पेड़, प्रकृति, जीवन और लोकतंत्र : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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दुनिया में जिस तेजी से पेड़ों की तादाद कम होती जा रही है, उससे पर्यावरण तो प्रभावित हो ही रहा है, पारिस्थितिकी, जैव विविधता, कृषि और मानवीय जीवन ही नहीं, बल्कि भूमि की दीर्घकालिक स्थिरता पर भी भीषण खतरा पैदा हो गया है। जहां तक जंगलों के खत्म होने का सवाल है, उसकी गति देखते हुए ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब दुनिया से जंगलों का नामोनिशान तक मिट जायेगा और वह किताबों की वस्तु बनकर रह जायेंगे। हकीकत यह है कि हर साल दुनिया में एक करोड़ हेक्टेयर जंगल लुप्त होते जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र भी इसकी पुष्टि करता है। यदि अपने देश की बात करें तो विकास यज्ञ में समिधा बने लाखों पेड़ों को छोड़ भी दें तो भी उसके अलावा बीते पांच सालों में देश में नीम, जामुन, शीशम, महुआ, पीपल, बरगद और पाकड़ सहित करीब पांच लाख से भी ज्यादा छायादार पेडो़ं का अस्तित्व ही खत्म कर दिया गया है। कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने इसका खुलासा किया है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया में कीडे़-मकोडे़ भी 3.5 करोड़ हैक्टेयर जंगल हर साल बर्बाद कर रहे हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि इंसान तो क्या दूसरे जीव भी जीवन के लिए जरूरी पेडो़ं-जंगलों के दुश्मन बनते जा रहे हैं। मौजूदा हालात तो यही गवाही दे रहे हैं। 

दुनिया के वैज्ञानिक बार-बार कह रहे हैं कि इंसान जैव विविधता के खात्मे पर आमादा है। जबकि जैव विविधता का संरक्षण ही हमें बीमारियों से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहता है। इसीलिए जैव विविधता का संरक्षण बेहद जरूरी है। यहां इस कटु सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि यदि वनों की कटाई पर अंकुश नहीं लगा तो प्रकृति की लय बिगड़ जायेगी और उस स्थिति में वैश्विक स्तर पर तापमान में दो डिग्री की बढो़तरी को रोक पाना बहुत मुश्किल हो जायेगा। ऐसी स्थिति में सूखा और स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम से आर्थिक हालात और भी प्रभावित होंगे जिसकी भरपायी आसान नहीं होगी। सबसे बड़ी बात यह कि पेड़ों का होना हमारे जीवन के लिए महत्वपूर्ण ही नहीं, बेहद जरूरी है। यह न केवल हमें गर्मी से राहत प्रदान करते हैं बल्कि जैव विविधता को बनाये रखने,कृषि की स्थिरता सुदृढ़ करने, सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करने और जलवायु को स्थिरता प्रदान करने में भी अहम योगदान देते हैं। विडम्बना यह है कि यह सब जानते समझते हुए भी हम पेड़ों के दुश्मन क्यों बने हुए हैं, यह समझ से परे है। 

दरअसल आज जो देश-दुनिया की स्थिति है, वह सब मानव के लोभ का नतीजा है। क्योंकि उसने अपने सुख-संसाधनों की अंधी चाहत के चलते प्रकृति से इतनी छेड़छाड़ की है जिसका दुष्परिणाम हमारे सामने मौसम में आये भीषण बदलाव के रूप में सामने आया जिससे पारिस्थितिकी तंत्र ही नहीं हमारा आर्थिक-सामाजिक ढांचा तक चरमरा गया है। यह बदलाव अचानक नहीं आया है। इसके बारे में बीते कई बरसों से दुनिया के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और वनस्पति व जीव विज्ञानी चेता रहे हैं कि अब हमारे पास पुरानी परिस्थिति को वापस लाने के लिए समय बहुत ही कम बचा है। यह भी कि हम जहां पहुंच चुके हैं वहां से वापस आना आसान काम नहीं है, वह बहुत ही टेडा़ काम है। कारण वहां से हमारी वापसी की उम्मीद केवल और केवल पांच फीसदी से भी कम ही बची है। यदि देश के हिमालयी राज्य उत्तराखंड की ही बात करें तो उत्तराखंड में बीते 8-9 बरसों के दौरान ढाई लाख से ज्यादा पेड़ काट दिये गये हैं। 

