लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं
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हमारा लोकतंत्र पिछले कई वर्षों से बहुत हैरान और परेशान है। कहने के लिए तो कहते हैं अपनी तो हर आह, एक तूफान है। ऊपरवाला जानकर अंजान है। लेकिन जहां चाह है, वहां राह भी है। इसीलिए हम बोले जा रहे हैं। सब धैर्य से सुने जा रहे हैं। कोई मान रहा है कोई नहीं मान रहा है। क्या करें उम्मीदों के बूढ़े बरगद अब कोई फल नहीं दे रहे। जब से भारत की युवा पीढ़ी में बहुमत का जोश और होश बढ़ा है तब से गरीब और बीमार जनता-सांप की बांबी पर बैठकर मंत्रपाठ कर रही है। सांप और नेवले का गांव, शहर और महानगर तक गृह युद्ध चल रहा है।
लोकतंत्र में रागदरबारी‘की ऐसी धुन बज रही है कि एक के बाद एक पुराने ढांचे गिराए जा रहे हैं। सो साल से ज्यादा उम्र के मकान ठंडे हो रहे हैं और नए भारत की नई इमारतें बन रही हैं। हम स्मार्ट हो रहे हैं। हम सुपर हाईवे पर दौड़ रहे हैं। रेल की पुरानी पटरियों पर रोबोट से बुलट एक्सप्रेस का स्टेशन बना रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे नर्बदा नदी के सरदार सरोवर बांध की गोद में स्टेच्यू ऑफ यूनिटी खड़ी करके पर्यटन और परम्परा का संग्रहालय बनाया गया है। अब हम अपनी गंदी राजनीति के गंदे खेल में आत्म गौरव जगाते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हिंदुत्व पढ़ा रहे हैं।
हम नहीं जानते कि हम किधर जा रहे हैं। कभी हम सोवियत रूस बन रहे थे आज हम अमरीका जैसे बनने की ललक में चीन से टकरा रहे हैं। सरकार और जनता के बीच सामाजिक-आर्थिक नीतियों को लेकर कोई तालमेल नहीं है। जिस तरह पाकिस्तान को उसके जन्म से लेकर अब तक अल्लाह, आर्मी और अमरीका चलाता आया है उसी तरह भारत को भी आजादी से लेकर अब तक भय, भाग्य और भगवान ही चला रहा है। लोकतंत्र और संविधान कमजोर हो रहा है।
विधायिका और कार्यपालिका के गठजोड़ ने न्यायपालिका की गर्दन पर तलवार लटका दी है और यही कारण है कि भारत में सभी प्रदेशों का संघीय गणराज्य टकराव और अलगाव की तरफ जा रहा है।
हमारे लोकतंत्र में पहले गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण और जाति-धर्म की कोढ़ फैली हुई थी फिर उसमें कोरोना की महामारी ने सामाजिक-आर्थिक बदहाली की खाज-खुजली मचाई और इससे भी आगे हमारी सरकार पर अब सांस्कृतिक हिंदू राष्ट्रवाद का भूत सवार है। पूरे देश में सांप्रदायिकता की शाखाएं सक्रिय हैं और गुजरात से असम और दिल्ली से दसों दिशाओं में वेद-पुराणों की गौरव गाथाएं सुनाई जा रही हैं।
हमारे प्रधानमंत्री ने अकेले दिन-रात संदेश, उपदेश और मंत्र देने के सभी विश्व रिकार्ड तोड़ दिए हैं। आश्चर्य तो यह है कि हमारा भारत, गरीबी और अमीरी के दो पाटों में पिस रहा है और संसद मौन है। क्योंकि यहां जनता का सामूहिक विपक्ष गौण है। सरकार की कहीं कोई जवाबदेही नहीं है। आलम ये है कि पूरा 140 करोड़ देश-वासियों का भूत, भविष्य और वर्तमान एक राष्ट्रपुरुष ही चला रहा है और लोकतंत्र की इंद्रसभा हरिकीर्तन कर रही है। इस नए भारत में लोकप्रिय बहुमत का आदेश ही लोकतंत्र में तानाशाही का दूसरा नाम है।
असल में हमारी इस दुर्दशा का मूल कारण यह है कि विपक्षी दलों को उनकी संकीर्णता, भय और स्वार्थ की राजनीति ने तबाह कर दिया है और सरकार ने शाम, दाम दंड, भेद से फूट डालो-राज करो का तूफान मचा रखा है। जनता के साहस को राजनैतिक दलों को फूट ने दिशाहीन बना दिया है और इसीलिए सरकार बेरोजगारी और बढ़ते अपराध तथा सामाजिक-आर्थिक बदहाली के सभी सवालों पर मौन है और मुस्करा रही है। मीडिया, मनी पावर और मसल पावर सभी सरकार के तंत्र, मंत्र और यंत्र से चल रहे हैं। जनता के सभी विकल्प आज बेअसर हैं क्योंकि चुनाव-दर-चुनाव जनता का धर्म और जाति के हथियारों से ध्रुवीकरण हो रहा है। उत्तर भारत-हिंदुत्व की सरकारी लहरों पर तैर रहा है। हम खुद लोकतंत्र की गरीबी में आटा गीला कर रहे हैं और बात-बात पर मर रहे हैं।
हम अभी तक यह एक बात नहीं समझ रहे हैं कि भारत के लोकतंत्र को आज धर्म और जाति की तानाशाही ने जकड़ लिया है और ऊपरवाला नीचेवाले को देखकर भी अनदेखा रहा है। हमारी अपनी फूट ने हमें लाचार और बीमार बना दिया है क्योंकि हम अपने कुंभ स्नान और कांवड़ यात्रा, रथयात्रा और तीर्थयात्रा में फंसे हुए हैं। कोरोना में लाखों मर गए फिर भी देश चल रहा है तो करोड़ों प्रवासी मजदूर बर्बाद हो गए फिर भी देश चल रहा है तो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, राशन, पानी चौपट हो गए फिर भी देश चल रहा है और हम गुजरते हुए कारवां देख रहे हैं। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)