लखनऊ (यूपी) से
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जब भी बात क्लाइमेट की होती है, तो हमारे दिमाग में सीधे सोलर पैनल और हवा के टरबाइन घूमने लगते हैं। वो चमकती धूप, वो घूमती पंखड़ियाँ… लेकिन ज़रा रुकिए। असली हीरो कोई और है। वो जो ना शोर करता है, ना कैमरे की तरफ़ देखता है। पर अगर वो ना हो, तो ये पूरी रिन्यूएबल क्रांति अधूरी रह जाएगी।
नाम है – Battery Energy Storage System यानी BESS.
जब सूरज छुप जाता है…
बात सीधी है – सोलर पावर दोपहर को सबसे ज़्यादा बनती है, लेकिन हमें लाइट, पंखा, एसी तो शाम को चाहिए। और हवा? वो भी अपनी मर्ज़ी से चलती है।
तो फिर बिजली कहाँ से आएगी?
यहाँ आता है बैटरी का कमाल।
BESS दिन में बनी बिजली को स्टोर करता है, और जब ज़रूरत हो तब रिलीज़ करता है। जैसे एक समझदार मां जो दिन में खाना बना लेती है, और बच्चों को रात में गरम करके परोसती है।
ग्रिड को बनाता है स्मार्ट और सेफ़
आज बिजली का सिस्टम पहले जैसा सीधा-सपाट नहीं है। अब तो लाइट कब जाए, कब आए – ये सब मौसम और माँग पर टिका है।
नीरज कुमार सिंगल, जो बैटरी मैन्युफैक्चरिंग कंपनी Semco Group के फाउंडर हैं, कहते हैं, “BESS की वजह से अब पावर डिस्ट्रीब्यूशन फ्लेक्सिबल और मज़बूत बन रहा है। पहले जो काम सिर्फ़ बड़े-बड़े थर्मल प्लांट करते थे, अब वो काम एक बैटरी स्टोरेज सिस्टम कर रहा है। वो भी बिना धुएं के!”
मुम्बई में BESS, दिल्ली में भी
आपको जानकर अच्छा लगेगा कि मुम्बई और दिल्ली जैसे शहरों में BESS के पायलट प्रोजेक्ट चल रहे हैं।
टाटा पावर मुम्बई में 100 मेगावाट के बैटरी स्टोरेज सिस्टम 10 जगह लगा रहा है – ताकि हर इलाके को उसकी ज़रूरत के हिसाब से बिजली मिल सके।
और दिल्ली?BSES का किलोकरी प्रोजेक्ट तो अब मॉडल बन गया है – वहाँ 20 मेगावाट का स्टैंडअलोन BESS लगा है जो एक साथ कई ज़िम्मेदारियाँ निभा रहा है।
“सस्ता नहीं, टिकाऊ होना चाहिए”
अदित अग्रवाल, जो GoodEnough Energy के एक्सिकिटिव डाइरेक्टर हैं, कहते हैं, “हम सबसे सस्ता बनने नहीं आए। हम वो क्वालिटी देना चाहते हैं जो 25 साल चले, जिससे ग्राहक को सच में फ़ायदा हो।”
और आजकल सरकार भी पीछे नहीं – ₹5400 करोड़ का सपोर्ट स्कीम है, जिससे BESS लगाने में मदद मिलेगी। बिजली का दाम ₹4.5–6/kWh तक आने की उम्मीद है।
इंडस्ट्री भी पीछे नहीं
डॉ. मीरा शर्मा, जो बरेली की Future University में पढ़ाती हैं, उन्होंने एक स्टडी की है जिसमें इंडस्ट्रियल रूफटॉप सोलर के साथ बैटरी लगाकर power quality, स्टेबिलिटी और cost-efficiency तीनों को सुधार दिया गया।
उनकी रिसर्च ये दिखाती है कि BESS अब सिर्फ़ बिजली स्टोर करने की चीज़ नहीं, ये तो एक स्मार्ट मैनेजर है जो हर हालात में बैलेंस बना सकता है।
कारख़ानों में सूरज अब रात को भी काम करेगा
अब सोलर एनर्जी सिर्फ़ बचत की चीज़ नहीं रही। इसी बात को आगे ले जाते हुए NeoGreen Energy के डायरेक्टर, कृष्णा कुलकर्णी कहते हैं:
“जैसे सोलर एनर्जी ने धीरे-धीरे कंपनियों की कॉर्पोरेट स्ट्रैटजी में जगह बना ली, वैसे ही बैटरी स्टोरेज भी अगले 3–5 सालों में एक टैक्टिकल फैसले से निकलकर लंबी अवधि की एनर्जी स्ट्रैटजी का हिस्सा बन जाएगा।”
यानि ये बस ‘बिजली बचाने’ का उपाय नहीं, अब कंपनियों की कॉम्पिटिटिवनेस से जुड़ चुका है।
वो आगे जोड़ते हैं: “बैटरी स्टोरेज की वजह से अब सोलर पावर को स्टोर करके रात को भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे इंडस्ट्रियल लोड्स के लिए 24×7 क्लीन एनर्जी का रास्ता खुलता है।”
ये बदलाव सिर्फ़ टेक्निकल नहीं है—ये सोच का है। अब कारख़ानों में बिजली की प्लानिंग सूरज के हिसाब से नहीं, अपने हिसाब से होगी।
लेकिन ध्यान देना होगा
एल्ड्रेड स्टर्लिंग, जो अफ्रीका में ग्रीन एनर्जी पर काम करते हैं, एक चेतावनी देते हैं, “बैटरी स्टोरेज में पैसा लगाना है तो सतर्क रहना ज़रूरी है – सही टेक्नोलॉजी, अच्छे पार्टनर, और मजबूत सपोर्ट सिस्टम के बिना ये सफर मुश्किल हो सकता है।”
आंकड़े जो कहानी कहते हैं
2024 में BESS कैपेसिटी: 219.1 MWh
2032 तक ज़रूरत: 236 GWh
अनुमानित निवेश: ₹4.79 लाख करोड़
CO₂ बचत: 2 अरब टन से ज़्यादा
स्टोरेज वाली बिजली की लागत: ₹4.5–6 प्रति यूनिट
चलते चलते – ये बैटरी नहीं, भरोसा है
ये सिर्फ़ पावर बैकअप नहीं है। ये एक वादा है – कि जब सूरज ना हो, तब भी अंधेरा ना हो।
ये वही भरोसा है जो हमें जलवायु संकट से निकाल सकता है – एक ऐसा सिस्टम जो सिर्फ़ पावर नहीं देता, ताक़त देता है।
क्लाइमेट क्रांति का असली इंजन शायद वही चीज़ है, जिसे हम अब तक सिर्फ़ ‘स्टोरेज’ कहते थे। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)