इनमें एक लाख से ज्यादा पेड़ आल वैदर रोड के नाम पर और शेष पर्यटन, देहरादून से लेकर दिल्ली तक सड़क चौडी़करण, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना व सुरंग आधारित परियोजनाओं आदि के नाम पर देवदार, बांज, राई, कैल जैसी दुर्लभ प्रजातियों के पेड़ों का अस्तित्व ही मिटा दिया गया। पिछले बीस सालों के दौरान 40,000 हेक्टेयर जंगल आग की समिधा बने हैं जिसमें लाखों पेड़ जलकर राख हो गये हैं। उत्तराखंड तो एक उदाहरण है जबकि विकास के नाम पर पेड़ों के अंधाधुंध कटान का सिलसिला पूरे देश में जारी है। दुखदायी स्थिति तो यह है कि जिस रफ्तार से पेड़ों का अस्तित्व मिटाया जा रहा है, उसके अनुपात में पेड़ों के लगाने के दावे तो बहुत किये जा रहे हैं, लेकिन हकीकत इसके बिलकुल उलट है। 

काटे गये पेड़ों की जगह दस फीसदी पेड़ लगाये जाने का सरकारी दावा भी बेबुनियाद है। हकीकत में काटे तो दस हजार पेड़ गये लेकिन लगा एक भी नहीं। ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं। वहां पर पौधे लगाने के लिए विभिन्न विभागों ने राशि भी मुहैय्या करा दी लेकिन जमीन आवंटन का मामला राज्य और केन्द्र में ही उलझा रहा। नतीजतन पौधे लगे ही नहीं। यह जगजाहिर है और इसकी हकीकत कहीं भी देखी जा सकती है, जहां-जहां पेड़ों का कटान हुआ है।

सरकारी दावों की हकीकत का पता इसी से लग जाता है कि हर साल एक जुलाई से सात जुलाई तक देश में वन महोत्सव के नाम पर करोडो़ं -करोड़ की तादाद में वृक्षारोपण किया जाता है। ऐसी स्थिति में देश में हरित संपदा में बेशुमार बढ़ोतरी होती लेकिन उसके दर्शन केवल सरकारी आंकड़ों में ही दिखाई देते हैं, जमीनी स्तर पर तो कतई नहीं। अब सवाल यह उठता है कि हर साल हुआ करोडो़ं-करोड़ की तादाद वाला वृक्षारोपण असलियत में दिखाई क्यों नहीं देता। हकीकत यह है कि वृक्षारोपण का कोटा अधिकारी से लेकर साधारण कर्मचारी, पंचायत सचिव, ग्राम विकास अधिकारी और शिक्षक, यहां तक स्कूलों तक के लिए निर्धारित कर दिया जाता है और उनको उसी अनुपात में पौधे लगाने के लिए दे दिए जाते हैं। 

जबकि पौधे दिये जाने के स्तर से ही उसमें कटौती की जाती है। फिर जो बची-खुची तादाद में मिले पौधे कितने लगाने लायक होते हैं और वह किस सीमा तक रोपित किये जाते हैं, हैं भी या नहीं, यह जगजाहिर है। इसका प्रमाण वृक्षारोपण का दायित्व निबाहने वाले आखिरी सीढ़ी के कर्मी शिक्षक और शिक्षिकाएं नाम न छापने के वादे पर बखूबी दे सकते हैं। ऐसी स्थिति में हरित संपदा में बढ़ोतरी का दावा कितना सही है, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है जबकि ऐसी आंकड़ों की बाजीगरी के चलते देश में हरित क्षेत्र हर साल बढ़ोतरी के कीर्तिमान स्थापित करता जाता है। 

