कोरोना से उपजी चुनौतियों के समाधान का सवाल


(डे लाइफ डेस्क)


आज वैश्विक महामारी कोरोना समूची दुनिया के 188 देशों में अभी तक तकरीब 3 लाख 8842 से अधिक लोगों की जान ले चुका है और 45 लाख 74 हजार 902 से ज्यादा संक्रमित हैं। कोरोना से होने वाली मौतों के मामले में अमेरिका सबसे उंचे पायदान पर है। वहां अभी तक 87 हजार 643 से अधिक मौतें हो चुकी हैं और 14 लाख 45 हजार 867 से ज्यादा कोरोना संक्रमित हैं। दुनिया में कोरोना से होने वाली मौतों का आंकड़ा दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। हमारे यहां अभी तक कोरोना से होने वाली मौतों का आंकड़ा 2760 और कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा 86 हजार 595 से अधिक है। बीते दस दिनों में इसमें हुई तेजी से बढ़ोतरी भयावह खतरे का संकेत है। यदि 60 साल से अधिक उम्र वालों की बात करें तो इस उम्र के लोगों के लिए यह खतरा काफी बढ़ जाता है। अकेले योरोप में ही तकरीब 96 फीसदी सीनियर सिटीजन कोरोना संक्रमित हैं। सच्चाई यह है कि समूची दुनिया में कोरोना संक्रमितों की तादाद सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है। कोरोना के खात्मे की समय सीमा के बारे में बहुतेरे बयान और दावे सामने आ रहे हैं जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही कह चुका है कि इस महामारी से छुटकारा फिलहाल सितम्बर महीने से पहले संभव नहीं है। हमारे देश में राजधानी दिल्ली सहित देश के अन्य राज्यों के साथ महाराष्ट्र्, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और उत्तर प्रदेश में संक्रमितों की तादाद में आये-दिन तेजी से होती जा रही बढ़ोतरी गंभीर चिंता का विषय है। 


हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। गौरतलब है कि जीवन के अधिकार में स्वस्थ जीवन का अधिकार भी शामिल है लेकिन नई सदी और नए दौर में इस ओर किसी का ध्यान न दिया जाना बहुत बड़े सवाल खड़े करता है। असलियत यह है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली के चलते लोगों को गुणवत्ता पूर्ण चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती। उस स्थिति में जबकि हमाारा देश छह लाख डाक्टरों और 20 लाख नर्सों की कमी से जूझ रहा है। अमेरिका के सेन्टर फाॅर डिसीज डायनामिक्स, इकोनोमिक्स एण्ड पाॅलिसी यानी सीडीडीईपी और दि हैल्थ वर्क फोर्स इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार हमारे यहां दस हजार लोगों पर एक डाक्टर है, जबकि डब्ल्यूएचओ के अनुसार एक हजार पर एक डाक्टर होना चाहिए, एंटीबायोटिक दवाओं को उचित तरीके से देने के लिए प्रशिक्षित स्टाफ की कमी और एंटीबायोटिक नहीं मिलने से ज्यादा मौतें होना जगजाहिर है। फिर दुर्लभ बीमारियों के लिए यहां फंड ही नहीं है। नीति आयोग का मानना है कि केन्द्र सरकार को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 फीसदी चिकित्सा क्षेत्र में खर्च करना चाहिए लेकिन खर्च 1.15 फीसदी ही किया जा रहा है।  
दरअसल कोरोना नामक इस महामारी ने अनेकानेक बुनियादी सवालों को हमारे सामने खड़ा कर दिया है। कोरोना के दौरान जहां आजीविका के मौजूदा माॅडल से जुड़े कुछ बुनियादी सवाल खड़े किए हैं, वहीं पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान को लेकर न केवल दिशाबोध के संकेत दिए हैं बल्कि उनके समाधान की दिशा में मार्गदर्शन देने का काम भी किया है।


