आखिर कब खत्म होगी उत्तराखंड के जंगलों की आग : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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उत्तराखंड के जंगलों की आग थमने का नाम नहीं ले रही है। राज्य के सभी पर्वतीय जिले आग की चपेट में हैं। वह चाहे गढ़वाल का इलाका हो या कुमायूं का,  अलकनंदा भूमि संरक्षण वन प्रभाग हो,  लैंसडाउन हो,  चंपावत हो,  अल्मोडा़ हो,  पिथौरागढ़ हो या फिर केदारनाथ प्रभाग हो,  राज्य का कोई भी इलाका आग की चपेट में आने से नहीं बचा है। हालात इतने विकराल हो चुके हैं कि बीते करीब 10-12 दिनों से जारी आग ने रिहायशी इलाकों और सड़कों तक को अपनी चपेट में ले लिया है। आग की भयावहता का आलम यह है कि अभी तक राज्य में आग लगने की करीब 575 से भी ज्यादा घटनाओं में 689.89 हैक्टेयर से भी ज्यादा जंगल आग की भेंट चढ़ चुके हैं। जंगलों की आग के चलते सेना ने मोर्चा संभाल लिया है। एनडीआरएफ की टुकड़ी भी आग बुझाने और बचाव कार्य में जुटी हैं। आग बुझाने में वायु सेना के हेलीकाप्टर जंगलों में लगी आग पर पानी की बौछार करने में लगे हुए हैं। राज्य के सभी टाइगर रिजर्व में अलर्ट घोषित कर दिया गया है। राज्य के दुधवा टाइगर रिजर्व के फायर कंट्रोल रूम को सेटेलाईट से जोडा़ गया है, हर दो किलोमीटर पर फायर लाइन बनाया गयी है जिससे यदि आग लग भी जाये तो उसे फैलने से तत्काल रोका जा सके। 

पिथौरागढ़ में अस्कोट मृग अभयारण्य के जंगल, गैरसैंण में आयुर्वेदिक अस्पताल, जीआईसी, भी इस आग से नहीं बचे हैं। यहां सैकड़ों की तादाद में अखरोट,  सेब,  अमरूद आदि दर्जनों फलदार किस्म के पेड़ आग की समिधा बन गये हैं।  गोचर में सिरकोट, बाभनटिका,अस्कोट मृग विहार, धुंधला और गौरीछाल के जंगल भी आग से धधक रहे हैं। यहां के कूँचा, कनाली छीना के सतगढ़,  कंचनपुर तोक में जंगल की आग ने घरों तक को नहीं बख्शा है।  बसंतपुर की ओर से सुलगती आग ने शैल और कांडा के ऊपर चीड़ के जंगलों को भी नहीं बख्शा है। अब आग ने पालीटैक्निक की ओर रुख कर लिया है। 

अल्मोडा़ के सल्ट क्षेत्र में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र भी आग की भेंट चढ़ गया है जिससे अस्पताल का आक्सीजन प्लांट और रिकार्ड रूम में रखे दस्तावेज भी आग से अछूते नहीं रहे हैं। यहां पातालदेवी की आग ने जंगल ही नहीं रिहायशी इलाकों को भी अपनी चपेट में ले लिया है। यहां लोहाघाट-घाट नेशनल हाइवे की सुरक्षा हेतु लगी जाली भी जलकर राख हो गयी है। बागेश्वर में आग कलक्ट्रेट तक पहुंच गयी है जहां आग से बिजली की बायरिंग तक जल गयी है और 40 से अधिक सरकारी विभागों की इंटरनेट सेवा प्रभावित हुयी है। यहां स्थित मैग्नेसाइट फैक्टरी भी आग की चपेट में आयी है। 

बैजनाथ रेंज के गैरलैख,  पुरडा़,  अमोल और धौलादेवी ब्लाक वन पंचायत ,छल्ली, पनुवानौला, धन्या, बातकुना तथा धमरधर व पौड़ी बैंड के पास के जंगल  भी धधक रहे हैं। गोपेश्वर के सिरोसिणजी जंगल का आधे से ज्यादा हिस्सा स्वाहा हो गया है। कौसानी में आर्मी कैंप तक आग पहुंच चुकी है। चंपावत में क्रांतेश्वर के जंगल भी राख हो चुके हैं। यहां मकान भी आग से नहीं बचे हैं। डीडीहाट की भी यही स्थिति है। टनकपुर में बूम रेंज में टीआरसी के पास तक आग से बस्ती और जंगल धधक रहे हैं। वन विभाग के कर्मचारियों को पानी के टैंकर, एयर ब्लोवर, मशीनों और आग बुझाने के उपकरणों से लैस किया गया है।आग ने हल्द्वानी में जिला कलक्ट्रेट स्थित निर्वाचन कार्यालय को भी अपनी चपेट में ले लिया है। 