यह तो रही पेड़ों के कटान,  उनकी जगह पेड़ लगाने और वृक्षारोपण की हकीकत का सवाल। दुनिया के स्तर पर जैव विविधता की बात करें तो अमरीका की ए एण्ड एम यूनिवर्सिटी स्कूल आफ पब्लिक हैल्थ के एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि पेड़-पौधों की मौजूदगी लोगों को मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाने में सहायक होती है। 6.13 करोड़ मानसिक रोगियों पर किये गये अध्ययन में कहा गया है कि हरियाली के बीच रहने वाले लोगों में अवसाद की आशंका बहुत कम पायी गयी है। जिन लोगों के घरों के आसपास 100 मीटर के दायरे में पेड़-पौधों की संख्या अधिकाधिक पायी गयी,  उन लोगों को अवसाद की दवा लेने की जरूरत ही नहीं रही है। लेकिन मानवीय स्वार्थ की लिप्सा यहीं खत्म नहीं  होती। दुनिया में समृद्ध जैव विविधता वाली जमीन कब्जाने की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी हुयी है। साल 2008 के बाद से इन घटनाओं की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुयी है। 

ये घटनायें उप सहारा अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों पर असंगत रूप से प्रभाव डालती हैं। यह प्रवृत्ति मध्य पूर्वी यूरोप, उत्तरी और लैटिन अमेरिका व दक्षिणी एशियाई इलाकों में भूमि असमानता को बढा़ रही है। इससे जहां छोटे, मध्यम स्तर के खाद्य उत्पादकों को तेजी से अव्यवहार्य बना रही है, वहीं किसान विद्रोह, ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन, गरीबी और खाद्य असुरक्षा की भावना में बढ़ोतरी हुयी है। इस बारे में मानसिक स्वास्थ्य की जानी मानी प्रोफेसर एंड्रिया मेचली का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में हम वैश्विक स्तर पर जैव विविधता में तेजी से गिरावट को देख रहे हैं। जैव विविधता न सिर्फ हमारे प्राकृतिक वातावरण के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि इन वातावरण में रहने वाले लोगों के मानसिक कल्याण के लिए भी उतनी ही अहम है। इसलिये इस बात पर गंभीरता से विचार किये जाने की जरूरत है कि जैव विविधता धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए सह-लाभ के तत्व हैं और इसे महत्वपूर्ण बुनियादी मान कर इसकी रक्षा करनी चाहिए। 

अब जब हम जंगल की बात करते हैं तो पाते हैं कि असल  में बीते दो दशकों में समूची दुनिया में 78 मिलियन हैक्टेयर यानी 193 मिलियन एकड़ पहाडी़ जंगल नष्ट हो गये हैं। जबकि पहाड़ दुनिया के 85 फीसदी से ज्यादा पक्षियों, स्तनधारियों और उभयचरों के आश्रय स्थल या यूं कहें कि घर हैं। इस बारे में यदि एशिया,उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका और यूरोप का जायजा लें तो पाते हैं कि पहाडी़ जंगलों के खात्मे की दर में एशिया 39.8 मिलियन हैक्टेयर वन नुकसान के मामले में सर्वोपरि है। उसके बाद उत्तरी अमेरिका, 18.7 मिलियन हैक्टेयर के साथ दूसरे पायदान पर, दक्षिणी अमेरिका 8.3 मिलियन हैक्टेयर के साथ तीसरे, अफ्रीका 6.4 मिलियन हैक्टेयर के साथ चौथे पायदान पर है। 

दुनिया में आधे से अधिक  वन रूस में 81.5 करोड़ हैक्टेयर, भारत में 80.9 करोड़ हैक्टेयर, ब्राजील में 49.7 करोड़ हैक्टेयर, कनाडा 34.7 करोड़ हैक्टेयर और संयुक्त राज्य अमेरिका के 31 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र में हैं। गौरतलब यह है कि हर साल जितना जंगल खत्म हो रहा है, वह एक लाख तीन हजार वर्ग किलोमीटर में फैले देश जर्मनी, नार्डिक देश आइसलैंड, डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों के क्षेत्रफल के बराबर है। लेकिन सबसे बडे़ दुख और चिंता की बात यह है कि इसके अनुपात में नये जंगल लगाने की गति बेहद धीमी है। लंदन के थिंक टैंक एनर्जी ट्रांसमिशन कमीशन, ईटीसी की मानें तो समूची दुनिया में हर मिनट औसतन दस  फुटबाल मैदान के बराबर यानी 17.60 एकड़ जंगल काटे जा रहे हैं। बीते 30 सालों में 42 करोड़ हैक्टेयर जंगल को मैदान बना दिया गया है। पर्यावरण विज्ञानी बर्नार्डों फ्लोर्स की मानें तो एक बार यदि हम खतरे के दायरे में पहुंच गये तो हमारे पास करने को कुछ नहीं रहेगा। 

