरसिंगार और सेमल के फूलों को रात भर पानी में भिगोकर बने नारंगी रंगों, चुकंदर को कुचलकर रातभर पानी में भिगोकर बने गुलाबी रंग से, गुलाबी कचनार के फूलों को पानी में उबालकर रातभर रखकर बने गुलाबी रंग से, मेंहदी के पाउडर से बने हरे रंग से, जासवंती के फूलों से बने नीले रंग से, काले अंगूर कूटपीसकर उसके जूस को पानी में मिलाकर बने काले रंग से, रतनजोत पानी में उबालकर बने लाल रंग से और लाल गुलाब पीस छानकर उसमें पानी व खुशबू के लिए गुलाब का इत्र मिलाकर बने खुशबूदार रंगों से होली खेलना व सूखे लाल चंदन को गुलाल के रूप में इस्तेमाल रसायनयुक्त रंगों से खेलने के मुकाबले बहुत लाभदायक और श्रेयस्कर है। कारण न तो इन रंगों से हमें कोई शारीरिक हानि होती है जबकि रसायन युक्त रंगों के इस्तेमाल से न केवल त्वचा रोग के शिकार होते हैं, नेत्र रोग यहां तक कि आखों में जख्म हो जाते हैं,आंखों की रोशनी से भी हाथ धोना पड़ सकता है, साथ ही शवांस,फेफडे़, अस्थमा के रोगियों के लिए यह बेहद खतरनाक होते हैं। असलियत में रसायन युक्त रंग जब हवा और पानी के संपर्क में आते हैं तब पर्यावरण के लिए खतरा बन जाते हैं। इसलिए प्रेम,सदभाव, हर्ष और उल्लास के पर्व की सार्थकता तभी है जब हम प्रकृति के रंगों से होली खेलकर आत्मीयता का परिचय दें। होली पर बच्चों को रसायन युक्त रंगों से बचाना बहुत जरूरी होता है।
दरअसल होली का त्यौहार रितु परिवर्तन का तो परिचायक है ही,फाल्गुन मास में मनाया जाने वाला हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। इसे रंगों के पर्व के रूप में भी जाना जाता है। होली के इस पावन पर्व पर गुलाल का लगाया जाना न केवल धार्मिक कारणों से है बल्कि इसके वैज्ञानिक कारणों को भी नकारा नहीं जा सकता। इसका प्रमुख कारण है कि होलिका दहन के अगले दिन से ही चैत्र मास की शुरूआत हो जाती है। दरअसल इस महीने में रोग फैलाने वाले विषाणु अधिक मात्रा में सक्रिय हो जाते हैं। इसके पीछे रितुओं का संक्रमण अहम है।शीत रितु की विदाई और ग्रीष्म रितु की शुरूआत इन जीवाणुओं को अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं। ऐसे वातावरण में रंगों का इस्तेमाल रोग फैलाने वाले कीटाणुओं-विषाणुओं के दुष्प्रभाव को कम करने में अहम भूमिका का निर्वहन करता है। इसका एक अन्य कारण भी है कि रंगों के इस्तेमाल से शरीर की अच्छी तरह सफाई भी हो जाती है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम होती है।
सच्चाई तो यह है कि यह त्यौहार हमारे देश में कश्मीर से कन्याकुमारी तक ही नहीं वरन् विदेशों में भी जहां भारतीय अधिकांश मात्रा में रहते हैं, वहां अलग- अलग तरीकों से हर्षोल्लास से मनाया जाता है। ब्रज का होली से पुराना सम्बंध है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। इसलिए ब्रज की होली देखने हर साल हजारों की तादाद में विदेशी यहां आते हैं और यहां की लठमार होली जो पारंपरिक प्रेम का प्रतीक है, उसे देखकर मंत्रमुग्ध हो आश्चर्यचकित हो जाते हैं। सच्चाई यह भी है कि कहीं कहीं पर तो लोग गुलाब,डेजी,सूरजमुखी और मैरीगोल्ड की पंखुंडि़यों से भी होली खेलते हैं। हां सबसे अहम बात यह है कि जल संकट के इस दौर में हमें पानी की बर्बादी से बचना चाहिए। क्योंकि यह ध्यान देने वाली बात यह है कि पानी नवीकरणीय स्रोत नहीं है। इसलिए इस पर्व को मर्यादा में रहकर मनायें। यही इस पर्व का पाथेय है।
यहां मर्यादा का सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि देश में कोरोना फिर पैर पसार रहा है। देश के कई राज्य पुनः इसकी भीषण चपेट में हैं। राजधानी दिल्ली भी इसकी भयावहता का शिकार है। हालात की भयावहता इसका जीता-जागता सबूत है। ऐसी स्थिति में होली के पर्व को हमें देश में कोरोना की भयावहता को दृष्टिगत रखते हुए शासन-प्रशासन के दिशा-निर्देशों के अनुसार ही संयम का परिचय देते हुए मनाना चाहिए। होली अपने घरों में परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर मनायें। सार्वजनिक स्थानों पर जाने और एक दूसरे से गले मिलने से बचें। याद रखिये जीवन अनमोल है, ऐसे पर्व और समय जीवन में भविष्य में भी आयेंगे। यदि जीवित रहे तो भविष्य में इन पर्वों को दुगने उत्साह, हर्ष और उमंग से मना सकेंगे। यही आप सबसे विनम्र अनुरोध है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)