नैनीताल जिले के गठिया क्षेत्र के जंगलों की आग पाइस तक पहुंच गयी है,  पाइस के ऊपर पहाड़ पर स्थित वायु सेना स्टेशन तक आग न पहुंचे,  इसलिए हेलीकाप्टर को नियंत्रण के लिए तैनात किया गया है। आईटीआई का खंडहर में तबदील भवन आग से राख हो चुका है। यहां पहाड़पानी,  दीनी पंचायत,  धारी के जंगल अब भी सुलग रहे हैं। नैनीताल में आग से आकाश में नीली धुंध छायी हुयी है। यहां आग की भयावहता के चलते पर्यटकों की होटलों में बुकिंग रद्द कर दी गयी है। राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य के जिलों के सभी डी एम और एस एस पी को प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने,  वन विभाग को आग पर नियंत्रण करने में सहयोग देने व आग लगाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने का निर्देश दिया है।

दरअसल उत्तराखंड के जंगलों में शुष्क मौसम, मानवीय गतिविधियों, बिजली गिरने और जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल बार-बार आग लगने की घटनाएं होती हैं। गर्मी के मौसम आते-आते चीड़ के पेड़ों से निकले पिरूल से तेजी से चलती हवाओं के संपर्क में आने से लग रही आग की घटनाएं हर साल आम बात हैं। विडम्बना यह है कि लाख कोशिशों के बावजूद अभी तक इस समस्या का कोई ठोस निदान नहीं हो सका है।

गौरतलब है कि उत्तराखंड के पहाड़ चीड़ के जंगलों से भरे पडे़ हैं। आग का सबसे बड़ा अबयम चीड़ के पेड़ से निकला पिरूल है। फिर चीड़ के पौधे से निकलने वाला लीसा नामक तरल पदार्थ जो आग लगने पर पैट्रोल की तरह तेजी से फैलता है। चीड़ का पेड़ जहां-जहां भी होता है, यह खासकर सूखे या शुष्क भूमि पर उगता है जहां पानी की जरूरत  नहीं  होती। वह मिट्टी की उर्वरा शक्ति को खत्म कर देता है। यानी मिट्टी की पकड़ को ही ढीली कर वहां के पानी के स्रोतों को ही खत्म कर देता है। इसकी पत्तियां जहां गिरती हैं,  वहां घास उगना मुश्किल हो जाता है। गर्मी में तो इसकी पत्तियाँ इतनी तेजी से आग पकड़ती हैं जो मिनटों में ही भयावह रूप अख्तियार कर लेती हैं। 

पहाड़ में जरा सी मानवीय भूल आग की बेवजह कारण बन जाती है। चूंकि गर्मी में सूखे की स्थिति होती है,  इसलिए पिरूल में जरा सी चिंगारी पूरे जंगल में आग लगने का कारण बन जाती है। यह मौसम पहाड़ पर खेतों की साफ- सफाई का होता है। किसान खेतों की सफाई कर घास आदि कूडे़-कचरे को इकट्ठा कर उसमें आग लगा देते हैं। तेज हवा चलने पर वह आग फैलकर जंगलों की ओर अपना रुख करती है। चूकि एक - दूसरे से जंगल मिले होते हैं और पिरूल की वजह से आग एक जंगल से दूसरे जंगल तक फैल जाती है। इससे न केवल जन-धन की भारी हानि होती है, हजारों-लाखों हैक्टेयर जंगलों का ख़ात्मा हो जाता है, हरित संपदा और जैव विविधता की हानि होती है, कीट-पतंगे सहित असंख्य प्रजातियाँ इस आग में समिधा बन जाती हैं। 

जंगली जीव भी अपनी जान बचाने की ख़ातिर रिहाइशी इलाकों की ओर रुख करते हैं, जो आग के चंगुल से नहीं बच पाते वे अनचाहे मौत के मुंह में चले जाते हैं। इस आग का असर पहाड़ की आजीविका पर भी पड़ता है। और जो ढांचा आग के चलते ध्वस्त हो जाता है, उसके पुनःखडे़ करने में प्रशासन-सरकार को हर साल करोडो़ं की राशि खर्च करनी पड़ती है सो अलग। यह सही है कि चीड़ की लकडी़ का प्राचीन काल से ही भवन निर्माण-फर्नीचर आदि में उपयोग होता रहा है, पहले तो रेल के स्लीपर भी चीड़ की लकड़ी के ही होते थे । लेकिन जंगलों की आग में चीड़ और उससे निकल पिरूल की अहम भूमिका को देखते हुए काफी समय से पहाडों पर बांज के पेड़ लगाये जाने की मांग जोर पकड़ रही है।  समझ नहीं आता इस दिशा में सरकारें क्यों उदासीन हैं। जबकि बांज के पेड़ों की उपयोगिता जगजाहिर है।

जहां तक बांज का सवाल है... 

