विपक्ष को "शेडो गवर्मेंट" की तरह काम करने की ज़रूरत
लेखक : नवीन जैन

स्वतंत्र पत्रकार, इंदौर (मप्र)   

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लोकतंत्र में लोक कल्याणकारी सरकार ही नहीं चुनी जाती, बल्कि वोटर्स एक मजबूत विपक्ष भी चुनता है। इसी विपक्ष पर यह महती जिम्मेदारी आयद होती है कि वो इस बारे में सावधान रहे, कि जब भी सरकार अपने आप को सरताज मानकर उबड़-खाबड़ रास्ते में उतरने लगे,तो वो जनता के हित में  उसे रास्ते पर लाने की अहम जिम्मेदारी पूरी करते रहे।

साल 2024के आम चुनावों के बाद  कई शब्दों में या ,तो नई जान आ गई है ,या उनके प्रयोजन बदल गए हैं इसलिए अब देश का असली वफादार चौकीदार पूरा विपक्ष है। भाजपा को 240सीटों पर रोक देने में कांग्रेस सहित बसपा को छोड़कर सभी छोटे-मोटे दलों का हाथ है। वे कई राज्यों में भले अकेले लड़े हो, और इंडिया गठबंधन के मेनुफेस्टों से भी उनका घोषणा पत्र अलग रहा हो, लेकिन सभी का लक्ष्य तो एक ही था। भाजपा को हराना या उसे काबू में रखना। यानी इस बार विपक्ष शेडो गवर्मेंट की हैसियत में भी है। साल 1989में कांग्रेस अपने बूते 197सीटें जीतकर ठोस विपक्ष बनी थी, मगर इस बार जनता ने उसे 204सीटों पर बैठाया है। ममता बैनर्जी के सांसद भी इसमें मिल जाएं, तो कुल आंकड़ा 233 होता है। यही फिगर सत्ताधारी समूह को मनमानी करने से रोक सकता है। उसके जिम्मे यूं तो कई बड़े काम हैं, लेकिन उसे देखना होगा कि संविधान की मूल आत्मा के साथ कोई छेड़छाड़ न हो, लोकतंत्र सलामत रहे, और आरक्षण को लेकर भी कोई मनमानी न हो।

कई मुद्दे ऐसे हैं, जो तकनीकी रूप से इतने पेचीदा होते हैं, कि आम जन के लिए उलट बासी जैसे हो जाते हैं। जैसे हर साल आने वाली नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट को केंद्र सरकार द्वारा पिछले दस सालों से लगातार खारिज करना। देश की आर्थिकी के सुराख इसी रिपोर्ट से देखे जा सकते हैं।विपक्ष को अडना होगा कि ये रिपोर्ट प्रत्येक वर्ष पटल पर रखी जाए। देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में ये भी तरतूद है कि लोकसभा का उपाध्यक्ष नियुक्त किया जाए, लेकिन भाजपा सरकार ने अपने दूसरे पूरे कार्यकाल में इस प्रथा को भी धता बता दी। विपक्ष चूंकि संख्या बल में कम था, तो पिछले दस सालों में नए विधेयक या अध्यादेश पहले संसदीय समिति को विचार के लिए भेजने की बजाय मन माफिक तरीके से पास करवा लिए गए। दोनों सदनों के करीब 150 सांसदों को गेट बाहर कर दिया गया। सत्ताधारी दल ने उफ तक नहीं की। ये निष्कासित सदस्य संसद परिसर में बापू की प्रतिमा के सामने रात भर प्रदर्शन करते रहे, लेकिन ट्रेजरी बैंच में से किसी ने इनकी सुध तक नहीं ली। राहुल गांधी को उचित समयवधि न देते हुए न सिर्फ उनकी सांसदी ही नहीं छीन ली गई,बल्कि उन्हें एक तरह से बेघर भी कर दिया गया। 

आलोचक पत्रकारों को या तो धमकाया गया या देशद्रोह जैसे संजीदा आरोपों में जेल में डाल दिया गया। उन्हें सड़क छाप गुंडों की तरह घर से उठवा दिया गया। छापे पड़वा कर उन्हें डराया और ज़लील किया गया। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा।पहले चरण के किसान आंदोलन के तहत सात सौ के आस पास किसानों की विभिन्न कारणों से अकाल मृत्यु तक हो गई, मगर सरकार ने चुनावी फायदों के मद्दे नज़र आखिर में जाकर तीनों विवास्पद बिलों को रोका। डॉक्टर राममनोहर लोहिया (स्व.) कहा करते थे कि यदि सड़कें सूनी हो जाएंगी, तो संसद आवारा हो जाएगी। बीते दस सालों में कमोबेश यही होता रहा है। राहुल गांधी की राजनितिक नासमझी भी इसके लिए जिम्मेदार थी। पहले चरण की भारत जोड़ो यात्रा के बाद उनके समर्थन में जो माहौल बनने लगा था, वे उसे स्थाई रूप से भुनाने की बजाय दूसरी यात्रा पर निकल पड़े। इस यात्रा से भी उन्हें सफलता मिली, लेकिन इसके पहले उन्हें पार्टी संगठन को मजबूत करना चाहिए था, ताकि कांग्रेस के प्रति जनता और गहराई से सोचती विचारती, ताकि कांग्रेस के साथ विपक्ष की सीटों में भी और इज़ाफा हो सकता था, मगर राहुल गांधी गलत टाइमिंग के शिकार हो गए। खैर।

सबसे पहले कांग्रेस और विपक्ष को किसी भी कीमत पर संविधान की रक्षा करनी है। वैसे भाजपा को 370 और एनडीए को 400 पार सीटें नहीं मिली हैं, तो संविधान को समाप्त करने जैसी तो कोई आशंका नहीं है, लेकिन सरकार मनमाने संशोधन तो कर ही सकती है। बता दें कि 1950 में लागू हुए संविधान में अब तक कुल 106 बार बदलाव किए जा चुके हैं। राजयू और तेलगु देशम पार्टी के नेताओं नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू भले ही अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री हो लेकिन उनके सांसदों को केंद्र सरकार के मनमाने फैसलों पर अंकुश लगाए रखना होगा तभी जाकर मतदाताओं की इच्छाओं का पूरा सम्मान हो सकेगा। यही लोकतंत्र की वापसी वाली जीत होगी।