इस अवधि में पर्यावरण के क्षेत्र में जो अभूतपूर्व बदलाव हुए हैं, उसकी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था। उससे यह संकेत तो स्पष्ट है कि लाॅकडाउन के प्रभावों को हमें सीमित दायरे में रखकर कदापि नहीं देखना चाहिए। उन्हें बहुसंख्य समाज के स्थायी हित, सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समरसता और पर्यावरण की दृष्टि से देखना-समझना-परखना चाहिए और समग्र अध्ययन के द्वारा उन सवालों के उत्तर देश की बहुसंख्य आबादी के हित में खोजे जाना चाहिए। लाॅकडाउन के दौर में जहां बहुतेरे छोटे-बड़े कारखाने,, कंपनियां, मंझोले, कुटीर उद्योग बंद हुए, जिसके परिणाम स्वरूप लाखों कुशल,अर्ध-कुशल , कामगार व दिहाड़ी मजदूर बेरोजगार हुए। रोजी-रोटी की अपर्याप्तता की आशंका ने कानून की पाबंदियों को दरकिनार कर उन्हैं दुधमुंहे बच्चों व परिवार के साथ सैकड़ों-हजारों किलोमीटर की यात्रा के लिए नंगे पैर पलायन को विवश होना पड़ा। इसे हम रिवर्स पलायन कह सकते हैं जो आज भी थमा नहीं है। पलायन के दौर की दुश्वारियों और उसकी भयावहता को देख रोंगटे खड़े हो जाते हैं, दिल दहल जाता है और यह सोचने को विवश कर देता है कि यह सब सरकार की गलत नीतियों का ही दुष्परिणाम है। इससे उबर पाना आसान नहीं है।


यह रिवर्स पलायन महानगरीय रोजगार से मोहभंग का सबूत तो है ही, इसने सही मायने में देश की आत्मा को झकझोड़ने का काम किया है। ऐसा लगता है कि उसे अब वह सपना खण्ड खण्ड होता नजर आ रहा है जब वह गांव से रोजगार के कम होते अवसरों के कारण महानगरों में रोजगार में सामाजिक समरसता और स्थायित्व की तलाश में गया था। वह अब भली भांति समझ चुका है कि नगरीय रोजगार में मजदूर और मालिक यानी नियांेक्ता का सम्बंध केवल और केवल व्यावसायिक ही होता है। कोरोना के संक्रमणकाल ने उसे यह समझने का बखूबी अवसर प्रदान किया है। यह भारतीय ग्रामीण अर्थ व्यवस्था जो अब अपनी क्षमता खो चुकी है और जिसने संकटकाल में भी भारतीय समाज को बिखरने से बचाने और एकजुट रखने का ऐतिहासिक काम किया था, वह आज उसी में अपनी सामाजिक सुरक्षा की उम्मीद तलाश रहा है। यही वह अहम् वजह है जिसके कारण अब वह यह कह रहा है कि यदि गांव में उसे रोजगार मिले तो वह कभी गांव के बाहर जाना नहीं चाहेगा। रिवर्स पलायन का एक यह अहम् कारण भी है। लेकिन यह उतना आसान भी नहीं है। कारण भारतीय अर्थ व्यवस्था के पुराने माॅडल को स्वीकार कर पाना उतना सरल नहीं रहा है जितना समझा जा रहा है। आज जहां प्रति व्यक्ति खेती योग्य जमीन की उपलब्धता घटी है, बाजार के नजरिये में व्यापक स्तर पर बदलाव आया है, खेती का पुराना माॅडल बदला है, आज न उतना खरा लाभ देने वाला नजरिया है और न बाजार ही है। साथ ही खेती के कुदरती संकट से सभी वाकिफ हैं जो आबादी के संकट से और गहरा गया है।


आज वैश्विक महामारी कोरोना से उपजे संक्रमणकाल में लाॅकडाउन के दौर में वह चाहे नदी हो, वायु हो, आकाश हो, वातावरण हो, वनस्पति हो, की प्रकृति में काफी बदलाव आया है। पक्षियों की स्वच्छ वातारण में चहचहाने की आवाज सुनाई दे रही है। पेड़-पौधे तक प्रदूषण और धूल-मिट्टी की परतों से मुक्त हो राहत की सांस ले रहे हैं। पर्वतों की चोटियां सैकड़ों मील दूर से दिखाई देने लगी हैं। यह बदलाव प्रदूषण के स्तर में लाॅकडाउन से पहले के मुकाबले व्यापक स्तर में कमी के रूप में सामने आया है। पर्यावरण के लिए यह शुभ संकेत है। यह इस बात का जीता जागता सबूत है कि पर्यावरण प्रदूषण के लिए और कोई नहीं मानवीय गतिविधियां पूरी तरह जिम्मेवार हैं। आज हम प्रकृति की अनदेखी कर रहे हैं जिसका दुष्परिणाम प्रकृति प्रदत्त संसाधनों पर अत्याधिक दबाव, जीव-जंतुओं-वनस्पतियों की हजारों-हजार प्रजातियों की विलुप्ति और भयावह प्रदूषण के रूप में सामने आया है।


