बरामदा कॉरीडोर : रमेश जोशी
लेखक : रमेश जोशी 

व्यंग्यकार, साहित्यकार एवं लेखक, प्रधान सम्पादक, 'विश्वा', अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, यू.एस.ए., स्थाई पता : सीकर, (राजस्थान)

ईमेल : joshikavirai@gmail.com, ब्लॉग : jhoothasach.blogspot.com

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रात को अपने बरामदे के इतिहास के बारे में सोचते सोचते पता नहीं कब नींद आ गई। हमारा बरामदा उस अर्थ में बरामदा नहीं है जिस अर्थ में आजकल प्रचलित बरामदे होते हैं; सबकी पहुँच से दूर, बालकनी की तरह नितांत निजी। यह तो सीधा सड़क पर खुलता है। इसे हिन्दी में चबूतरा कहते हैं। हमने विकसित होने के लिए इसे बरामदा कहना शुरू कर दिया है। चबूतरे पर आप भी बैठते हैं तो कोई रास्ते चलता भी बैठ सकता है। अगर आप कहीं बाहर हुए गए हैं तो कोई इस पर बैठकर आपका इंतजार भी कर सकता है। एक प्रकार का अघोषित अर्द्ध सार्वजनिक स्थान।

जब अधिक सर्दी नहीं होती या बारिश की बौछार नहीं आती तो सुबह-शाम हम इस पर बैठ जाते हैं। घर के घर में और बाहर के बाहर। आते जाते लोगों से रामा-श्यामा हो जाती है। यह एक प्रकार से वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम का मिलाजुला रूप है। यहीं तोताराम के साथ हमारी चाय पर चर्चा होती है। जबसे मोदी जी ने सलाहकार/निर्देशक मण्डल जैसा कुछ बनाकर अपने बुजुर्गों का सम्मान किया है तब से उसीकी तर्ज पर हमने दो कदम और आगे बढ़कर इसका नाम ‘बरामदा संसद’ रख दिया है इससे लगता रहता है कि हम अब भी सक्रिय राजनीति में हैं।

मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस तरह बड़गांव को राष्ट्रीय महत्व के पर्यटन स्थल का दर्जा मिल गया उसी तरह हमने भी इसे यूनेस्को के घोषित किए बिना भी वर्ल्ड हेरिटेज बरामदा मान लिया है। बड़गांव में अगर मोदी जी ने किशोरावस्था में चाय बेची है उसी काल में हम झुंझुनू जिले के बड़ागाँव में प्रवक्ता बन गए थे और इस चबूतरे अर्थात बरामदे में चाय-चर्चा शुरू कर दी थी। जब मोदी जी ने शुद्ध राष्ट्रवादी होते हुए भी ‘सेंट्रल विष्ठा’ की घोषणा की तो एक बार तो हमने भी अपने इस बरामदे का अनुप्रासात्मक नाम ‘वरांडा विष्ठा’ रखने की सोची लेकिन पता नहीं क्यों नाम में ही कुछ बदबू सी आने लग गई तो विचार त्याग दिया।

अब पता नहीं, कल को इस चबूतरे उर्फ बरामदे को किस नाम से जाना जाएगा। रात को ऐसे ही बरामदे के बारे में सोचते हुए पता नहीं, कब नींद आ गई। सुबह बरामदे में कुछ खटर पटर सुन कर आँख खुल । जाकर देखा तो बरामदे में तोताराम। पूछा- यहाँ इतनी सुबह-सुबह क्या कर रहा है? तो बोला- बरामदे के विकास के लिए नई योजना की घोषणा की तैयारी कर रहा हूँ। हमने कहा- तू तो ऐसे तैयारी कर रहा है जैसे आज कल में खुद मोदी जी ही यहाँ आने वाले हैं।

बोला- वह भी असंभव नहीं है। चुनाव के कारण अगले तीन चार महिने मोदी जी के लिए घोर व्यस्तता के रहेंगे। और फिर राम मंदिर से अगले हजार साल की नींव रख दी है तो उस पर निर्माण का काम क्या छोटा काम है ? कुछ काम हम भी तो करें । अकेले मोदी जी ही सब करेंगे क्या? आज हम दोनों इस ‘बरामदा कॉरीडोर’ की विधिवत घोषणा कर देते हैं।

हमने कहा- लेकिन कॉरीडोर बनाना कोई मजाक है क्या? हजारों करोड़ का खर्चा होता है। अभी राम मंदिर में हजारों करोड़ का खर्च हो चुका है जबकि बहुत सा काम बाकी है। इससे पहले काशी कॉरीडोर, महाकाल कॉरीडोर, उत्तराखंड में चारधाम कॉरीडोर। अभी अभी आसाम में कामाख्या कॉरीडोर का काम शुरू करवाकर आए हैं। इतना पैसा कहाँ से आएगा?

