(डे लाइफ डेस्क)
आज मानवीय जीवन से प्रेरित पक्षी गौरय्या अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। यदि बाॅम्बे नेचुरल हिस्ट्र्ी सोसाइटी से सम्बद्ध रहे विख्यात पक्षी वैज्ञानिक आर. जे. रंजीत डैनियल, असद रफी रहमानी और एस. एच. याह्या की मानें तो हमारी बदलती जीवन शैली और उनके आवासीय स्थानों के नष्ट हो जाने ने गौरय्या को हमसे दूर करने में अहम भूमिका निबाही है। ग्रामीण अंचलों में आज भी 30 फीसदी ही उसके दर्शन हो पाते हैं लेकिन महानगरों में उसके दर्शन दुर्लभ हैं। बहुमंजिली इमारतों का इसमें अहम योगदान है। कारण गौरय्या 20 मीटर से अधिक उंची उड़ ही नहीं पाती। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज उसके अस्तित्व पर संकट है। अंर्तराष्ट्र्ीय प्रकृति संरक्षण संघ भी इसकी पुष्टि करता है। इस बारे में बीते बीस सालों से प्रति वर्ष दो हजार से अधिक घोंसले बंटवाने वाले पर्यावरणविद सुबोध नंदन शर्मा का कहना है कि आज हालत यह है कि अब घोंसलों में गौरय्या नहीं, बल्कि और चिड़ियां अपना बसेरा बना रही हैं। खुद को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली गौरय्या की तादाद आज भारत ही नहीं योरोप के कई बडे देशों यथा ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी में तेजी से घट रही है। नीदरलैंड में तो इसे दुर्लभ प्रजाति की श्रेणी में रखा गया है। गौरय्या की घटती तादाद के पीछे खेतों में कीटनाशकों का छिड़काव भी प्रमुख कारण है। कीटनाशकों के चलते खेतों में छोटे-पतले कीट जिन्हें आम भाषा में सुण्डी कहते हैं, जिन्हें गौरय्या जन्म के समय अपने बच्चों को खिलाती है, वह अब उसे नहीं मिल पाते हैं। आर. जे. रंजीत डैनियल के अनुसार गौरय्या धूल स्नान करती है। यह उसकी आदत है। वह शाम को सोने से पहले जमीन में तश्तरी के आकार का एक गड्ढा खोदकर उसमें धूल से नहाती है। इससे उसके पंख साफ रहते हैं और उनमें रहने वाले कीट परजीवी मर जाते हैं। कंक्र्रीटीकरण के चलते शहरों में उसे धूल नहीं मिल पाती। मानवीय गतिविधियों और रहन-सहन में हुए बदलावों के चलते उसे शहरों में भोजन आसानी से नहीं मिल पाता, न वह आधुनिक किस्म के मकानों में घोंसले बना पाती है, क्योंकि उनमें घोंसले बनाने लायक सुरक्षित जगह ही नहीं होती। शहरों में बने मकानों में उसे भोजन ढूंढना बहुत मुश्किल होता है। शहरों में मिट्टी की उपरी सतह जिसमें नरम शरीर वाले कीड़े रहते हैं, मलबे, कंक्रीट और डामर से ढंकी होने के कारण उसे नहीं मिल पाते। यही कारण है कि गौरय्या शहरों से दूर हो गई है और उसकी तादाद दिनोंदिन घटती जा रही है।
मुझे आज से पांच दशक पहले का समय याद आता है, जब अपने घर के आंगन में घर के लोगों को गौरय्या का फुदकना, चहचहाना बहुत भाता था। लेकिन आज ऐसा लगता है कि उसके बिना घर का आंगन सूना है। असलियत में भारत, यूरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और कई अमरीकी देशों में पायी जाने वाली गौरय्या अब महानगरों की बात दीगर है, कस्बों और गांवों से भी लुप्त हो चुकी है। यदि कहीं कभी-कभार उसके दर्शन हो गए तो आप अपने को खुशकिस्मत समझिये। दरअसल हमारी घरेलू गौरय्या यूरेशिया में पेड़ों पर पायी जाने वाली गौरय्या से काफी मिलती है। देखा जाये तो केवल छोटे कीड़े और बीजों के ऊपर निर्भर तकरीब 4.5 इंच से 7 इंच के बीच लम्बी और 13.4 ग्राम से 42 ग्राम के करीब वजन वाली घरेलू गौरय्या कार्डेटा संघ और पक्षी वर्ग की चिड़िया है। इसका रंग भूरा-ग्रे, पूंछ छोटी और चोंच मजबूत होती है। इसे सिर के उपर और नीचे का रंग भूरा, गले चैंच और आंखों के पास काला रंग होता है। इसके पैरों का रंग भूरा होता है। हमारे देश में जहां तक इसकी तादाद का सवाल है, विडम्बना है कि गौरय्या से सम्बंधित सरकार के पास कोई जानकारी नहीं है। यदि बात योरोप की करें तो वहां चिड़ियों-पक्षियों की संख्या की जानकारी के लिए एक पूरा तंत्र मौजूद है लेकिन दुख है कि गौरय्या के बारे में यह तंत्र भी नाकाम साबित हुआ है। यदि बीते सालों में कुछ निजी आंकलन-अनुमानों पर गौर करें तो पता चलता है कि वहां कुछेक सालों में ही तकरीब 85 प्रतिशत गौरय्या की तादाद में कमी आई है।