आने वाले दिनों में लाॅकडाउन की समाप्ति के बाद भी यदि हम खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं, सर्वत्र हरियाली देखना चाहते हैं, नदी जल को निर्मल और अविरल देखना चाहते हैं, जैसाकि आज गंगा, यमुना, नर्मदा आदि अन्य नदियां इसकी ज्वलंत प्रमाण हैं, इसके लिए हमें अपनी जीवन शैली में बदलाव लाने होंगे, बिजली का बेलगाम इस्तेमाल बंद करना होगा, अधिक से अधिक पेड़ लगाने होंगे ताकि ईंधन के लिए उनके बीज, पत्ते, तने काम आयें और हम धरती के अंदर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकें। उसी दशा में धरती, इंसान, जीव-जंतुओं, वनस्पतियों -प्रजातियों की रक्षा संभव है। सरकार को भी पर्यावरण की कीमत पर विकास की अवधारणा को त्यागना होगा। यह सब विकास के ढांचे में बदलाव लाये बिना असंभव है डाक्टरों, नर्सों, स्वास्थ्य कर्मियों, प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों, सेना, पुलिस, जेल, अर्धसैनिक बलों के जवानों, हवाई अड्डे के कर्मचारियों, 8 माह तक की बच्चियों, गर्भवती महिलाओं तक में संक्रमण का यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। यह हालात की भयावहता का ही परिचायक है। 


सबसे चिंता की बात यह है कि जहां तक लाॅकडाउन में ढील का और उद्योग धंधों-कारखानों के खोलने का सवाल है, जब मजदूर ही नहीं होंगे, तो कारखाने खोलकर आप क्या कररेंगे। वे चलेंगे कैसे। फिलहाल हालात के शिकार और सरकार पर से भरोसा खो चुके मजदूरों की वापसी एक सपना है। उस दशा में जबकि लाॅकडाउन की घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री श्री मोदी ने बार-बार कहा कि जो जहां है, वह वहीं रहे, उसकी व्यवस्था वहीं की जायेगी। इसका दावा तो उस समय राज्य के मुख्यमंत्रियों ने भी किया था। लेकिन राज्यों के नेताओं की वोट की राजनीति के चलते बाहरी राज्यों में फंसे अपने लोगों को वापस बुलाने की होड़ ने हालात बिगाड़ने में अहम् भूमिका निबाही।


हमारे केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन भले यह दावा करें कि हालात से निपटने में हम पूरी तरह सक्षम हैं, तैयार हैं। हमारे देश में दूसरे देशों की तरह हालात बिगड़ने की आशा बेमानी है। सारी व्यवस्थाएं हैं। घबराने की कोई जरूरत नहीं है। अस्पतालों में पूरी व्यवस्था है। जब व्यवस्था पूरी है फिर घर में ही क्वारांटीन के लिए क्यों कहा जा रहा है। लेकिन मौजूदा हालात इसकी कतई गवाही नहीं देते। जब अमरीका जैसा संपन्न, शक्तिशाली, विकसित और स्वास्थ्य सुविधाओं से लैस देश कोरोना से बुरी तरह पीड़ित है, उस दशा में भारत इसका कैसे मुकाबला कर पायेगा, यह समझ से परे है। स्पेनिश फ्लू का उदाहरण हमारे सामने है जिस पर काबू पाने में तीन साल से अधिक का वक्त लगा था और जिसके चलते लाखों लोग मौत के शिकार हुए थे। यहां यह उल्लेख करने का मकसद डराना नहीं है, बल्कि स्थिति से सचेत होे मुकाबला करने की नीयत का है।


इस समय इस उथल-पुथल का हमारी अर्थ व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इसकी भरपायी अगले दो दशकों में हो पाना मुश्किल है। उस दशा में जबकि देश के 94 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र पर निर्भर हैं। मौजूदा हालात ने इस क्षेत्र की समस्याओं को भयावह स्तर तक बढ़ाने का काम किया है। देश पहले से ही नोटबंदी के कुचक्र से टूट चुका है जिसका परिणाम 50 लाख से ज्यादा बेरोजगार के रूप में सामने आया। 99.94 फीसदी पुराने नोट रिजर्व बैंक में जमा हुए। किसानों की फसल कौड़ियों के दाम बिकी। न भ्रष्टाचार खत्म हुआ न काला धन आया। इतना जरूर हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था को पलीता जरूर लग गया। वह थम नहीं रहा।  