जहां तक धरती का फेफडा़ कहे जाने वाले दक्षिण अमेरिका के अमेजन बेसिन के बहुत बडे़ भूभाग पर फैले अमेजन के वर्षा वनों का सवाल है, वे विनाश के कगार पर हैं। बढ़ते तापमान, भयावह सूखा, वनों की अंधाधुंध कटाई और जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं के चलते अमेजन के जंगल खतरे के दायरे में हैं। मौजूदा अमेजन के जंगलों के 10 से 47 फीसदी हिस्से पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। जबकि अमेजन के जंगलों का 18 फीसदी हिस्सा तो नष्ट हो ही चुका है। यदि यह आंकडा़ 20-25 फीसदी तक पहुंच गया तो यह जंगल पूरी तरह सवाना यानी घास के मैदान में बदल जायेगा। 

जर्नल नेचर में प्रकाशित ब्राजील में सैंटा कैटारिना यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों के शोध- अध्ययन के मुताबिक अब अमेजन के लिए 'रेड अलर्ट' का ऐलान करने का समय आ गया है। इसमें जलवायु परिवर्तन के चलते पड़ने वाले सूखा और गर्मी व आग सहित बहुतेरे कारकों की बडी़ भूमिका है। यहां इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि जंगलों के खात्मे में आग भी एक अहम कारक है जिसके चलते दुनिया में हर साल लाखों हैक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं। शोधकर्ता वैज्ञानिकों के अनुसार अमेजन वनों का लगभग आधा हिस्सा 2050 तक खत्म हो जायेगा।

दरअसल दुनिया में जंगलों का सबसे ज्यादा विनाश ब्राजील में हुआ है और यह सिलसिला आज भी जारी है।  उसके बाद डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कांगो और बोलीविया का नम्बर आता है। यदि मैरीलैंड यूनीवर्सिटी और वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के ग्लोबल वाच की हालिया रिपोर्ट की मानें तो दुनिया भर में साल 2023 में 37 लाख हैक्टेयर जंगल नष्ट हो गये। जबकि भारत में 2023 के दौरान 21,672 हैक्टेयर जंगल खत्म हो गये। देश में 2022 में 21,839 हैक्टेयर जंगलों का खात्मा हुआ। 2001 से 2023 के बीच भारत में तकरीब 23.3 लाख हेक्टेयर जंगल खत्म कर दिये गये। 2013 से 2023 के बीच के दस सालों में देश में हुए जंगलों के 95 फीसदी खात्मे में जंगलों की अवैध कटाई और आग की घटनाओं में बेतहाशा बढो़तरी की अहम भूमिका रही है। 

यदि यू के स्थित साइट यूटिलिटी बिडर की नयी रिपोर्ट की मानें तो भारत ने बीते 30 वर्षों में जंगलों की कटाई में भारी बढो़तरी हुयी है। इसमें 2015 से 2020 के इन पांच वर्षों के दौरान तो जंगल कटाई ने कीर्तिमान बनाया है। इस दौरान देश में 6,68,400 हैक्टेयर वनों का खात्मा हुआ। यह आंकडा़ दुनिया में ब्राजील के बाद दूसरा सबसे अधिक है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 1990-2020 के बीच के तीस वर्षों में 42 करोड़ हैक्टेयर जंगलों का खात्मा हुआ है। भले इसके वह प्राकृतिक कारण हों या मानवीय। इसमें देश के पांच राज्यों यथा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड,तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश शीर्ष पर हैं जहां देश में आग से सबसे ज्यादा जंगल तबाह हुए हैं और यह सिलसिला आज भी जारी है। 