गौरतलब है कि गौरय्या एक घरेलू चिड़िया है जो सामान्यतः इंसानी रिहायश के आसपास ही रहना पसंद करती है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंध स्पैरो, डेड सी या अफगान स्क्रब स्पैरो, ट्र्ी स्पैरो या यूरेशियन स्पैरो और रसेट या सिनेमन स्पैरो ये छह प्रजातियां पायी जाती हैं। घरेलू गौरय्या को छोड़कर अन्य सभी उप कटिबंधीय और सम सीतोष्ण क्षेत्रों में पायी जाती हैं। असलियत यह है कि कम से कम आठ विविध वंशों यानी जीनस के पक्षियों को गौरय्या कहा जाता है। इसकी विलुप्ति के पीछे अनगिनत कारण हैं। सबसे पहला कारण तो आदमी में प्रकृति और इसके प्रति भावनात्मक जुड़ाव का अभाव और उसके रहन-सहन के तरीकों में बदलाव है। नए-नए तरीकों के बनते बहुमंजिला मकानों की वजह से उनकी छतों पर गौरय्या को अपने घौंसले बनाने की जगह ही नहीं रही। घर की स्त्रियों द्वारा गेंहूं भिगोकर घर के आंगन मंे सुखाने की प्रवृत्ति के ह्वास के चलते गौरय्या ने घरों से मुंह मोड़ लिया। देश में दिन-ब-दिन बढ़ती टाॅवर संस्कृति और पर्यावरण प्रदूषण के कारण इनकी संख्या कम हो रही है। बढ़ते मोबाइल टाॅवरों के विकिरण के कुप्रभाव से गौरय्या के मस्तिष्क और उनकी प्रजनन क्षमता पर घातक असर पड़ा है। साथ ही वे दिशा भ्रम की शिकार होती हैं सो अलग। इससे और विकसित व विकासशील देशों में अनलेडैड पेट्रोल के बढ़ते चलन जिसके ईंधन के बाई प्रोडक्ट शिशु गौरय्या के प्रिय आहार छोटे कीड़ों को खत्म कर देते हैं। दरअसल अनलेडैड पेट्रोल के जलने से बनने वाले मिथाइल नाइट्रेट नाम के बेहद जहरीले यौगिक से छोटे-मोटे कीड़े-मकौड़े खत्म हो जाते हैं। ये गौरय्या को बेहद प्रिय हैं जिन्हें वह बड़े चाव से खाती है। जब वे ही उसे खाने को नहीं मिलेंगे तो वह जियेगी कैसे। इसकी तादाद में आई बेतहाशा कमी ने इस प्रजाति के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिये हैं। इन हालात में एैसा लगता है कि अब वह दिन दूर नहीं जबकि गौरय्या के दर्शन ही दुर्लभ न हो जायें।
दरअसल बीते डेढ़-दो दशक से गौरय्या की तादाद में जो अभूतपूर्व कमी देखने में आयी है, वह चिंतनीय है। आज बच्चे अपनी कालोनियों में गौरय्या को ढूंढते रहते हैं। गौरय्या की घटती तादाद के लिए घौंसले बनाने की खातिर कबूतरों से संघर्ष, माइक्रोवेव प्रदूषण, शहरों में बढ़ता बिजली के तारों का जाल, बार-बार उसका घर छिनने, उसे तोड़कर बर्बाद कर दिया जाना, डिब्बाबंद आहार और सुपर मार्केट संस्कृति का बढ़ना वे अहम् कारण हैं जिसके चलते वह हमसे दूर होती जा रही है। यह कहना कुछ को अतिश्योक्ति लगे लेकिन मौजूदा हालात और इंसान के आसपास का वातावरण यह साबित करता है कि कुछ-न-कुछ गड़बड़ जरूर है। सच यह है कि अक्सर घर-परिवारों के आस-पास रहना पसंद करने वाली गौरय्या के लिए आज बढ़ते शहरीकरण और मनुष्य की बदलती जीवन शैली में कोई जगह रह ही नहीं गई है। आज व्यक्ति के पास इतना समय ही नहीं है कि वह अपनी छतों पर कुछ जगह ऐसी खुली छोड़े जहां वे अपने घौंसले बना सकंे। वह इतना ही करें कि नालियों, डस्टबिन व सिंक में बचे हुए अन्न के दानों को बहने देने से बचाये और उनको छत पर खुली जगह पर डाल दे ताकि उनसे गौरय्या अपनी भूख मिटा सके। यही कारण है कि आज उसके भूखों मरने की नौबत आ गई है।
आज सरकार में एैसा कोई नेता नहीं है जो पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील हो और उनके बारे में कुछ जानकारियां रखता हो, उन्हें पहचानता हो। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जितनी भी प्रशंसा की जाय, वह कम है। एक बार भरतपुर प्रवास के दौरान उन्होंने केवलादेव पक्षी विहार में तकरीब 80 चिड़ियों को उनके नाम से पहचान कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। देखा जाये तो गौरय्या को बचाने के बारे में आजतक किए गए सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। केवल 20 मार्च को विश्व गौरय्या दिवस मनाने से कुछ नहीं होने वाला। ‘हैल्प हाउस स्पैरा’ के नाम से समूचे विश्व में चलाये अभियान में सरकार का नकारात्मक रवैय्या चिंतनीय है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का तो यह राजकीय पक्षी है। दुख यह है कि इस बारे में सब मौन हैं। इन हालातों में गौरय्या आने वाले समय में किताबों में ही रह जायेगी, इसमें दो राय नहीं। (लेखक के अपने विचार हैं)
ज्ञानेन्द्र रावत
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं पर्यावरणविद्
इंदिरापुरम्, गाजियाबाद-201010, (उ.प्र.)
मोबाइल: 9891573982