पतंजलि का अष्टांग योग

प्रो. (डॉ.) सोहन राज तातेड़ एक योगी, पुरुषार्थी, ध्यानी, परोपकारी और शिक्षा जगत् में एक जाना पहचाना नाम है। प्रो. तातेड़ एक ऐसा आदर्श व्यक्तित्व है जिन्हें शिक्षा, सेवा, सुधारवाद का अक्षयकोष कहा जा सकता है उनके जीवन की दिशाएं बहुआयामी हैं। उनके जीवन की धारा एक दिशा में प्रवाहित न होकर विविध दिशाओं में प्रवाहित हुई है। यही कारण है कि कोई भी महत्वपूर्ण क्षेत्र इनके जीवन से अछुता नहीं रहा है। योग को यदि सम्यक् स्वरूप प्रदान करने का श्रेय किसी को जाता है तो वे हैं-महर्षि पतंजलि।



प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़ 
पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


(daylife.page)


प्रो. (डॉ.) सोहन राज तातेड़ एक योगी, पुरुषार्थी, ध्यानी, परोपकारी और शिक्षा जगत् में एक जाना पहचाना नाम है। प्रो. तातेड़ एक ऐसा आदर्श व्यक्तित्व है जिन्हें शिक्षा, सेवा, सुधारवाद का अक्षयकोष कहा जा सकता है उनके जीवन की दिशाएं बहुआयामी हैं। उनके जीवन की धारा एक दिशा में प्रवाहित न होकर विविध दिशाओं में प्रवाहित हुई है। यही कारण है कि कोई भी महत्वपूर्ण क्षेत्र इनके जीवन से अछुता नहीं रहा है। योग को यदि सम्यक् स्वरूप प्रदान करने का श्रेय किसी को जाता है तो वे हैं-महर्षि पतंजलि। योग को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि ने कहा-चित की वृतियों का निरोध योग है। योगदर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है-अष्टांग योग।


अष्टांग योग का निरूपण शरीर, मन आदि की शुद्धि करते हुए क्रमशः आत्म-स्वरूप में स्थित होने के लिए किया गया है। पातंजल योगदर्शन के अनुसार ‘योगश्चितवृति निरोधः’ अर्थात् चित की वृतियों का निरोध ही योग है। महर्षि पतंजलि का मूल ग्रंथ पातंजल दर्शन जो कि सूत्र रूप में लिखा हुआ है को चार भागों में विभाजित किया गया है, जो इस प्रकार है-समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद। कुल सूत्रों की संख्या-195 है।


योग दर्शन मूल रूप से महर्षि पतंजलि के द्वारा प्रतिपादित है। उन्होंने योग को आठ भागों में विभाजित किया। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। जो अवांछनीय कार्यों से निवृत्त कराते हैं, वे यम कहलाते हैं। निवृत्तिमूलक यम पांच है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। प्राणिमात्र के प्रति किसी भी समय, किसी भी प्रकार का (कायिक, वाचिक या मानसिक) हिंसात्मक व्यवहार न करना ’अहिंसा’ है। जीव हिंसा न करना अभाव रूप अहिंसा है और जीवों के साथ मैत्री, मुदिता, प्रमोदभावना, प्रेमभावना का प्रदर्शन भाव रूप अहिंसा है। मन एवं वचन की एकाग्रता को ’सत्य’ कहते हैं। अस्तेय से स्तेय की निवृत्ति होती है। स्तेय का अर्थ चोरी करना है, इसके विरोधी ’अस्तेय’ का अर्थ चोरी न करना है।



