सत्य की खोज में लोग अमर हो जाते है

स्वयं सत्य खोजें  



प्रोफेसर (डॉ.) सोहन राज तातेड़


पूर्व कुलपति सिंघानिया विश्विद्यालय, राजस्थान


 
भारतीय संस्कृति सत्य की उपासक है। इसमें सत्य को ईश्वर  कहा गया है। हमारे देश  में सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र हुए। जिनकी सत्यवादिता का उदाहरण आज प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जाता है। महाराज दशरथ ने सत्य के लिए प्राण त्याग दिये। भगवान राम सत्य के लिए राज पाट छोड़कर चैदह वर्ष तक वन में वास किया। प्राण जाये पर वचन न जाये रघुकुल की परम्परा थी। सत्य के लिए ऋषि मुनि महात्मा लोग प्रकृति के अंचल में रहकर उपासन करते है और सत्य को प्राप्त करते है। सत्य के स्वरूप को समझने के लिए यह आवश्यक है कि इसके बाह्य स्वरूप और आंतरिक स्वरूप का परीक्षण किया जाये। एक तो है बाहर का सत्य जिसे हम अपनी स्थूल आंखों से देखते है। एक ही वस्तु को कोई सत्य कहता है और कोई असत्य। कोई सत्य असत्य का मिथुनीकरण कर देता है। बाह्य सत्य पूर्ण सत्य नहीं होता। वस्तु का स्वरूप जिसको जैसा दिखाई देता है उसी रूप में वह सत्य को स्वीकार करता है। किन्तु आंतरिक सत्य एकसमान होता है। वहां सत्यं शिवं सुन्दरम् की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। 


सत्य व्यक्ति की समाज में प्रतिष्ठा होती है। न्यायालयों में न्यायाधीश सत्य का ही परीक्षण करता है। एक झूठ को छिपाने के लिये अनेक झूठ बोले जाते है। जिससे सत्य का स्वरूप ही छिप जाता है। सत्य की पहली पाठशाला परिवार से शुरू होती है। महाभारत के एक कथानक के अनुसार जब अभिमन्यु अपनी मां के गर्भ में थे तो उन्होंने मां के गर्भ में ही माता-पिता के संवाद को सुना था। इसलिए मां ही सत्यधर्म को बतलाने की पहली पाठशाला है। माता ही बच्चों में संस्कार डालती है और जैसा संस्कार बच्चों में शैषवावस्था में डाला जाता है वैसा ही बालक आगे चलकर होता है। महात्मा गांधी सत्य के पुजारी थे। उनकी माता पुतली बाई ने उन्हें सत्य अहिंसा का जो उपदेश बचपन में दिया था वह उनके लिए पाथेय बन गया और आजीवन उन्होंने अपने जीवन में अपनाया। सत्याग्रह से उन्होंने देश को आजाद किया। न्यायालयों में आज भी गीता पर हाथकर सत्य की शपथ दिलायी जाती है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि वादी-प्रतिवादी सत्य ही बोलें। जिससे किसी के साथ अन्याय न हो। जितनी गहराई में जाकर सत्य को खोजा जाता हैै उतना ही उसका स्वरूप स्पष्ट होता है। कबीरदास जी ने लिखा है- 


जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा रहा किनारे बैठ।।


सत्य हमारे अंदर रहता है और वाणी के द्वारा उसका व्यवहार किया जाता है। पहले चिंतन फिर मनन फिर वाणी का व्यवहार चिंतन व्यवहार से पहले होता है। जब आदमी आत्मा के स्तर पर जीवन व्यतीत करने लगता है तब वह सत्य भाषण करता है। भगवान बुद्ध, भगवान महावीर स्वामी सत्य की खोज में जगह-जगह भटके घोर साधन की। किन्तु अंत में उन्होंने यह निश्चय किया कि सत्य बाहर नहीं अंदर है। 



इसलिए आंतरिक सत्य को देखकर और समझकर उसको प्राप्त करने का प्रयास किया और अंत में उस सत्य को प्राप्त किया। अप्पणा सच्च मे सेज्जा मेत्ति भूयेसु कप्पए। सभी प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखना और सबको समान देखना सबसे बड़ा सत्य है। इसे आत्म तुला का सिद्धांत कहते है। प्राणियों को सुख प्रिय है इसलिए उसका वियोग नहीं करना चाहिए और दुःख अप्रिय है इसलिए उसका संयोग नहीं करना चाहिए। इष्ट का वियोग और अनिष्ट का संयोग होने पर दुःख की अनुभूति होती है। अनुकूल और प्रतिकूल दशाओं में सुख और दुःख की अनुभूति होती है जो व्यक्ति अपने को या अपनी आत्मा को जानता है वह अन्य प्राणियों की हिंसा नहीं करता। जड़ और चेतन का यह अंतर ही वास्तविक सत्य का ज्ञान है। आत्मा अमूर्त है और भौतिक तत्व मूर्त। आत्मा और भौतिक तत्वों में भेद है। 


आत्मा भिन्न और शरीर भिन्न है। गीता में भी बताया गया है कि आत्मा पूर्ण सत्य है। आत्मा को न तो जलाया जा सकता है न भिगोया जा सकता है। वायु न तो आत्मा को सुखा सकती हैै और न ही पानी इसको गीला कर सकता है। आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप है। आत्मा के साथ कर्म का बंधन होने पर आत्मा पर कर्मों का आवरण पड़ जाता है। जैसे एक मेज पर रखी हुयी वस्तु को चादर से ढ़क दिया जाये तो वस्तु का स्वरूप आंखों से ओझल हो जाता है किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि मेज पर वस्तु ही नहीं है। जैसे ही चादर को हटाया जाता है वस्तु का स्वरूप नेत्रगोचर होने लगता है। 


शरीर आवरण है और आत्मा इसका सत्य जो प्राणी इस सत्य को जानता है वह कभी नहीं मरता। कबीरदास महाज्ञानी थे। उन्होंने इस सत्य को पहचान लिया था। उनका कहना था कि आत्मा अजर-अमर है। वे कहते है- हम न मरव मरिहैं संसारा हमको मिला जियावन हारा। अर्थात् हमें आत्मा का पूर्ण ज्ञान हो गया है। आत्मा कभी नहीं मरती। विनाश तो शरीर का होता है। यही पूर्ण सत्य है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को धारण करती है। आत्मा शाश्वत है और शरीर नश्वर। यही पूर्ण सत्य की खोज है। इसी सत्य को संत लोग खोजते है और अमर हो जाते है। (लेखक के अपने विचार है)