कर्नाटक में विधान परिषद् के अध्यक्ष पद की लड़ाई

लेखक : लोकपाल सेठी

(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक)

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आखिर बीजेपी ने राज्य में विधान परिषद् के पद के अध्यक्ष पद की लड़ाई जीत ही ली। यह अलग बात है कि इस पद पर अपनी पार्टी के आदमी को बैठाने के लिए इसके नेताओं को लगभग डेढ़ साल तक इंतजार करना पड़ा। बीजेपी की यह जीत इसलिए भी अहम मानी जाती है क्योंकि राज्य विधान मंडल के ऊपर वाले सदन में पार्टी के पास अपना बहुमत नहीं है। वह यहाँ जनता दल (स) पर निर्भर है। 

सदन में बहुमत नहीं होने की वज़ह से इन डेढ़ वर्षों में उसके कई विधायी कार्य अटके रहे। यहाँ तक कि पार्टी आला कमान के निदेश के बावजूद सत्तारूढ़ पार्टी   गोहत्या विरोधी जैसा कानून पास करवाने के अपने अजेंडे को भी कुछ समय तक टालना पड़ा। आखिर वर्तमान सत्र में शोर-शराबे के बीच और बिना मत विभाजन के उसने यह विधेयक बजट सत्र में पारित करवा ही लिया। 

विधान मंडल की ऊपरी सदन के सभापति पद की लड़ाई सदन के पिछले सत्र के दौरान बड़े जोरो से हुई थी। पर इस दौरान सदन के सभापति प्रतापचन्द्र शेट्टी ने सदन में बीजेपी और उसका समर्थन कर रहे जनता दल (स) की एक नहीं चलने दी। सत्तारूढ़ दल की ओर से जब उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का नोटिस दिया गया। उन्होंने इसे नियमों के विरुद्ध करार देते हुए अस्वीकार कर कर दिया। सत्र के आखरी दिन दोनों दलों के सदस्यों ने शेट्टी को उनके आसन तक नहीं पहुँचने देने की रणनीति अपनायी। 

उन्होंने ऐसी योजना बनायीं कि सभापति के आसन पर पहुँचने से पहले ही उप सभापति धर्मेगौड़ा को आसन पर बैठा शेट्टी के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव पेश कर आनन-फानन में उसे पारित करवा लिया जाये। लेकिन प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने उनकी इस  योजना को कामयाब नहीं होने दिया। किसी तरह आसन तक पहुँच ही गए और उन्होंने शोर-शराबे में सदन की कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी। इससे पहले धर्मेगौड़ा के साथ कांग्रेस के सदस्यों ने जमकर धक्का मुक्की की और उन्हें सरेआम बेइज्जत किया गया। वे इससे इतने आहत हुए कि इस घटना के कुछ ही दिन बाद उन्होंने ट्रेन के नीचे आकर आत्महत्या कर ली। उन्होंने अपने पत्र में कांग्रेस सदस्यों द्वारा सदन में उनके साथ किए गए दुर्व्यवहार को ही अपनी आत्म हत्या का कारण बताया।      

2018 के विधान सभा चुनावों के बाद जब राज्य में कांग्रेस और जनता दल (स) की साझा सरकार बनी तो विधान परिषद के सभापति का पद कांग्रेस के हिस्से में यह आया। जनता दल (स) को उपाध्यक्ष का पद मिला। तब प्रताप चन्द्र शेट्टी सभापति बने और धर्मेगौड़ा को उपाध्यक्ष बनाया गया। 2019 जब बीजेपी कांग्रेस और जनता दल (स) बागी विधायकों के बल जब फिर सत्ता पर काबिज़ होने में सफल रही तो उसके पास विधानसभा में तो बहुमत था लेकिन ऊपरी   सदन में वह बहुमत से बहुत दूर थी। सत्ता से हटने के बाद जनता दल (स) धीरे-धीरे एक बार फिर बीजेपी के निकट आने लगा। ऊपरी सदन में उसने किये मौकों पर बीजेपी का साथ दिया। 

उधर शेट्टी कांग्रेस पार्टी के प्रति अपने वफादारी दिखाने के लिए सत्तारूढ़ दल के विधायी कार्यों में रह रह कर अडंगा लगाते रहे। मुख्यमंत्री येदीयुरिअप्पा ने अनौपचारिक रूप से उन्हें कई बार कहा कि चूँकि अब विधान परिषद् में जनता दल (स) उनका समर्थन कर रहा है और दोनों को मिलाकर उनके पास बहुमत है। इसलिए वे सभापति पद से इस्तीफ़ा दे दें। कई बार सन्देश देने के बाद भी जब शेट्टी ने पद से इस्तीफ़ा नहीं दिया तो दोनों  दलों ने उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला किया। जब उनके खिलाफ अविश्वास के प्रस्ताव का नोटिस दिया गया तो शेट्टी ने अपने कई साथियों से कहा कि वे किसी भी सूरत में अविश्वास प्रस्ताव सदन में पेश करने नहीं देंगे, पारित होने की बात तो दूर रही और उन्होंने ऐसा करके दिखा भी दिया। 

जब वर्तमान बजट सत्र शुरू हुआ तो बीजेपी ने फिर उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी करली थी। इस बार शेट्टी को अंदाज़ हो गया कि वे अधिक दिन तक इस पद पर नहीं रह सकेंगे। इसलिए उन्होंने सभापति पद के इस्तीफ़ा देने का निर्णय कर लिया। जिस दिन सदन खाली पड़े उपाध्यक्ष के पद  पर जनता दल (स) के प्रनेश का चुनाव कर लिया गया तो शेट्टी ने अपने पद से इस्तीफ़ा देने में भी देरी नहीं की। इस प्रकार बीजेपी की बासवाराज के सभापति  पद चुने जाने का रास्ता साफ़ हो गया। 

बताया जाता है  कि शेट्टी ने इस पद पर इस्तीफ़ा पार्टी के बड़े नेताओ की सलाह पर ही दिया। उनका कहना था कि आज नहीं तो कल बीजेपी और जनता दल (स) उनके खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव लाकर उन्हें इस पद से हटा ही देंगे। इसलिए अच्छा यही होगा होगा कि वे खुद आगे होकर पद छोड़ दें। इससे उनका  राजनीतिक और सम्मान बढेगा। अगर वे पद पर बने रहने की जिद्द करते हैं तो यह सन्देश जायेगा कि वे इस महत्वपूर्ण पद पर चिपके रहने चाहते है जबकि  सदन का बहुमत अब उनके साथ नहीं है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)