कविता : हार-जीत

लेखिका : डॉ सुधा गुप्ता 'अमृता'

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छुआ छुअल्ली 

नदी पहाड़

फिर मैं तुमसे

गया हार 

गूंथा वनबेली का तुमने

फिर मुझको पहनाया हार

बारिश से बनी तलैया में

तुम कूदीं छपाक!

बिखरी अल्कें 

उचकी फ्रॉक

बजर बट्टू सी 

तुम रही झाँक

मैं चांँद को रहा आंँक

कैसे कहूँ

मैं तुमसे 

फिर गया हार

भूला नहीं अभी तक

वह अंदाज तुम्हारा

जीत कर भी हार का 

और वह वाकया!

माटी में सने तुम्हारे

और हमारे हाथ का-

आँखों की रसकन 

बातों की गूंथनऔर 

कानों की लटकन का-

उद्विग्न मन और

हार जीत के प्रश्न का-

जाने क्या रचती

अंतर की धारा

बिना हथौड़ी छैनी का 

मैं जब जब हारा

तब तब तुम

संबल बनकर आईं

सघन वेदना हटा

छटा सुख की ले आईं

तुम देती आई परिचय

सदा विजय का-

भूला नहीं अभी तक

वह अंदाज तुम्हारा

जीत कर भी हार का

मेरा हर प्रयत्न तुम्हें 

हराने का जाता विफल

मैं बनाता हाथी

तुम कर देती लक्ष्मी असवार मैं बनाता सैनिक

तुम झट पकड़ा देता तलवार मैं गुस्से से होता लाल

फुला कर गाल 

खींच कर माटी

गालों पर मल देता 

निर्निमेष तुम उस क्षण भी करती नहीं कोई चेष्टा

मुझे मारने धमकाने की-

मैंने किया अंतिम प्रयत्न 

तुम्हें हराने का-

भरकर पूरा ओजस्व

किया सृजन 

बजरंग /प्रबल शक्तिमान

उस क्षण

देख रही थी 

फिर भी

तुम बरसाती मृदु कण!!

मैं बोल उठा 

लो मैं बन गया

पवन पुत्र हनुमान 

नहीं कर सकती तुम

मुझे परास्त 

मैं कर दूंगा शक्ति विवेक तुम्हारा ध्वस्त

तुम अति विनम्र 

करती गंभीर चिंतन

मैं मस्ती में झूम 

कर उठता अट्टहास 

भूल जाता तुम्हें 

उसे क्षण-

फिर पलट देखता/

कहता तुमसे

तुम अबला में महाबली 

पर तुम कहाँ!!

नहीं तुम वहाँ

जाने कहाँ छुपी

तुम हुई अदृश्य देखता हूँ तुमने एक अपरिमित बलशाली गदा

रख दी है मेरी बाहों में-

(लेखिका अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)