लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान
http//daylife.page
भारतवर्ष आचार प्रधान देश है। यहां आचार की महत्ता प्राचीन काल से ही मान्य रही है। आचार सम्पन्न व्यक्ति का ही जीवन परिष्कृत एवं व्यवस्थित होता है। आचार के आधार पर अवलम्बित विचार जीवन का परिष्कारक होता है। जैन परम्परा में आचार विषयक गम्भीर चिन्तन तथा आचार संहिता का विश्लेषण प्रचुर रूप में पाया जाता है। भारत का प्रमुख वैषिष्ट्य आचार शास्त्र है। यहां पर आचार के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाष डाला गया है। जीवन की मौलिक आवष्यकताओं को पूर्ण करता हुआ मानव यतनापूर्वक कैसे जीवन जीए तथा अतिचारों से कैसे बचे, इनके उपाय बताए गए है। आचार को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि शिष्ट व्यक्तियों द्वारा अनुमोदित एवं बहुमान्य रीतिरिवाजों को आचार कहते हैं। मनुष्य का जो आचरण है, वही आचार है। यह सदाचार का द्योतक है। भारतीय साहित्य में आचार का महत्त्व भलीभांति दर्शाया गया है। आचार शब्द आ$चर्$घञ् के योग से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है आचरण अथवा अनुष्ठान। यहां व्यवहार, चरित्र, चारित्र, वृत्त, शील, आचार-विचार आदि को आचार के अन्तर्गत परिगणित कर लिया गया है। सदाचार का विरोधी कदाचार है। सदाचार यदि अनुष्ठेय है तो दुराचार हेय है। दुराचार मानव के पतन का प्रमुख कारण है। इसलिये यह सर्वतोभावेन त्याज्य है। सदाचार से मनुष्य पे्रय के साथ-साथ श्रेय को प्राप्त करता है, किन्तु कदाचार से किसी प्रकार पे्रय का लाभ हो भी जाय, तो भी वह अधोगति का मूलकारण होता है। सदाचारी आचार का पालन करते हुये श्रेयस् को प्राप्त करता है, और अन्त में परमगति को प्राप्त करता है-‘आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्। भारत प्रारम्भ से ही विभिन्नताओं का देश रहा है; किन्तु यहां की सांस्कृतिक उदात्तता के कारण इनमें एकता का ही स्वर मुखर रहा । यहां की दो परम्पराएं बहुत ही प्राचीन हैं-वैदिक और श्रमण। श्रमण परम्परा का सम्बन्ध बौद्ध और जैन सम्प्रदाय से है। वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीनों परम्पराओं की अपनी-अपनी सांस्कृतिक पहचान है। प्रत्येक परम्परा का दार्शनिक और आचार सम्बन्धी दृष्टिकोण भी भिन्न-भिन्न है। एक ही देश में और एक ही स्थान पर उत्पन्न, विकसित और फलीभूत होने के कारण एक दूसरे के तत्त्वों को भी इन धर्मों ने ग्रहण किया। इनमें से कौन प्राचीन है और कौन अर्वाचीन यह विवाद का विषय है। यह प्रश्न विवादास्पद इसलिए बना कि श्रमण परम्परा के समर्थक श्रमण परम्परा को प्राचीन प्रमाणित करते हैं और वैदिक परम्परा के समर्थक वैदिक परम्परा को। डा0 लक्ष्मण शास्त्री ने वैदिक संस्कृति को श्रमण संस्कृति का मूल माना है। उनका अभिमत है-”जैन तथा बौद्ध धर्म भी वैदिक संस्कृति की शाखाएं है।
यद्यपि सामान्य मनुष्य इन्हें वैदिक नहीं मानता। सामान्य मनुष्य की इस भ्रान्त धारणा का कारण है कि ये संस्कृतियां वेद विरोधी है। सच तो यह है कि जैनों और बौद्धों की तीनों अन्तिम कल्पनाएं कर्म विपाक, संसार का बन्धन और मोक्ष अन्ततोगत्वा वैदिक ही हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच व्रत आचार के मूलाधार हैं। जैनागमों में आचार विशुद्धि पर बहुत बल दिया गया है। आचार ही साधना का प्राण है। जैनागमों मे आचार के पांच भेद किये गये हैं- 1. दर्शनाचार, 2. ज्ञानाचार 3. चारित्राचार 4. तप आचार 5. वीर्याचार। कहीं-कहीं श्रुतधर्म और चारित्र धर्म के रूप में आचार के दो भेद हैं। कहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के रूप में तीन भेद हैं। कहीं ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार और तपसाचार के रूप में चार भेद किए गए हैं। धर्म क्या है? क्या सभी धर्म मंगल हैं?
अनेक धर्मों में से मोक्ष-धर्म-सत्य-धर्म की पहचान कैसे हो? ये चिर-नित्य प्रष्न रहें हैं। व्यामोह उत्पन्न करने वाले इन प्रष्नों का समुचित समाधान प्रथम श्लोक के दो चरणों में किया गया है। जो आत्मा का उत्कृष्ट हित साधता हो, वह धर्म है। जिसने यह हित नहीं सधता वे धर्म नहीं, धर्माभास हैं। ’धर्म’ का अर्थ है-धारण करने वाला। मोक्ष का साधन वह धर्म है जो आत्मा के स्वभाव को धारण करे। जो विजातीय तत्व को धारण करे वह धर्म मोक्ष का साधन नहीं है। आत्मा का स्वभाव अहिंसा, संयम और तप है। साधना-काल में ये आत्मा की उपलब्धि के साधन रहते हैं और सिद्धि-काल में ये आत्मा के गुण-स्वभाव। साधना-काल में ये धर्म कहलाते हैं और सिद्धि-काल में आत्मा के गुण। पहले ये साधे जाते हैं, फिर ये स्वयं सध जाते हैं।
हमारे देश में आचार का सामाजिक दृष्टिकोण उपलब्ध होता है। यहां व्यष्टि से समष्टि की ओर चलने की बात प्रधान रूप से बताई गयी है। समष्टि व्यष्टि का समूह है, इसलिए समष्टि में सुधार के लिये पहले व्यष्टि का सुधार आवश्यक है। इसी बात को दृष्टिगत कर आचार्य तुलसी ने कहा-सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से राष्ट्र स्वयं सुधरेगा। आचार शास्त्र में सर्वप्रथम व्यक्ति को सुधरने की बात कही गयी है। व्यक्ति के सुधरने से समाज का सुधार होगा और समाज का सुधार होने पर राष्ट्र का सुधार होगा। इसलिए व्यक्ति ही वह महत्त्वपूर्ण इकाई है जिसके सुधार से समाज और राष्ट्र का सुधार सम्भव है। फलस्वरूप सभी दिशाओं से स्वस्थ समाज रचना की कल्पना सामने आ रही है। आचार का दृष्टिकोण प्रधानरूप से व्यक्ति निर्माण अथवा चरित्र निर्माण का है। इस सुधार के प्रमुख सूत्र हैं-दूसरों के अस्तित्व के प्रति संवेदनशीलता, मानवीय एकता, सह अस्तित्व की भावना से स्वस्थ समाज की कल्पना की जा सकती है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)