हमें सामाजिक, आर्थिक, न्याय की गारंटी चाहिए
लेखक : वेदव्यास

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं

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अब नए भारत के निर्माण में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, भगत सिंह जैसे महापुरुषों के जीवन दर्शन को भी कोई याद नहीं करता और संविधान के प्रति अपनी आस्थाओं को भी नहीं दोहराता। लेकिन वह अब चारों तरफ राम मंदिर को ही अपनी राष्ट्रवादी आस्थाओं का मूल मंत्र मानकर संसद से सड़क तक असहिष्णुता फैला रहा है।

संविधान की जगह आस्था को ही राष्ट्र में विकास की राजनीति करने वाले ये बात भूल जाते हैं कि डॉ. अंबेडकर और महात्मा गांधी ने भारत का जो सपना देखा था उसे ऐसी संकीर्ण अवधारणाओं से कितना नुकसान हुआ है। सोची समझी आस्था की आंधी का ये परिणाम हुआ है कि कुछ वर्षों में ही भारत तो हिंदुस्तान हो गया है तथा हमारा समाज हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई जैसी धार्मिक आस्थाओं का रण क्षेत्र बन गया है। हमारे लोकतंत्र में संविधान के अंतर्गत एक व्यक्ति एक वोट के अधिकार को आस्था की राजनीति ने इतना अधिक जाति धर्म के धु्रवीकरण में बांट दिया है कि राम और रहीम एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हो गए हैं। संविधान और लोकतंत्र में कानून के शासन की जगह भीड़ का शासन फैल रहा है। सभी संवैधानिक संस्थाएं निर्बल और असहाय बनाई जा रही हैं ताकि आस्था का सम्राज्य लोगों के मन में भय और अविश्वास पैदा कर सके तथा लोकतंत्र को शासन की निरंकुशता में बदल सके। आस्था की राजनीति का ही ये दुष्परिणाम है कि आज एक पार्टी का बहुमत लोकतंत्र और संविधान के 70 प्रतिशत मतदाताओं को भेड़ बकरी समझकर गड़रिए की तरह हांक रहा है। यह नया भारत बेहद खतरनाक दौर में भारत की आजादी को धकेल रहा है। क्योंकि भारतीय गणतंत्र के इतिहास की सभी प्रेरणाओं को भुलाकर गाय, गंगा, गीता, मंदिर-मस्जिद और राष्ट्रवाद में धकेल रहा है। और सत्ता में बैठे लोग खुलेआम असहमतियों की हर आवाज को कुचल रहे हैं। और लोग नफरत को ही विकास और विकसित भारत का एजेंडा बना रहे है।

अब हम बहुत चिंता के साथ ये कहना चाहते हैं कि धार्मिक आस्थाओं पर आधारित राष्ट्रवाद 21वीं शताब्दी में किसी विकास समानता, बंधुता और स्वतंत्रता का पर्याय नहीं हो सकता और दुनिया में कहीं भी और कोई देश तानाशाही और अधिनायकवाद में अपना सुरक्षित स्वर्ग स्थापित नहीं कर सकता। भारत की स्वतंत्रता का संविधान शक, हूण, मुगल और अंग्रेजों की लूट और अत्याचारों की पीड़ा भोगकर लोकतंत्र का सवेरा देख रहा है। लोग तब के हिटलर, मुसोलिनी, तोजो और तरह-तरह के चंगेज खां तथा सिकंदर से संघर्ष करके इस मुकाम पर आए हैं और जानते हैं कि आपातकाल और राष्ट्रवाद का जीवन क्षणिक होता है। जो लोग झूठ, फरेब और सपनों के सौदागर बनकर आंधी की तरह आते हैं, वे तूफान की तरह लहरों के लोकतंत्र में समा जाते हैं।

आज मनु की स्मृतियों को केवल चुन-चुन कर संस्थान प्रतिष्ठान, बुतों और मूर्ति पूजा में इसीलिए बदला जा रहा है कि नई पीढ़ी उनके योगदान और प्रेरणाओं को भूल जाए। रूस, चीन, यूरोप के देश और दो विश्व युद्धों के बाद जन्मे सभी लोकतंत्र आज इसी मूर्ति पूजा में बर्बाद हो रहे हैं। भारत में ये मूर्ति पूजा और व्यक्ति पूजा एक महामारी है और हजारों साल से हम इस कर्मकांड को करते-करते गैर बराबरी और हिंसा के जंगल में समाप्त हो रहे हैं। आजादी के बाद हमारे लोकतंत्र ने लगातार गांधी और अंबेडकर के जीवन योगदान की अवहेलना की है उसी का आज ये नतीजा है कि हम मंदिरों में आस्था का हरी कीर्तन करते-करते एक के बाद एक गुलामी की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं। हमारा लोकतंत्र सिमट रहा है।

गांधी के आग्रह और नेहरू, पटेल की सहमति पर ही वे अपने जातीय उत्पीड़न को छोड़कर नए भारत का संविधान निर्माण करने में जुटे थे। आस्था और जातीय गौरव जैसी कोई संकीर्णता अंबेडकर के विचार में नहीं थी। जो लोग आजकल ये कहते हैं कि अंबेडकर के हम ऋणी हैं उन्हें आज ये सोचना चाहिए कि अंबेडकर के निर्वाण को ही उन्होंने आस्था के उपद्रव के दिन में कैसे चुना? कोई हमें बता सकता है कि आज सामाजिक लोकतंत्र के अभाव में राजनीतिक लोकतंत्र कैसे बचेगा तथा आजादी, समानता और बंधुत्व को नष्ट करके अकेला हिंदुत्व का राष्ट्रवाद कैसे और कब तक विकास का झूठ सच दोहराएगा? चार दिन की चांदनी में हिंदुत्व के राष्ट्रवाद को अंबेडकर ने कभी स्वीकार नहीं किया क्योंकि वो हिटलर और गोयबल्स को मरते हुए देख चुके थे।

इसीलिए डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी 1950 को हम एक विरोधाभास की जिंदगी में प्रवेश करने जा रहे हैं। हमारी राजनीति में समानता होगी और हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक वोट और हर वोट का समान मूल्य पर चल रहे होंगे। परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हमारे सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे के कारण हर व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकार रहे होंगे। इस विरोधाभास के जीवन को हम कब तक जीते रहेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? यदि हम इसे नकारना जारी रखते हैं तो हम केवल अपने राजनीति प्रजातंत्र को संकट में डाल रहे होंगे। हमें जितनी जल्दी हो सके, इस विरोधाभास को समाप्त करना होगा, अन्यथा जो लोग इस असमानता से पीड़ित हैं, वे उस राजनीतिक प्रजातंत्र को उखाड़ फेकेंगे जिसे हम सभी ने परिश्रम से खड़ा किया है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)