कविता : वहम पाले बैठे हैं लोग

 

लेखक : कवि हरीश शर्मा

लक्ष्मणगढ़ (सीकर), राजस्थान

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बदला समय, जमाना बदला

नहीं समझ कुछ आता।

राह बनाते, अपनी अपनी,

अपने मन से नाता।

अपनी धुन में गुमसुम से सब,

वहम पनपता जाए।

कैसे बने केरियर अपना,

चिन्ता यही सताए।

युवा वर्ग के प्रश्न अनौखे,

करें सदा मनमानी।

झूठी शान, दिखावा झूठा,

झूठी प्रेम कहानी।

वहम पाल कर बैठे हैं सब,

कोई, कहां, क्या जाने,

मेरा कथन, वही है सच,

क्यों कहा किसी का माने।

युवा प्रगति पथ पर नित बढ़ता ,

किन्तु बहुत कुछ छूटा।

भरा जहन में वहम सभी के,

उसने ही सब लूटा ।

सामंजस्य कहो कैसे हो,

संवरे ना परिवार।

है गुरुर का नशा सभी पर,

कहां नहीं तकरार।

नहीं प्रेम के रिश्ते-नाते ,

समझौता सा बन्धन।

बिखरा सा पर नजर न आए,

अब विवाह का क्रंदन।

(लेखक के अपने निजी विचार हैं)