तबाही का सबब बनेंगीं ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलें : ज्ञानेन्द्र रावत
लेखक : ज्ञानेन्द्र रावत

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

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समूची दुनिया ग्लेशियरों के पिघलने से होने वाली तबाही को लेकर चिंतित है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस की चिंता का सबब भी यही है।  उनकी चिंता का सबब यह है कि दुनिया के वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते सदी के अंत तक हिंदूकुश हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियर 75 फीसदी तक नष्ट हो जायेंगे। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस ने कहा है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण बीते 30 साल में नेपाल के पहाडो़ं से एक तिहाई बर्फ खत्म हो गयी है। गौरतलब है कि बीते साल के आखिर में गुटारेस ने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट के आसपास के क्षेत्र का दौरा किया था। उस समय उन्होंने सोलुखुंबू इलाके का दौरा करने के बाद हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों के पिघलने से हो रहे खतरों से आगाह करते हुए कहा था कि दो प्रमुख कार्बन प्रदूषकों भारत और चीन के बीच इस हिमालयी क्षेत्र में स्थित नेपाल के ग्लेशियर पिछले दशक में 65 फीसदी से अधिक तेजी से पिघले हैं। 

आज जरूरत जीवाश्म ईंधन के युग को समाप्त करने की है। ग्लेशियरों के पिघलने का मतलब है तेजी से समुद्र का बढ़ना और विश्व समुदाय पर बढ़ता खतरा । इसीलिए मैं दुनिया की छत से इस वैश्विक खतरे के प्रति आगाह कर रहा हूं। क्योंकि दुनिया के वैज्ञानिक बार-बार यह चेता चुके हैं कि पिछले 100 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 0.74 डिग्री सैल्सियस के औसत से बढ़ चुका है। लेकिन दक्षिण एशिया के हिमालयी क्षेत्र में गर्मी औसत से भी अधिक रही है। इसमें हो रही दिनोंदिन बढो़तरी बडे़ खतरे का संकेत है। सबसे बडा़ खतरा ग्लेशियरों के पिघलने से बन रही झीलों से है जो तबाही का सबब बन रही हैं। 2013 में आई केदारनाथ आपदा इसकी जीती-जागती मिसाल है।

अब उत्तराखण्ड को लें, बीते दिनों उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून स्थित राज्य सचिवालय में आपदा प्रबंधन सचिव डा० रंजीत कुमार सिन्हा की अध्यक्षता में हुयी बैठक में विशेषज्ञों ने राज्य के ग्लेशियरों और झीलों पर पेश रिपोर्ट में कहा कि वाडिया हिमालयन भू-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा राज्य के ग्लेशियरों की निगरानी से यह खुलासा हुआ है कि तापमान बढो़तरी की वजह से ग्लेशियर न केवल तेजी से पिघल रहे हैं बल्कि वह तेजी से पीछे भी हट रहे हैं। इनके द्वारा खाली की गयी जगह पर ग्लेशियरों द्वारा लाये गये मलबे के बांध या मोरेन के कारण झीलें आकार ले रही हैं। इनसे जोखिम लगातार बढ़ रहा है। यहां पर केदारताल, भिलंगना और गौरीगंगा ग्लेशियरों ने आपदा के लिहाज से खतरे की घंटी बजायी है। वैज्ञानिकों ने इन्हें संवेदनशील बताया है और कहा है कि गंगोत्री ग्लेशियर के साथ ही इस इलाके में  13 ग्लेशियर झीलें भी जोखिम के लिहाज से चिन्हित हुयी हैं जो भयावह खतरे का सबब हैं।

गौरतलब है कि देश के उत्तर के पर्वतीय क्षेत्र में लद्दाख का पैगोंग इलाका जो पर्यटन की दृष्टि से ख्याति प्राप्त, बहुत ही आकर्षक और मनमोहक है, में स्थित ग्लेशियरों के पिघलने से इस इलाके में तबाही के बादल मंडराने लगे हैं। यह इलाका ग्लेशियरों का भंडार है। इस बात का खुलासा कश्मीर यूनीवर्सिटी के जियोइनफार्मेटिक्स डिपार्टमेंट के अध्ययन में हुआ है। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन तो अहम कारण है ही, चीन द्वारा पेगोंग इलाके में झील पर पुल का निर्माण भी एक अहम समस्या है जिसके चलते पारिस्थितिकी का संकट भयावह होता जा रहा है।  यह इलाका ग्लेशियरों से केवल छह किलोमीटर दूर है। इसलिए इस संवेदनशील पर्वतीय इलाके में मानवीय गतिविधियों पर रोक बेहद जरूरी हो गयी है। यदि इस पर अंकुश नहीं लगा तो ग्लेशियर तो सिकुडे़ंगे हैं ही,यहां की मिट्टी में नमी भी कम हो जायेगी और इससे कृषि के साथ-साथ वनस्पति भी प्रभावित होगी। 

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि यहां दुनिया की सबसे ऊंची खारे पानी की झील है। सबसे बडी़ और अहम बात यह है कि जम्मू-काश्मीर और लद्दाख के इस इलाके में कुल मिलाकर 12,000 के करीब ग्लेशियर हैं। ये ग्लेशियर 2000 के करीब हिमनद झीलों का निर्माण करते हैं। इनमें 200 तो ऐसे हैं जिनमें पानी बढ़ने से इनके फटने की हमेशा आशंका बनी रहती है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। यदि कभी ऐसा हुआ तो उत्तराखंड जैसी त्रासदी की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। यह भी जान लेना जरूरी है कि पैंगोंग झील का 45 किलोमीटर का इलाका भारतीय क्षेत्र में आता है। पैंगोंग के इसी इलाके में बरसों से चीन द्वारा लगातार निर्माण कार्य किया जा रहा है। पैंगोंग झील के पार पुल का निर्माण उसी का ही हिस्सा है।