बोला- आदमी की नीयत अच्छी होनी चाहिए तो धन की कोई कमी नहीं रहती। शुरू कर देंगे तो अपने इस ‘बरामदा कॉरीडोर’ के लिए भी धन की कोई कमी नहीं रहेगी । यह धर्मपरायण देश है। यहाँ ऑक्सीजन की कमी हो सकती है, शिक्षा, चिकित्सा के लिए धन की कमी हो सकती है लेकिन मंदिरों, जागरणों, भंडारों, झांकियों के लिए किसी बात की कोई कमी नहीं है।

हमने कहा- लेकिन यहाँ कौन से प्राचीन मंदिर और देवी-देवता स्थापित हैं जो किसी धार्मिक कॉरीडोर की घोषणा हो सके। बोला- देवी देवताओं की इस देश क्या कमी है। छत्तीस करोड़ देवी देवता तो हजारों साल से सुनते आए हैं , अब तक क्या उनकी जनसंख्या बढ़कर दस-बीस अरब नहीं हो गई होगी । जहां मछली, कछुआ, सूअर आदि के रूप में भगवान अवतार ले सकते हैं तो कोई नया-पुराना देवता पैदा करना क्या मुश्किल है। कह देंगे, एक बार कृष्ण गायें चराते चराते भटककर इधर आ गए थे। यह मंडी के पास गोबर का जो ढेर पड़ा है वह उन्हीं गायों के गोबर का है।

हमने कहा- कहाँ ब्रज भूमि और कहाँ सीकर। बात जमेगी नहीं। बोला- तो कह देंगे महाभारत के युद्ध के बाद कृष्ण ने बर्बरीक को श्याम के रूप में पूजे जाने का वरदान दिया था। उसी सिलसिले में वे एक बार कृष्ण खाटू वाले श्याम जी (बर्बरीक) से मिलने के लिए आए थे तब यहीं जयपुर रोड़ पर हनुमान जी के मंदिर के पास वाले पीपल के पेड़ के नीचे दोपहर को विश्राम किया था। हमने कहा- लेकिन तोताराम एक बात कहें? जब देश में इतनी बेकारी है, नए उपक्रम खुल नहीं रहे हैं। जो पहले के बने हुए हैं उन्हें सरकार औने पौने दामों में बेच रही है। उनमें नौकरियां कम की जा रही हैं। ठेके पर कर्मचारियों से चौथाई तनख्वाह में दोगुना काम करवाया जा रहा है । ऐसे में इन धार्मिक कॉरीडोरों पर पैसा फूंकने से क्या फायदा?

बोला- धर्म की जड़ सदा हरी। धर्मों रक्षति रक्षितः। मोदी जी धर्म की रक्षा कर रहे हैं और धर्म हर बार और अधिक वोटों से जिताकर उनकी रक्षा कर रहा है। और फिर क्या धर्म से रोजगार सृजित नहीं होता? तुझे पता होना चाहिए केवल एक राम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा से लगभग 1.25 लाख करोड़ रुपये का बड़ा कारोबार हुआ। इसमें अकेले दिल्ली में लगभग 25 हजार करोड़ और उत्तर प्रदेश में लगभग 40 हजार करोड़ रुपये के कारोबार का अनुमान है। दीये से लेकर पटाखे, पूजा-पाठ की चीजें, झंडे, राम मंदिर के मॉडल, माला, लटकन, चूड़ी, बिंदी, कड़े, राम ध्वज, राम पटके, राम टोपी, राम पेंटिंग, राम दरबार के चित्रों की रिकॉर्ड तोड़ बिक्री हुई है।

हमने कहा- तोताराम, यह न तो विकास है और न ही कोई आर्थिक गतिविधि, यह एक अनुत्पादक उपक्रम है जो अंधविश्वास के साथ साथ आपराधिक अकर्मण्यता को बढ़ावा देता है। इसमें ऐसा कोई काम नहीं होता जो समाज के लिए जरूरी हो। धर्म और राजनीति जब बेईमान हो जाते हैं तो वे हमारे वर्तमान से आँखें चुराते हैं। धर्म आपको अगले जन्म में या मरने के बाद एक अप्रामाणिक और काल्पनिक स्वर्ग का आश्वासन देता है तो राजनीति आपको अतीत के गर्व से बहलाती है, या किसी अन्य वर्ग या धर्म से आपके धर्म, इतिहास और संस्कृति पर मंडराते खतरे के नाम पर डराती और उससे लड़ाती है।

जहां तक शुचिता, सच्चरित्रता और सत्विकता की बात है तो काशी बनारस के बारे में ये दो लाइनें कौन नहीं जानता-

रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी

इनसे बचे तो सेवे कासी

अब इससे समझ लो कि इन तथाकथित धार्मिक स्थानों पर किनका प्रभुत्व पाया जाता है। जब तक हमारा श्रम उत्पादक और सार्थक नहीं होगा तब तक वह न तो मनुष्य को मुक्त कर सकता है और न ही सशक्त और न ही आचरण को सम्यक बना सकता है।

जो राम खुद कहता है-

संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।

उसके नाम पर अकर्मण्यता के दर्शन का प्रचार कहाँ तक उचित है?

(लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)