जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए वाइट हाउस में जो बिडेन की आमद ज़रूरी


लखनऊ से लेखक : निशांत की रिपोर्ट  


विश्व इतिहास में शायद पहली बार अमेरिकी चुनावी नतीजे इस कदर फंसे हैं कि उस पर चुटकुले तक बन रहे हैं। मसलन किसी ने सोशल मीडिया पर कहा कि जब तक अमेरिका में राष्ट्रपति चुना जायेगा तब तक अपने बिहार का मुख्यमंत्री चुन लिया जायेगा। स्थिति हास्यास्पद सी लग ज़रूर सकती है लेकिन है नहीं।


इसकी गंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि ऐसा पहली बार हुआ है कि वहां के किसी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को इतनी संख्या में वोट मिलें हों। जो बिडेन ने बराक ओबामा का भी रिकॉर्ड तोड़ दिया है मिले वोटों की संख्या के मामले में।


इस अभूतपूर्व वोटिंग रुझान से समझ यही आता है कि वहां की जनता बदलाव चाहती है। बदलाव ज़रूरी भी है क्योंकि यही शायद पृथ्वी  के हित में है। पृथ्वी के हित में इसलिए क्योंकि ट्रम्प के नेतृत्व में अमेरिका पेरिस समझौते से औपचारिक रूप से बाहर हो चुका है। इसका सीधा मतलब हुआ कि जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ वैश्विक लड़ाई में अमेरिका साथ नहीं। और बिना अमेरिका की सक्रिय भूमिका के पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई में जीत बेहद मुश्किल है। तो यह कहना कि पेरिस जलवायु समझौते का भविष्य भी नए अमेरिकी राष्ट्रपति पर टिका है, गलत नहीं होगा।


अगर जो बाइडन, जिनका जीतना फ़िलहाल तय सा लग रहा है, अगर अंततः वाइट हाउस पहुँचते हैं तो अमेरिका की पेरिस समझौते में फिर से वापसी तय है। और ऐसा होने से पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल कर पाना दुनिया के लिए कुछ आसान हो जाएगा। बीते बुधवार को, जहाँ एक ओर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में पड़े मतों की गिनती शबाब पर थी, तो वहीँ उसी वक़्त अमेरिका के पेरिस समझौते से अलग होने की प्रक्रिया भी पूरी हो गई। इस कवायद को राष्ट्रपति ट्रंप ने एक साल पहले शुरू किया था जो अंततः बुधवार को ख़त्म हो गयी। और अगर ट्रंप फिर से राष्ट्रपति बन जाते हैं तो हम सबको बिना अमेरिका के साथ के पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करना होगा।


लेकिन बिडेन के सत्ता में आ जाने से पूरा खेल बदल सकता है। उनके राष्ट्रपति बनने से वो अमेरिकी कांग्रेस के पूर्ण समर्थन के बिना भी, अमेरिका को पेरिस समझौते में फिर से शामिल कर सकते हैं और साथ ही अन्य देशों को जलवायु महत्वाकांक्षा को मजबूत करने के लिए एकजुट कर सकते हैं। बिडेन ट्रम्प के फैसलों को बदलते हुए न सिर्फ़ पर्यावरण नियमों को बहाल कर सकता हैं, बल्कि उन्हें और मजबूत भी कर सकते हैं। जो बिडेन जीवाश्म ईंधन के उपभोग पर लगाम भी कस सकते हैं।


बात अमेरिकी जनता की करें तो इस साल कोविड-19 के चलते मतदाता आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को प्राथमिकता देते दिख रहे हैं। और इस सब के बीच जलवायु ने 2020 के अमेरिकी चुनाव की दशा और दिशा को तय करने में अभूतपूर्व भूमिका निभाई। ऐसा पहली बार हुआ कि जलवायु का मुद्दा वहां सभी आम चुनाव बहसों का मुद्दा बना।


फॉक्स न्यूज के एक एग्जिट पोल में पूछे गए सवालों के बदले मिले जवाबों के मुताबिक़ जहाँ 70 प्रतिशत अमेरिकी मतदाताओं ने स्वच्छ ऊर्जा पर अधिक खर्च को समर्थन दिया, वहीँ 72 प्रतिशत जलवायु परिवर्तन के बारे में चिंतित थे।


बात विशेषज्ञों की करें तो उनके मुताबिक़ अमेरिका की मौजूदगी पेरिस समझौते में बेहद जरूरी है। वजह है यह कि अमेरिका न सिर्फ़ दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक है, वो कुल ग्रीनहाउस गैसों के 15 फीसदी उत्सर्जन के लिए वह अकेले जिम्मेदार भी है। अगर अमेरिका ने अपने उत्सर्जन को कम नहीं किया को दुनिया के लिए पेरिस समझौते के मुताबिक़ सदी के अंत तक तापमान बढ़ोतरी को डेढ़ डिग्री तक सीमित रखना संभव नहीं हो सकेगा। बराक ओबामा ने अपने राष्ट्रपति काल में 2025 तक उत्सर्जन में 28 फीसदी की कमी लाने का ऐलान किया था। लेकिन ट्रंप के पेरिस समझौते से हटने से उस सब पर पानी फिर गया।


और जिन 189 देशों ने पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किया है उनमें से अधिकतर गरीब एवं विकासशील हैं और उनके पास न तो जलवायु खतरों से लड़ने के लिए धन है और न ही तकनीक है। यदि अमेरिका फिर से समझौते में शामिल होता है तो जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ इस लड़ाई के लिए हरित कोष को बड़ी राशि मिल सकती है। फ़िलहाल इस कोष में दस अरब डालर से ज्यादा राशि नहीं पहुंच पा रही है। फ़िलहाल सब कुछ चुनावी नतीजों पर निर्भर करेगा। (लेखक के अपने विचार एवं स्वयं का अध्ययन है)