जीएसटी के चलते व्यापारी त्राहि त्राहि कर रहा है। 2 करोड़ नए रोजगार देने का सवाल अनसुलझा है जबकि पहले ही देश में 23 फीसदी रिकार्ड बेरोजगारी है। जीडीपी रिकार्ड 4.5 निम्न स्तर पर पहुंच गई है। ऐसे हालात में सरकार का एक लाख सत्तर हजार करोड़ के आवंटन जो देश की जीडीपी का मात्र 0.8 फीसदी ही है, समझ से परे है। इसमें 70 हजार करोड़ पहले से ही जारी योजनाओं से सम्बंधित है। ताजा एलोकेशन तो जीडीपी का मात्र 0.5 फीसदी है जो नाकाफी है। जबकि अमरीका कोरोना से लड़ने हेतु 10 फीसदी और, इंग्लैंड ने जीडीपी का 20 फीसदी का प्रावधान किया है। उन हालात में जबकि इस क्षेत्र की बिगड़ती सेहत के चलते वास्तविक विकास दर निचले स्तर पर है। राहत की दूसरी किस्त 20 लाख करोड़ की जो सरकार ने बीते दिनों घोषणा की है, उससे भी कुछ खास नीतिगत बदलाव नहीं आने वाला। जबकि सरकार ने कोरोना के कहर से मुक्ति हेतु, जनता को भूख से बचाने और सर्विस प्रोवाइडर को वेतन आदि देने के लिए 194 हजार करोड़ रुपये का विश्व बैंक और एशियन डवलपमेंट बैंक से कर्ज लिया है।


जानकारों की मानें तो इसका भी हश्र राहत की पहली किश्त की तरह ही सामने आयेगा। जनता फिर भी भूखी है। वह भगवान भरोसे है। तात्पर्य यह कि इसके बाद भी बदलाव की आशा बेमानी ही रहेगी। हालात इसके जीते जागते सबूत हैं। वह बात दीगर है कि हमारे केन्द्रीय मंत्री यह दावा करते नहीं थकते कि तीन महीनों में अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ लेगी।


आज हमारा देश दो मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहा है। एक आतंकवाद के खिलाफ जहां आये दिन सेना के अधिकारी और जवान देश की रक्षा की खातिर स्वयं को बलिदान कर रहे हैं। और दूसरे कोरोना नामक वैश्विक महामारी से जूझ रहे डाक्टर, नर्स, स्वास्थ्यकर्मी, प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस अधिकारी, पुलिसकर्मी, सैन्यकर्मी, जवान, सभी तेजी से संक्रमण के घेरे में आ रहे हैं। लाॅकडाउन के तीसरे चरण में लाॅकडाउन में ढील दिये जाने के चलते हुई अफरा-तफरी और भीड़ जैसे हालात सबूत हैं कि इस तरह देश में कोरोना पर काबू पाने की आशा फिलहाल बेमानी है।  यह जानते-समझते हुए कि कम्युनिटी संक्रमण में लाखों बीमार होंगे जिसके मुकाबले के लिए साधन अपर्याप्त हैं।


विडम्बना यह कि हम दुनिया में पर्यटन के लिए विख्यात बाली से कुछ सीखना ही नहीं चाहते जिसने बचाव के तरीकों का पालन कर कोरोना पर नियंत्रण पाने में मिसाल कायम की। इस दौरान हम एम्स के निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया की मानें कि यदि कोरोना से बचाव के तरीकों और सोशल डिस्टैंसिंग के नियमों का हमने समुचित पालन नहीं किया तो कोरोना से आने वाले महीनों में छुटकारे की उम्मीद बेमानी होगी। बहरहाल, इन हालात में देशवासियों को जीनेे की आदत डालनी होगी। बचाव के नियमों का पालन करना होगा। यह जान लेना होगा कि इसके सिवाय कोई चारा नहीं है। वर्ग, धर्म, जाति, संप्रदाय, आपसी मतभेद को दरकिनार कर राष्ट्र् बचाने की जिम्मेदारी का निर्वहन एकजुट होकर इस वैश्विक महामारी के समूल नाश हेतु करना होगा, यही सच्ची राष्ट्र् सेवा होगी। (लेखक के अपने विचार है)



ज्ञानेन्द्र रावत 
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं पर्यावरणविद्