प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान
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’वेदान्त’ शब्द का अर्थ है- वेद का अन्त। वेदान्त का अर्थ वेद का मन्तव्य, वेद का प्रतिपाद्य सिद्धान्त बताया है। सदानन्द मुनि ने तो “वेदान्तो नामोपनिषद् प्रमाणम्।” इस प्रकार वेदान्त की परिभाषा की है। अन्य विद्वानों ने अधिकतर वेदान्त शब्द का अर्थ वेद की अन्तिम कड़ी उपनिषदों से लिया है। वेदों का सार ही उपनिषदों का विषय है। उपनिषदों में सर्वत्र आत्मा-ब्रह्म पर ही विचार किया है। उपनिषदों के ब्रह्म, आत्म-सम्बन्धी वर्णन के आधार पर आगे चलकर जिस दार्षनिक परम्परा का विकास हुआ वही आगे चलकर वेदान्त नाम से अभिहित की जाने लगी। इस प्रकार वेदान्त शब्द किसी दर्षन सम्प्रदाय नाम का द्योतक नहीं है अपितु सत्य के लिए प्रयुक्त अन्तिम शब्द है। यद्यपि प्रत्येक दर्षन ने अपना वण्र्य-विषय उपनिषद् में ही खोजा है; अतः उपनिषद् तो प्रत्येक दर्षन का उद्गम स्थान है, किन्तु वेदान्त का सम्पूर्ण कलेवर ही उपनिषद् है। उपनिषदों में जो सिद्धान्त यत्र-तत्र असम्बद्ध अवस्था में उपलब्ध हैं, तर्क की कसौटी पर जो कसे नहीं गये, उन्हीं सिद्धान्तों को वेदान्त में सुसम्बद्ध क्रम में तथा तर्क की कसौटी पर कसा गया है। वेदान्त दर्शन का परिचायक सर्वप्रथम ग्रन्थ है-’वेदान्तसूत्र’।
इसका दूसरा नाम ब्रह्मसूत्र भी है। कारण कि इसका प्रधान विषय ब्रह्म का वर्णन है। वेदान्त सूत्रों का अधिष्ठान उपनिषद् है। इसमें उपनिषदों में आये कथनों में एकरसता लाने का प्रयत्न किया गया है। वेदान्त सूत्र अथवा ब्रह्मसूत्र ग्रन्थ वेदान्त दर्षन का स्वरूप निर्धारण मात्र है। जिसका कलेवर पांच सौ पचपन सूत्रों से निर्मित हुआ है। इन सूत्रों में कम से कम शब्द प्रयुक्त हुए है। फलतः स्वतन्त्र रूप से पर्याप्त विशद अर्थ व्यक्त करने में असमर्थ है। भाष्यकारों ने स्वेच्छा से इन सूत्रों का अर्थ किया है। वेदान्त सूत्रों का रचयिता बादरायण को बताया गया है। कतिपय विद्वान् वेदान्त सूत्रों का रचयिता वेदव्यास को बताते हैं और वेदव्यास को बादरायण से भिन्न मानते हैं, किन्तु ऐसी धारणा भ्रान्तिजन्य है। हिन्दू परम्परा के अनुसार वेदव्यास तथा बादरायण अभिन्न व्यक्ति हैं और वही वेदान्त सूत्रों के रचयिता है। इन सूत्रों की रचना कब हुई यह एक विवादास्पद विषय है। दार्षनिकों के मतानुसार वेद जगत् के आदि ग्रन्थ हैं। वैदिक काल में दर्षन का उस रूप में विकास नहीं हुआ था जिसे किसी सुव्यवस्थित आकार में देखा जा सकता है। अतः उसमे ज्ञानमीमांसा, तत्त्वमीमांसा आदि का विकीर्ण रूप उपलब्ध होता है। फिर भी वैदिक साहित्यों के अध्ययन के आधार पर हम कह सकते हैं कि उन्हे क्षिति, जल, तेजस् आदि तत्त्वों के स्वरूप तथा उनके गुणों का ज्ञान था। वहां देवताओं की स्तुति, यज्ञ, आदि का प्रयोजन भी ज्ञान-प्राप्ति बताया गया है।
