क्या तिकड़मों से सभी जिम्मेदार बच जायेगें?

लेखक : नवीन जैन (वरिष्ठ पत्रकार) 

इंदौर (एमपी), 9893518228  

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मध्यप्रदेश के सीधी जिले में फरवरी 16 की सुबह जो 47 लोगों की जल समाधि का रूह कंपकांने वाला बस हादसा हुआ, क्या वह महज हादसा या दुर्घटना थी? सीधी सतना मार्ग पर दुर्योग देखिए कि उक्त वाकया ठीक वसंत पंचमी की सुबह हुआ।इसे मानवीय भूल कहकर नहीं टाला जा सकता। इस कथित हादसे को आसानी से रोका जा सकता था। अब जो लोग मानते हैं कि जिसकी जितनी उम्र भगवान ने लिखी होती है, वक़्त उससे एक पल के लिए टस से मस नहीं होता तो, ऐसे लोगों को उनके हाल पर छोड़ना बेहतर।

मीडिया में आ रही तमाम खबरों से ज़ाहिर होता है कि उक्त कथित हादसे के लिए ऊपर से नीचे तक का एक एक जिम्मेदार व्यक्ति जवाबदेह है। अब यह बात अलग है कि उक्त सभी तिकडमी लोग इसकी जिम्मेदारी से ऐन केन प्रकारेण बच निकलें। पहला सवाल तो यह कि 32 सीटर बस में 60 मुसाफ़िर कैसे ठूंस लिए गए। इस तरह की काली कमाई में सभी के हाथ काले होते हैं। मज़ा यह है कि हादसा सड़क सुरक्षा माह के दौरान हुआ। यदि चालक तेज़ रफ़्तार से गाड़ी चला रहा था और यात्रियों के लाख टोकने पर गाड़ी भगाए जा रहा था तो मतलब यह भी क्यों नहीं निकाला जाना चाहिए कि उक्त चालक रफ़्तार से गाड़ी दौड़ाने का आदी था और ऐसा उसने पहली बार नही किया था। आम तौर पर होता यह है कि मालिक के दिए एक अलिखित आंकड़े के अनुसार मुसाफिर भर लिए जाते हैं। जल्दबाजी इसलिए भी की जाती है कि ज्यादा से ज्यादा फेरे लगाने को मिलें। उक्त बस को सीधी से सतना का फेरा लगाना था। आप तो भर लेने की बात कर रहे हैं साहब, लेकिन छोटे मोटे शहरों में तो लोकल यातायात के साधनों में मुसाफ़िरों को लटका तक दिया जाता है। यहाँ तक तो फ़िर भी ठीक है। मगर बच्चों की स्कूल बसों के टकराने से हुई मौतों की खबरें तो कोरोना काल के पहले प्रिंट मीडिया में आना आम हो चुका था। सही है कि इसमें अक्सर मुसाफिरों की भी गलती रहती है, लेकिन यातायात के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराना तो सरकार एवं स्थानीय प्रशासन का दायित्व है, लेकिन विडम्बना हरदम यह देखने में आती है कि तत्काल पीड़ितों के परिजनों को सहायता राशि की घोषणा और जांच बैठाकर औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। कभी-कभी तो उक्त राशि सही हाथों तक पहुंच ही नहीं पाती। सीधी सतना के समान उक्क्त बस सेवाओं के मालिक राजनीतिक लोग, असामाजिक तत्व और सेठिए होते हैं। हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि यदि किसी राज्य में अब भी मुसाफिरों के लिए स्टेट ट्रांसपोर्ट सेवाएं हैं तो सरकारी बसों में से प्रायवेट बस वाले द्वारा  पैसेंजर उतार लिए जाते हैं। एक-एक बस सेवा के मालिक के पास 10 से 15 तक बसें होती हैं, जिनमें होड़ मची रहती है। कई शहरों में तो यात्री बसें ट्रक के समान सामान ढोने का साधन होती हैं। इनके ड्राइवर तो अक्सर महीने भर तक घर ही नहीं जा पाते। लम्बी दूरी के गंतव्य में दो चालक रखे जाने का नियम है, ताकि भरपूर नींद न होने से एक ही चालक गाड़ी चलाते-चलाते ऊँघने नहीं लगे, लेकिन इस तरह के नियम कानून कागज़ पर ही लिखे रखे जाते हैं। नियम तो यह भी है कि ड्राइवर के सामने वाली सीट पर किसी यात्री सोने नहीं दिया जाता, क्योंकि उसकी देखादेखी तुरंत चालक भी अक्सर ऊँघने लगता है। प्रश्न यह भी है कि उक्त चालक पूर्ण से प्रशिक्षित था या नहीं।बस की फिटनेस, चैक अप करने का समय भी आ गया था। बेहूदा तर्क दिया जा रहा है कि मालिक

घर आकर मुसाफिरों को निमंत्रण देने थोड़े न गया था। बस में लदने को तो यात्री पिल पड़े थे। छि: इतना मनचला लेखन तो कोई अधकचरा और कोई मूढ़ मति पत्रकार भी नहीं कर सकता। सोशल मीडिया पर ऐसे कथित पत्रकार इस स्वतंत्र एवं आसान प्लेटफॉर्म का उपयोग इतनी गैर जिम्मेदाराना तरीके से करते हैं कि लगता है। ये मालिकों के चेले या जन सम्पर्क अधिकारी हैं। जिन 20 युवाओं को रेलवेज की नौकरी के लिए परीक्षा देने सतना जाना था क्या वे उक्त बस  में बिना लदे दौड़कर गन्तव्य तक जाते? और कोरोना काल में बिना मास्क और सामाजिक दूरी रखे बिना मुसाफिर बैठ कैसे गए? कहने को जांच बैठा दी गई है। ड्राइवर का लायसेंस रद्द कर दिया गया है। गिरफ्तसर कर लिया गया है और विशेष जगह इस जानकारी को दी गई बस मालिक को जैसे ही उक्त हादसे का पता चला, तत्काल उसे हार्ट अटैक के कारण अस्पताल में दाखिल करवा दिया गया है। (लेखक के अपने विचार एवं अध्ययन है)