इस प्रकार धन का संग्रह करते हुए शास्त्रीय विधान का उल्लंघन न होना अस्तेय है। ब्रह्मचर्य व्रत के द्वारा काम वासना को उद्दीप्त होने से बचाया जाता है। उपस्थेन्द्रिय-विषयक संयम को ब्रह्मचर्य कहा जाता है। अपरिग्रह व्रत से पदार्थ-संग्रह की सनक का दमन किया जाता है। आवश्यकता से अधिक द्रव्य का ग्रहण न करना अपरिग्रह है। जो शुभ कार्यों में प्रवृत्त कराते हैं, वे नियम कहलाते हैं। प्रवृित्तमूलक नियम पांच प्रकार का हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्राणिधान। जिस अवस्था में शरीर अपेक्षित समय तक सुख से रह सके, उसे ’आसन’ कहतेे हैं। जितने प्रकार की जीव जातियां हैं उतने ही प्रकार के आसन है। वे आसन इस प्रकार हैं-पद्मासन, सिद्धासन, भद्रासन, वीरासन, स्वास्तिकासन, सिंहासन, दण्डासन आदि। श्वास, प्रश्वास आदि की गति के नियंत्रण को प्राणायाम कहते हैं। शास्त्रीय शब्दों में श्वास प्रश्वास का गतिविच्छेद ’प्राणायाम’ है।


महर्षि पतंजलि ने प्राणायाम के चार भेद किये हैं-बाह्यवृत्तिरेचक, आभ्यन्तरवृत्तिपूरक, स्तम्भवृत्तिकुम्भक तथा बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी कुम्भक। इन्द्रियों को अपने अपने विषयों से हटाकर उन्हें अन्तर्मुखी बनाना ’प्रत्याहार’ है। योग सूत्र में कहा है कि इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन का वश में रखना ही प्रत्याहार है। किसी देश विशेष में चित्त के स्थिरीकरण को ’धारणा’ कहते हैं। बाह्य तथा आन्तरिक किसी भी विषय में चित्त को बांध देना या लगा देना ही धारणा है। धारणा के देश विशेष में जब ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से होने लगता है, तब उसे ’ध्यान’ कहते हैं। अर्थात् वृत्यन्तर-शून्य चित्त का ध्येय विषयक सदृश प्रवाह ’ध्यान’ होता है। जब ध्यान ध्येय मात्र का प्रकाशक तथा अपने ध्यानाकार रूप से रहित जैसा हो जाता है तब उसे ’समाधि’ कहते हैं। चित्त की एकाग्रता की इस सर्वोंत्कृष्ट अवस्था मंे ध्याता-ध्यान ध्येय का त्रिपुटीभान नहीं रहता।



योग के द्वारा स्वास्थ्य प्रबंधन की वैज्ञानिक विधि शास्त्रों में वर्णित है। इसमें प्रमुख है- शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, भावनात्मक स्वास्थ्य, आध्यात्मिक स्वास्थ्य और सामाजिक स्वास्थ्य। मानव और पशु-पक्षियों में अंतर यह है कि पशु-पक्षी प्रकृति की गोद में रहते है और उन्हीें से स्वास्थ्य लाभ करते है। किन्तु मानव के लिए अनेक चिकित्सालय बनाये गये है जहां पर वह अपना स्वास्थ्य लाभ लेता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि मानव प्रकृति से दूर होता चला जा रहा है। शरीर पंचतत्वों से बना हुआ है और इन पांचों तत्वों में किसी भी प्रकार का विकार आने पर मनुष्य अपने को अस्वस्थ महसूस करने लगता है।


यदि प्रकृति के सहारे वे अपने जीवन को यापन करें तो प्रकृति स्वास्थ्य लाभ देने में सक्षम है। शारीरिक तंत्रों को सुव्यस्थित करना शारीरिक स्वास्थ्य कहलाता है। जब इन तंत्रों में असंतुलन आ जाता है तो मनुष्य अस्वस्थ हो जाता है। मानसिक स्वास्थ्य का संबंध हमारी विचार प्रणाली से है। विधेयात्मक और नकारात्मक विचार मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े हुए है। परस्परोपग्रहो जीवानाम् अर्थात् हर जीवों के साथ मैत्री व्यवहार करना मानव का धर्म है। सूर्योदय के पहले उठकर अपनी ईष्ट का ध्यान करना। सभी के प्रति मंगल कामना करना भावनात्मक स्वास्थ्य है। आत्म चिंतन करना, सभी प्राणियों में आत्मभाव को देखना और आत्मरमण करना आध्यात्मिक स्वास्थ्य है। समाज का हितचिंतन करना सामाजिक स्वास्थ्य है। (लेखक के अपने विचार हैं)