वैदिक सूक्तों में इन्द्रिय एवं अतीन्द्रिय दोनों प्रकार के ज्ञानों का वर्णन उपलब्ध होता है। उपनिषद् वेद के ज्ञानकाण्ड के अन्तर्गत माने जाते हैं। वस्तुतः उनमे ब्रह्म का ज्ञानस्वरूप ही वर्णित है। उपनिषद् तो ज्ञान का भण्डार है। उनमे प्रतिभाषिक सत्ता के साथ पारमार्थिक सत्ता का निरूपण भी विस्तारपूर्वक मिलता है। इस प्रकार ज्ञानमीामांसा शब्द का उल्लेख चाहे न भी हो, पर उपनिषदों की अपनी ज्ञानमीमांसा है-इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उपनिषद में ब्रह्म विद्या के स्वरूप के प्रंसग में ज्ञान मीमांसीय तत्त्व उपलब्ध होते हंै। उपनिषद् का परम उद्देष्य ब्रह्म का ज्ञान कराना ही है। उपनिषद् में ज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि मन के सहित जब पांचों ज्ञानेन्द्रियां स्थिर हो जाती है और बुद्धि चेष्टा रहित हो जाती है तब वह योग ही परम गति है। सामान्य तथा विशेष रूप से सर्वज्ञ एवं सर्ववेत्ता ईश्वर का तप ही ज्ञानरूप हैं। इसके अतिरिक्त ब्रह्म का स्वरूप भी ज्ञान है, सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म अर्थात् परम तत्त्व की जिज्ञासा ज्ञान उत्पत्ति का मुख्य आधार है। सत्य, ज्ञान स्वरूप अनन्त ब्रह्म ही परम तत्त्व है। सभी आस्तिक दर्शन किसी न किसी रूप में आत्मा के अस्तित्त्व में विश्वास करते हैं, क्योंकि आत्मा के अस्तित्त्व को माने बिना कर्म और पुनर्जन्म की व्याख्या ही नहीं की जा सकती।
आत्मा ही एक ऐसा शाश्वत तत्त्व है जिसके आधार पर मानव अपने अस्तित्त्व को सिद्ध करता है। उपनिषदों में जिस अध्यात्म विद्या का वर्णन है उसका सम्बन्ध आत्मा से ही है। उपनिषदें आत्मविद्या का ही विवेचन करती हैं। उपनिषदों को भारतीय दर्शनों का मूलस्रोत माना जाता है। उपनिषद् ज्ञान प्रधान शास्त्र है। इसमें कर्म और उपासना गौण है। कर्म और उपासना चित्त की शुद्धि और एकाग्रता के लिये आवश्यक हैं। शुद्ध और एकाग्रचित्त में ही आत्मतत्त्व प्रकाशित होता है। इस प्रकार उपनिषद् आत्मस्वरूप के प्रकाशन के सर्वश्रेेष्ठ ग्रन्थ हैं। संसार के त्रिविधतापों और विविध शूलों से बचने का यही एक परम साधन है कि जीव मानव जन्म में दक्षता के साथ साधन परायण होकर अपने जीवन को सदा के लिये सार्थक कर ले। मनुष्य जन्म के सिवा और जितनी योनियां हैं, सभी केवल कर्मों का फल भोगने के लिये ही मिलती हैं। इस उपनिषद् वचन के अनुसार मानव जीवन का परम लक्ष्य आत्मामृत की प्राप्ति ही है। वह आत्मा दो प्रकार की है, एक जीवात्मा दूसरी परमात्मा। परमात्मा या ईश्वर सर्वज्ञ है, और एक है। जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न व्यापक और नित्य है। वेदान्त के अनुसार आत्मा नित्य शुद्ध-बुद्ध मुक्त है। वह सच्चिदानन्द बताया गया है। अपराविद्या वेद, व्याकरण, निरूक्त, छंद, ज्येातिष आदि शास्त्रों का ज्ञान है और परा विद्या केवल अक्षरब्रह्म का ज्ञान है। अक्षरब्रह्म का ज्ञान हो जाने पर मानव इस संसार सागर से पार हो जाता है। वेदान्त दर्शन का यही मूल है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं विचार हैं)