बांज के पेड़ उत्तराखंड में समुद्र तल से 1800 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते हैं। बांज को उत्तराखंड में हरा सोना भी कहा जाता है। दुनिया में यह एकमात्र वृक्ष है जो वायुमंडल से नमी को खींचकर भूमि तक पहुंचाता है। इस प्रकार बांज जहां-जहां भी पाए जाते हैं, वहां पानी भरपूर मात्रा में होता है। खासियत यह है कि इसमें कार्बन की मात्रा कम पाई जाती है।  इसका फल औषधीय गुण से युक्त होता है। बिच्छू यदि काट ले तो उसके डंक के स्थान पर इसके फल को घिसकर लगाने से बहुत लाभ होता है, ऐसा उत्तराखंड वासी मानते हैं। इसकी पत्तियां पशुओं के चारे के काम में आती हैं। इससे पशुओं से अधिक मात्रा में दूध प्राप्त होता है।  प्राकृतिक असंतुलन के दौर में जब पानी के स्रोत लगातार सूखते जा रहे  हैं, ऐसी स्थिति में बा॑ज का वृक्षारोपण समय की मांग है। ऐसा किए जाने पर पानी के स्रोत मृत नहीं होंगे। 

कारण इनकी जड़ें वर्षा के पानी को न केवल संचित करती हैं बल्कि भूगर्भ में नौले, धारे, तालाब इत्यादि पानी से भरे भी रहते हैं। इनकी पत्तियां गर्मियों में जमीन को धूप की गर्मी से बचाती हैं, वहीं बरसात के पानी को तेजी से बहने से रोकती भी हैं। ऐसा करने पर पानी को जमीन के अंदर जाने का अधिक समय मिलेगा और बारहमासी धारे प॑देरे जो ठंडे पानी के सुलभ स्रोत हैं, वे जीवित बने रहेंगे। मध्य हिमालय में तो बांज की विभिन्न प्रजातियाँ जैसे ति॑लोज, रिया॑ज, खर्शू आदि-आदि पानी जाती हैं। ये सभी 1200 मीटर लेकर 3500 मीटर की ऊंचाई पर स्थानीय जलवायु, मिट्टी और ढाल की दिशा के अनुरूप पाई जाती हैं। इन पर फफूंदी और कीटों का असर नहीं होता है, न इसके जोड़ उखड़ते हैं, न इसकी लकड़ी फूलती है और न  नमी से सड़ती ही है। इन्हें लगाने न लगाने का दारोमदार तो वनाधिकारियों और सरकार पर है। वैसे वनाधिकारियों का रवैय्या इसके पक्ष में कतई नहीं दिखता।  बीते बरस इसके सबूत हैं।

इस साल की जंगल की आग को लेकर चिंता गहराती जा रही है कि यदि जंगल की आग इसी तरह बढ़ती रही तो क्या होगा? इस साल बीते साल के मुकाबले तीन गुणा अधिक आग की घटनाएं हुयी हैं। साल 2023 में राज्य में जंगल की आग की मार्च अप्रैल में 784 घटनाएं हुई थीं जबकि इस साल 2024 के इन दो महीनों मार्च अप्रैल में कुल 6295 आग की घटनाएं हुयीं। सबसे बड़ी बात इस साल आबादी वाले इलाकों में भी आग की घटनाएं बढी़ं हैं। हल्द्वानी में तो आग से हवा में जहर घुल रहा है जिससे लोग सांस लेने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं। इस बात की नासा के विजिबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सुईट बीआईआईआरएस के डेटा से पुष्टि हुई है। 2023 में सर्वाधिक प्रभावित जिले नैनीताल,  चंपावत, अलमोडा़,  पौढी़,  पिथौरागढ़ थे जबकि इस बार 2024 में हरिद्वार छोड़कर सभी जिलों में आग की घटनाएं बढी़ं हैं। 

2023 में इनकी तादाद 1046 थी तो 2024 में बढ़कर यह आंकड़ा 5710 के पार जा पहुंचा यानी इनमें पांच गुणा इजाफा हुआ है। मौजूदा हालात स्थिति की गंभीरता का सबूत है। निष्कर्ष यह है कि आग बुझाने के हर संभव प्रयास किये जा रहे हैं।  सेना,  एनडीआरएफ, नागरिक प्रशासन और आसमान से हेलीकाप्टर लगातार कोशिशें कर रहे हैं। आग बुझाने में नाकाम रहने पर डी एफ ओ पर कार्यवाही की जायेगी, मुख्यमंत्री घोषणा कर चुके हैं। आग लगाने वालों की कैमरों से निगरानी की जा रही है और कुछ पकड़े भी गये हैं। लेकिन इस सबके बावजूद सवाल यह अहम है कि जंगल की यह आग कब बुझेगी? और क्या जंगल बचे रह पायेंगे। असली चिंता की वजह तो यही है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)