यदि ग्लासगो में हुए काप-26 सम्मेलन की बात करें जिसमें दुनिया के 144 देशों ने 2030 तक इन जंगलों को बचाने का संकल्प लिया था, के बारे में गौरतलब है कि यदि दुनिया में वनों की कटाई पर रोक लगायी जाती है तो एक अनुमान के आधार पर उस हालत में 900 अरब डालर की रकम खर्च होगी। जबकि अभी दुनिया में जंगलों को बचाने पर सालाना तीन अरब डालर की राशि खर्च की जा रही है। कैंब्रिज यूनीवर्सिटी की कंजरवेशन रिसर्च इंस्टीट्यूट की वैज्ञानिक रैसल गैरेट के अनुसार जंगलों को बचाने के लिए दुनिया भर की सरकारों को सालाना 130 अरब डालर खर्च करने होंगे। यदि 2030 तक वनों की कटाई पर काबू नहीं पाया गया तो आने वाले समय में यह खर्च कई गुणा बढ़ जायेगा और कार्बन उत्सर्जन में बढो़तरी से पर्यावरणीय समस्याएं और विकराल रूप धारण कर लेंगी। सबसे बडी़ चिंता की बात यह है कि वैज्ञानिकों की इस बारे में एकमुश्त राय है कि ऊर्जा, उत्पाद और दूसरी सामग्रियों के लिए दुनिया भर की कंपनियों की नजर जैव विविधता पर है। अनुमान है कि जैव विविधता के दोहन के लिए दुनिया भर के देश 2030 तक 400 अरब डालर का निवेश करेंगे जो मौजूदा समय से 20 गुणा ज्यादा होगा। यह बडा़ संकट है।

दरअसल जैव विविधता को संरक्षित करने में वन की उपयोगिता जगजाहिर है  लेकिन विडम्बना है कि हम उन्हीं के साथ खिलवाड़ कर अपने जीवन के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। बीते तीन दशक इसके सबूत हैं कि उनमें हमने तकरीब एक अरब वन मानवीय स्वार्थ के चलते खत्म कर दिये हैं। दुख इस बात का है कि जंगल बचाने की लाख कोशिशों के बावजूद दुनिया में वनों की कटाई में और तेजी आई है और उसकी दर चार फीसदी से भी ज्यादा हो गयी है। मौजूदा दौर की हकीकत यह है कि दुनिया में हर मिनट 21. 1 हैक्टेयर में फैले जंगलों का खात्मा हो रहा है। फिर भी हम इस सबसे बेखबर मौन हैं। 

हम यह क्यों नहीं समझते कि यदि अब भी हम नहीं चेते तो हमारा यह मौन हमें कहां ले जायेगा और क्या मानव सभ्यता बची रह पायेगी ?  चिंता की असली वजह तो यही है।

इस बारे में 2004 के लिए नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली केन्या की पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधन मंत्री रहीं बंगारी मथाई का उस समय दिया बयान महत्वपूर्ण है कि जल,  जंगल और जमीन के मुद्दे आपस में गहरे तक जुड़े हुए हैं। हमने प्राकृतिक संसाधनों और लोकतांत्रिक प्रशासन को बखूबी समझा है। वैश्विक स्तर पर भी यह प्रासंगिक है। प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जबतक यह नहीं होगा,  शांति कायम नहीं हो सकती। नोबेल पुरस्कार समिति का भी यही सोच है। समिति का भी मानना है कि पर्यावरण, लोकतंत्र और शांति के अंतरसम्बंधों की पहचान जरूरी है। समिति ऐसे सामुदायिक प्रयासों को प्रोत्साहित करने की पक्षधर है जिससे धरती को बचाया जा सके। 

खासकर ऐसे समय में जब हम पेड़ों और पानी के साथ साथ जैव विविधता की वजह से पारिस्थितिकी के संकट से जूझ रहे हैं।  इस बात में किसी तरह का संदेह नहीं है कि जब तक हम जल,  जंगल, जमीन, खनिज और तेल जैसे संसाधनों का उचित प्रबंधन नहीं करेंगे तबतक गरीबी से नहीं लडा़ जा सकता। संसाधनों के उचित प्रबंधन के बगैर शांति कायम नहीं हो सकती। लोकतंत्र के लिए यह बेहद जरूरी है। फिर हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं, यदि उसे नहीं बदला तो पुरानी झड़पें बढे़ंगीं और संसाधनों को लेकर नयी लडा़इयां सामने खड़ी होंगी। मैं इस पुरस्कार का जश्न महात्मा गांधी के इन शब्दों के साथ मनाना चाहती हूं कि-- मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। एक पेड़ जरूर लगायें। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार है)