विशेषज्ञों की चिंता का सबब यही है कि ग्लेशियरों को पिघलने से रोकने की खातिर इस संवेदनशील इलाके में ईंधन से चलने वाले वाहनों पर तत्काल रोक लगाई जाये। भारत के साथ लगातार दो सालों से चलते गतिरोध के कारण चीन द्वारा यहां पर बेतहाशा निर्माण किया जा रहा है। पैंगोंग झील के पास चीन द्वारा जो निर्माण किये जा रहे हैं, उनकी दूरी ग्लेशियरों से केवल छह किलोमीटर ही है। ऐसे संवेदनशील इलाके में भारी पैमाने पर निर्माण कार्य किये जाने से ग्लेशियरों के पिघलने का खतरा बढ़ गया है। इससे लद्दाख के इस इलाके में गंभीर परिणामों से इंकार नहीं किया जा सकता।

ट्रांस हिमालयन लद्दाख के पैंगोंग इलाके में भारतीय सीमा में आने वाले इन 87 ग्लेशियरों में 1990 के बाद आयी कमी के शोध-अध्ययन जो जर्नल फ्रंटियर इन अर्थ साइंस में प्रकाशित हुआ है, के मुताबिक इस इलाके में स्थित 87 ग्लेशियर हर साल 0.23 फीसदी की दर से पिघल कर सिकुड़ते जा रहे हैं। सबसे ज्यादा चिंतनीय बात यह है कि यह इलाका भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील है। इसमें दो राय नहीं कि दुनिया के ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं या यों कहें कि वे खत्म हो रहे हैं, वह भयावह आपदाओं का संकेत है। दुनिया के वैज्ञानिकों ने आशंका जतायी है कि जलवायु परिवर्तन की मौजूदा दर यदि इसी प्रकार बरकरार रही तो इसमें कोई दो राय नहीं कि इस सदी के अंत तक दुनिया के दो तिहाई ग्लेशियरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। उनके अनुसार यह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। 

असलियत में हम कहें कुछ भी, लेकिन यह कटु सत्य है कि हम दुनिया के बहुत सारे ग्लेशियरों को खोते चले जा रहे हैं। दुख तो इस बात का है कि इस खतरे के प्रति हमारा मौन समझ से परे है। जबकि हमारे पास ग्लेशियरों के पिघलने को सीमित करने की और उसमें अंतर पैदा करने की क्षमता है। बडे़ ग्लेशियरों के मामले में इसकी संभावना ज्यादा है जबकि छोटे ग्लेशियरों के मामले में बहुत देर हो चुकी है। 

जहां तक हिमालयी क्षेत्र का सवाल है, एक अध्ययन के मुताबिक हिमालयी ग्लेशियरों को साल 2000 से 2020 के दौरान तकरीबन 2.7 गीगाटन का नुकसान हुआ है। ब्रिटेन और अमरीका की अध्ययन टीम के अनुसार पिछले आंकलनों में वृहद हिमालयी  क्षेत्र में पिघलकर गिर रहे ग्लेशियरों के कुल नुकसान को 6.5 फीसदी कम करके आंका गया था। जबकि इस नुकसान का आंकड़ा 2.7 गीगाटन से भी काफी ज्यादा था। हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के अध्ययन के बाद खुलासा हुआ है कि यहां विभिन्न इलाकों में अधिकतर ग्लेशियर अलग- अलग दर पर पिघल रहे हैं। सरकार ने भी माना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने का न सिर्फ हिमालय की नदी प्रणाली के बहाव पर प्रतिकूल गंभीर प्रभाव पड़ेगा बल्कि इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं में भी काफी बढ़ोतरी होगी जिसका आम जनमानस पर व्यापक दुष्प्रभाव पड़ेगा। 

सरकार ने इसका खुलासा ग्लेशियरों का प्रबंधन देखने वाली संसद की स्थायी समिति को किया है। संसद की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण विभाग ने हिमालय में ग्लेशियरों के लगातार पिघलने, उनके पीछे खिसकने और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण में ग्लेशियरों के द्रव्यमान संतुलन में यह पाया गया है कि इस हिमालय अंचल में ग्लेशियर विभिन्न क्षेत्रों में  अलग- अलग दर से अपने स्थान से खिसक रहे हैं या यूं कहें कि वे अलग- अलग गति से पिघल रहे हैं। इससे इस अंचल में हिमालयी नदी प्रणाली का प्रवाह गंभीर रूप से प्रभावित होगा बल्कि यह ग्लेशियर झील के फटने की घटनाएं,  हिमस्खलन और भूस्खलन जैसी आपदाओं के जन्म का कारण भी बनेगा।

इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि ग्लेशियरों के पिघलने से झीलों में पानी बढे़गा। उस हालत में उनमें सीमा से अधिक पानी होने से वह किनारों को तोड़कर बाहर निकलेगा। दूसरे शब्दों में झीलें फटेंगीं। उस दशा में पानी सैलाब की शक्ल में तेजी से बहेगा। नतीजन आसपास के गांव-कस्बे खतरे में पड़ जायेंगे। यानी उनको तबाही का सामना करना पडे़गा। उत्तराखंड की त्रासदी की तरह उस दशा में सब कुछ तबाह हो जायेगा। इसलिए इस मुद्दे पर प्राथमिकता के आधार पर तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। (लेखक का अपना अध्ययन एवं अपने विचार हैं)